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Pavana rebellion
jp Singh 2025-05-28 13:16:49
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पाबना विद्रोह (1873-76)

पाबना विद्रोह (1873-76)
मुझे लगता है कि आपका मतलब पाबना विद्रोह (Pabna Revolt) से है, क्योंकि "पावना विद्रोह" संभवतः एक टाइपो है और ऐतिहासिक सन्दर्भ में "पाबना विद्रोह" ही प्रासंगिक है। पाबना विद्रोह 1873-76 के बीच पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के पाबना जिले में हुआ था। यह जमींदारों के शोषण और ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ किसानों का एक महत्वपूर्ण प्रतिरोध आंदोलन था। नीचे इसका संक्षिप्त विवरण दिया गया है:
पाबना विद्रोह (1873-76): स्थान: पाबना जिला, यूसुफशाही परगना (वर्तमान सिराजगंज जिला, बांग्लादेश), जो राजशाही राज की जमींदारी के अंतर्गत था। यह बंगाल की दूसरी सबसे बड़ी जमींदारी थी। नेतृत्व: ईशान चंद्र राय, जिन्हें "बिद्रोही राजा" (Rebel King) कहा गया, ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। इसे बुद्धिजीवियों जैसे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, और आर.सी. दत्त का समर्थन प्राप्त था। कारण: जमींदारों का शोषण: जमींदारों द्वारा मनमाने ढंग से बढ़ाए गए लगान और कर, जो किसानों (रैयतों) के लिए असहनीय थे।
कानूनी अधिकारों का हनन: 1859 के अधिनियम X के तहत किसानों को 12 साल तक जमीन रखने पर कब्जे का अधिकार (Occupancy Right) मिलना था, लेकिन जमींदारों ने इसे लागू होने से रोका। आर्थिक दबाव: साहूकारों और महाजनों द्वारा कर्ज का शोषण, जिसने किसानों को कर्ज के जाल में फँसाया। स्थायी बंदोबस्त: ब्रिटिश नीतियों ने जमींदारों को और शक्तिशाली बनाया, जिससे किसानों का शोषण बढ़ा। घटनाक्रम: मई 1873 में किसानों ने एक किसान सभा (Agrarian League) बनाई, जिसने जमींदारों के खिलाफ संगठित प्रतिरोध शुरू किया।
किसानों ने लगान देने से इनकार किया, जमींदारों के खिलाफ मुकदमों के लिए चंदा इकट्ठा किया, और सामाजिक बहिष्कार की रणनीति अपनाई। यह आंदोलन मुख्य रूप से शांतिपूर्ण था, और हिंसा केवल तभी हुई जब जमींदारों या उनके कर्मचारियों ने किसानों को दबाने की कोशिश की। आंदोलन पाबना से ढाका, मैमनसिंह, बिदुरा, बाकरगंज, फरीदपुर, बोगरा, और राजशाही तक फैल गया। विशेषताएँ: यह आंदोलन कानून के दायरे में रहा और मुख्य रूप से जमींदारों के खिलाफ था, न कि ब्रिटिश सरकार के। नारा: "हम सिर्फ महारानी की रैयत होना चाहते हैं," जो जमींदारों के दबदबे को खत्म करने की माँग को दर्शाता था। हिंदू और मुस्लिम किसानों की एकता इसकी प्रमुख विशेषता थी, जो सांप्रदायिक सौहार्द का उदाहरण थी।
परिणाम: सरकार ने विद्रोह के कारणों की जाँच के लिए एक आयोग नियुक्त किया, जिसने किसानों की गरीबी और कर्ज को विद्रोह का मुख्य कारण बताया। कृषक राहत अधिनियम (1873): इस अधिनियम ने सिविल प्रक्रियाओं के तहत किसानों की जमीन जब्त करने पर रोक लगाई। जमींदारों को मजबूरन लगान और करों में कुछ राहत देनी पड़ी। इस आंदोलन ने बाद के किसान आंदोलनों, जैसे नील विद्रोह और चंपारण सत्याग्रह, को प्रेरित किया। महत्व: पाबना विद्रोह ने किसानों में सामूहिक चेतना और संगठन की शक्ति को दर्शाया। इसने ब्रिटिश शासन और जमींदारी प्रथा की शोषणकारी प्रकृति को उजागर किया।
बंगाल के बुद्धिजीवियों का समर्थन इसे एक राष्ट्रीय महत्व का आंदोलन बनाता है। स्पष्टीकरण और तुलना: पाबना विद्रोह बनाम नील आंदोलन: नील आंदोलन (1859-60) नील बागान मालिकों के खिलाफ था और मुख्य रूप से जबरन नील की खेती पर केंद्रित था, जबकि पाबना विद्रोह जमींदारों के मनमाने करों और कब्जे के अधिकारों के हनन के खिलाफ था। नील आंदोलन में हिंसा के कुछ मामले थे, लेकिन पाबना विद्रोह मुख्य रूप से शांतिपूर्ण रहा।
पाबना विद्रोह बनाम अन्य विद्रोह: पाइक विद्रोह (1817): सैन्य विद्रोह, ब्रिटिश प्रशासन और स्थानीय शक्ति हस्तक्षेप के खिलाफ। फकीर विद्रोह (1760-1800): धार्मिक समुदायों द्वारा गुरिल्ला युद्ध, जमींदारों और ब्रिटिश दोनों के खिलाफ। रंपा विद्रोह (1879, 1922-24): आदिवासी विद्रोह, जंगल अधिकारों और जमीन की रक्षा के लिए। मुंडा विद्रोह (1899-1900): आदिवासी विद्रोह, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जनन के साथ स्वशासन की माँग। पाबना विद्रोह इन सबसे अलग था, क्योंकि यह मुख्य रूप से कानूनी और शांतिपूर्ण प्रतिरोध पर आधारित था और इसका लक्ष्य जमींदारी शोषण को खत्म करना था।
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