हरित क्रांति से आज तक: खेती का बदलता चेहरा
jp Singh
2025-05-04 00:00:00
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हरित क्रांति से आज तक: खेती का बदलता चेहरा
हरित क्रांति से आज तक: खेती का बदलता चेहरा
भारतीय कृषि की सबसे निर्णायक मोड़ों में से एक था — हरित क्रांति। यह न केवल उत्पादन के स्तर को बदलने वाला तकनीकी और वैज्ञानिक आंदोलन था, बल्कि इसने भारतीय किसान के जीवन, सोच और संसाधनों की प्रकृति को भी मौलिक रूप से प्रभावित किया।
हरित क्रांति का आरंभ: आशा की एक किरण
1960 के दशक के मध्य में, भारत खाद्यान्न की गंभीर कमी से जूझ रहा था। कई राज्य अकाल और भुखमरी की चपेट में थे। भारत को अमेरिका से PL-480 योजना के तहत गेहूं आयात करना पड़ रहा था। ऐसे में वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन, नॉर्मन बोरलॉग और तत्कालीन सरकार के सहयोग से शुरू हुआ — हरित क्रांति का युग।
इस योजना के तहत उच्च उपज देने वाले बीज (HYV), रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, और सिंचाई को बढ़ावा दिया गया। शुरुआत में यह क्रांति पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केंद्रित रही, जहां पर्याप्त सिंचाई सुविधा और ज़मीन की उपलब्धता थी।
सकारात्मक प्रभाव
अन्न उत्पादन में वृद्धि: भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ। गेहूं और चावल की उपज कई गुना बढ़ गई।
भूखमरी से मुक्ति: 1970 के दशक में भारत ने भोजन का आयात लगभग बंद कर दिया और कई बार निर्यात भी किया।
किसान वर्ग में आत्मविश्वास: उत्पादन बढ़ने से किसानों को कृषि के प्रति उत्साह मिला और कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ।
नकारात्मक प्रभाव और क्षेत्रीय असमानता
हरित क्रांति की सफलता की कहानी जितनी तेज़ थी, उसका असर उतना ही सीमित रहा:
क्षेत्रीय विषमता: केवल वे राज्य लाभान्वित हुए जहां पहले से संसाधन उपलब्ध थे। पूर्वी भारत, मध्य भारत और दक्षिण के कई हिस्से इससे वंचित रह गए।
संपन्न बनाम सीमांत किसान: बड़े ज़मींदार और समृद्ध किसान अधिक लाभ ले पाए, जबकि छोटे और भूमिहीन किसान पीछे छूट गए।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन: अंधाधुंध रासायनिक खाद और कीटनाशकों ने मिट्टी की उर्वरता को कम कर दिया। भूमिगत जल स्तर गिर गया।
मोनोकल्चर की समस्या: केवल गेहूं और चावल पर अत्यधिक निर्भरता से फसल विविधता घटी।
हरित क्रांति के बाद: दूसरी पीढ़ी की चुनौतियाँ
1980 के दशक के बाद जब हरित क्रांति का प्रभाव स्थिर होने लगा, तब कई नई समस्याएँ उभरकर सामने आईं:
मिट्टी की थकान: बार-बार एक ही तरह की फसलें उगाने से खेतों की उपज घटने लगी।
जल संकट: हरित क्रांति की खेती जल-प्रधान थी, जिससे भूजल स्तर चिंताजनक रूप से गिरा।
उर्वरक-निर्भरता: किसान प्राकृतिक खेती से हटकर पूरी तरह रासायनिक उर्वरकों पर आश्रित हो गए।
1991 के बाद: उदारीकरण और कृषि पर प्रभाव
भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद कृषि को बाजार के हवाले कर दिया गया। किसानों को अब वैश्विक कीमतों, निर्यात-आयात नीति और मुक्त व्यापार समझौतों से भी जूझना पड़ा।
MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की व्यवस्था सीमित फसलों और क्षेत्रों तक ही सीमित रही।
कॉर्पोरेट और कांट्रैक्ट फार्मिंग की अवधारणाएँ सामने आईं, जिनसे किसानों को डर और असुरक्षा का अनुभव हुआ।
सब्सिडी में कटौती और सरकारी समर्थन घटा।
तकनीकी युग और किसान
इक्कीसवीं सदी में GPS, मोबाइल तकनीक, मौसम पूर्वानुमान, और जैव प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये सभी तकनीकें एक सीमांत किसान तक पहुँच पाईं?
डिजिटल डिवाइड ने किसान को तकनीकी लाभ से वंचित रखा।
कृषि शिक्षा और प्रशिक्षण का अभाव बना रहा।
ई-नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार) जैसी पहलें कुछ खास मंडियों तक सीमित रहीं।
नई खेती: जैविक, प्राकृतिक और टिकाऊ मॉडल
जब हरित क्रांति के दुष्परिणाम स्पष्ट होने लगे, तब कई किसान और संस्थाएँ जैविक खेती, ज़ीरो बजट फार्मिंग, और प्राकृतिक कृषि की ओर बढ़े।
कर्नाटक में सुभाष पालेकर की ज़ीरो बजट प्राकृतिक खेती एक आंदोलन बन गई।
महाराष्ट्र, ओडिशा, और आंध्र प्रदेश में किसान समूह मिलकर सहकारी खेती की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं।
यह बदलाव किसान की आत्मनिर्भरता, लागत में कमी और पर्यावरण की रक्षा की दिशा में महत्त्वपूर्ण है।
Conclusion
हरित क्रांति ने जहाँ एक ओर भारतीय कृषि को अकाल और भुखमरी से उबारा, वहीं यह भी स्पष्ट कर दिया कि बिना सतत योजना और न्यायपूर्ण वितरण के कोई भी तकनीकी क्रांति सीमित ही रहती है। आज ज़रूरत है एक "नीली क्रांति" (जल संरक्षण), "सफ़ेद क्रांति" (डेयरी विकास) और "हरित क्रांति-2.0" की — जो अधिक समावेशी, पारिस्थितिकीय रूप से संतुलित और सामाजिक दृष्टि से न्यायसंगत हो।
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