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Calcutta session of Congress, 1906 and the test of force
jp Singh 2025-05-29 10:45:04
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कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन, 1906 और बल परीक्षण

कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन, 1906 और बल परीक्षण
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन (1906) स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि यह पहली बार था जब कांग्रेस ने औपचारिक रूप से स्वराज्य (स्व-शासन) की मांग को अपने एजेंडे में शामिल किया। इस अधिवेशन में बल परीक्षण (Strength Testing) का मुद्दा भी उठा, जो कांग्रेस के भीतर उदारवादी (Moderate) और उग्रवादी (Extremist) धड़ों के बीच वैचारिक टकराव को दर्शाता है। नीचे इस अधिवेशन और बल परीक्षण के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी दी गई है:
1. कलकत्ता अधिवेशन, 1906: पृष्ठभूमि
समय और स्थान: यह अधिवेशन दिसंबर 1906 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में आयोजित हुआ। अध्यक्ष: दादाभाई नौरोजी, जिन्हें "ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया" कहा जाता है, इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। ऐतिहासिक संदर्भ: 1905 में बंगाल विभाजन के बाद ब्रिटिश विरोधी भावनाएं चरम पर थीं। बंगाल विभाजन के खिलाफ स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने जनता में राष्ट्रीय चेतना को प्रज्वलित किया था। इस पृष्ठभूमि में, कांग्रेस के भीतर उग्रवादी नेताओं (बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय) का प्रभाव बढ़ रहा था, जो उदारवादियों (गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता) की तुलना में अधिक आक्रामक रणनीति चाहते थे।
2. स्वराज्य की मांग
इस अधिवेशन में पहली बार "स्वराज्य" को कांग्रेस के लक्ष्य के रूप में घोषित किया गया। दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वराज्य को परिभाषित किया, जिसे उदारवादी धड़े ने औपनिवेशिक ढांचे के भीतर स्व-शासन के रूप में देखा, जबकि उग्रवादियों ने इसे पूर्ण स्वतंत्रता के रूप में समझा। स्वदेशी आंदोलन और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को बढ़ावा देने का प्रस्ताव भी पारित हुआ, जो बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ था।
3. बल परीक्षण (Strength Testing)
बल परीक्षण का अर्थ: बल परीक्षण से तात्पर्य कांग्रेस के भीतर उदारवादी और उग्रवादी धड़ों के बीच वैचारिक और रणनीतिक शक्ति के प्रदर्शन से है। यह अधिवेशन कांग्रेस के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि उग्रवादी धड़ा अधिक आक्रामक और प्रत्यक्ष कार्रवाई की मांग कर रहा था, जबकि उदारवादी संवैधानिक तरीकों (प्रार्थना, याचिका, और सुधार) पर जोर दे रहे थे।
वैचारिक टकराव: उदारवादी: गोपाल कृष्ण गोखले और उनके समर्थक ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग और धीरे-धीरे सुधारों की नीति पर विश्वास रखते थे। वे स्वराज्य को औपनिवेशिक ढांचे के भीतर स्व-शासन के रूप में देखते थे। उग्रवादी: बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता स्वदेशी, बहिष्कार, और सशस्त्र क्रांति जैसे प्रत्यक्ष और आक्रामक तरीकों के पक्षधर थे। वे स्वराज्य को पूर्ण स्वतंत्रता के रूप में चाहते थे। घटनाएं: अधिवेशन में उग्रवादी नेताओं ने स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन को और मजबूत करने की मांग की। तिलक और उनके समर्थकों ने स्वराज्य के लिए अधिक स्पष्ट और कट्टरपंथी प्रस्ताव पेश करने की कोशिश की, जिसका उदारवादियों ने विरोध किया।
हालांकि दोनों धड़ों के बीच समझौता हुआ, और स्वराज्य का प्रस्ताव पारित हुआ, लेकिन यह समझौता अस्थायी था। यह बल परीक्षण कांग्रेस के भीतर बढ़ते तनाव का प्रतीक था, जो 1907 के सूरत अधिवेशन में खुले विभाजन का कारण बना। परिणाम: कलकत्ता अधिवेशन में उग्रवादी धड़े का प्रभाव बढ़ा, और स्वदेशी आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिला। हालांकि, उदारवादी नेतृत्व ने अपनी स्थिति बनाए रखी, जिससे दोनों धड़ों के बीच तनाव बना रहा।
4. प्रमुख परिणाम और प्रभाव
स्वराज्य का उद्घोष: पहली बार कांग्रेस ने स्व-शासन को अपने आधिकारिक लक्ष्य के रूप में अपनाया, जिसने राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा दी। स्वदेशी और बहिष्कार: अधिवेशन ने स्वदेशी आंदोलन को मजबूती दी, जिसने भारतीयों को स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए प्रेरित किया। उग्रवाद का उदय: उग्रवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ा, जिसने क्रांतिकारी गतिविधियों और जन-आंदोलनों को प्रेरित किया। कांग्रेस में विभाजन की नींव: 1906 का अधिवेशन कांग्रेस के भीतर उभरते वैचारिक मतभेदों का प्रतीक था, जो 1907 के सूरत अधिवेशन में औपचारिक विभाजन का कारण बना।
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