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jp Singh 2025-05-29 10:32:58
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उदारवादियों का इंग्लैंड में प्रचार

उदारवादियों का इंग्लैंड में प्रचार
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी चरण (1885-1905) के दौरान, उदारवादी नेताओं ने ब्रिटिश शासन के भीतर सुधारों और स्वशासन की मांग को आगे बढ़ाने के लिए इंग्लैंड में प्रचार कार्य किया। उन्होंने ब्रिटिश जनता, संसद और सरकार को भारत की समस्याओं, विशेष रूप से आर्थिक शोषण, प्रशासनिक भेदभाव और स्वशासन की आवश्यकता, से अवगत कराने के लिए कई रणनीतियों का उपयोग किया। यह प्रचार कार्य भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने और ब्रिटिश नीतियों को प्रभावित करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था।
उदारवादियों के प्रचार की पृष्ठभूमि
उद्देश्य: ब्रिटिश जनता और संसद को भारत में ब्रिटिश शासन की नीतियों, जैसे आर्थिक शोषण (धन निष्कासन), सिविल सेवा में भारतीयों की कम भागीदारी, और भारी करों, के बारे में जागरूक करना। भारतीयों के लिए स्वशासन (Self-Governance) और प्रशासनिक सुधारों की मांग को वैधता प्रदान करना। ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालकर भारतीय हितों के लिए सुधार लागू करवाना। रणनीति: उदारवादी नेता संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीकों, जैसे प्रार्थना पत्र, लेख, व्याख्यान, और संगठनों के माध्यम से कार्य करते थे। वे ब्रिटिश शासन की निष्ठा पर जोर देते थे, लेकिन सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करते थे। प्रमुख नेता: दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, और डब्ल्यू.सी. बनर्जी।
इंग्लैंड में प्रचार के प्रमुख तरीके: संगठनों की स्थापना: ईस्ट इंडिया एसोसिएशन (1866): संस्थापक: दादाभाई नौरोजी। उद्देश्य: लंदन में भारतीय हितों की पैरवी करना और ब्रिटिश जनता को भारत की समस्याओं से अवगत कराना। महत्व: इसने ब्रिटिश संसद और जनता के बीच भारतीय मुद्दों, जैसे धन निष्कासन और सिविल सेवा सुधार, को उठाया। दादाभाई नौरोजी ने इसके माध्यम से अपने "धन निष्कासन सिद्धांत" को प्रचारित किया। लंदन इंडियन सोसाइटी (1865): संस्थापक: भारतीय छात्रों और बुद्धिजीवियों, जैसे दादाभाई नौरोजी और डब्ल्यू.सी. बनर्जी। उद्देश्य: ब्रिटिश शिक्षित वर्ग और नीति-निर्माताओं को भारतीय समस्याओं से जोड़ना। महत्व: इसने भारतीय मुद्दों को ब्रिटिश विश्वविद्यालयों और बुद्धिजीवियों के बीच प्रचारित किया।
नेशनल इंडियन एसोसिएशन (1870): संस्थापक: मैरी कारपेंटर, दादाभाई नौरोजी के सहयोग से। उद्देश्य: भारतीयों की सामाजिक और शैक्षिक प्रगति को बढ़ावा देना और ब्रिटिश जनता को भारत की स्थिति से अवगत कराना। महत्व: इसने सामाजिक सुधारों (जैसे स्त्री शिक्षा) को राजनीतिक मांगों के साथ जोड़ा। ब्रिटिश संसद में भागीदारी: दादाभाई नौरोजी का योगदान: दादाभाई नौरोजी 1892 में ब्रिटिश संसद (हाउस ऑफ कॉमन्स) के लिए चुने गए, जो पहली बार किसी भारतीय ने यह उपलब्धि हासिल की। उन्होंने संसद में भारत के आर्थिक शोषण, धन निष्कासन, और भारतीयों के लिए स्वशासन की मांग को उठाया। उनकी पुस्तक Poverty and Un-British Rule in India ने धन निष्कासन की अवधारणा को वैश्विक मंच पर स्थापित किया।
महत्व: संसद में भारतीय मुद्दों को उठाकर उदारवादियों ने ब्रिटिश नीति-निर्माताओं पर दबाव बनाया। यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय वैधता प्रदान करने में सहायक था। प्रकाशन और प्रेस: पत्र-पत्रिकाएं: उदारवादी नेताओं ने इंग्लैंड में पत्रिकाओं और समाचार पत्रों, जैसे India (ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की पत्रिका), के माध्यम से भारतीय मुद्दों को प्रचारित किया। दादाभाई नौरोजी और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश समाचार पत्रों में लेख लिखे, जिसमें भारतीयों की समस्याओं को उजागर किया गया। पुस्तकें और लेख: दादाभाई नौरोजी की Poverty and Un-British Rule in India और अन्य लेखों ने ब्रिटिश जनता को भारत के आर्थिक शोषण से अवगत कराया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से सिविल सेवा सुधारों की मांग को प्रचारित किया।
महत्व: इन प्रकाशनों ने ब्रिटिश बुद्धिजीवियों और जनता में भारतीय मुद्दों के प्रति सहानुभूति जगाई। सार्वजनिक सभाएं और व्याख्यान: उदारवादी नेता, विशेष रूप से दादाभाई नौरोजी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी, ने इंग्लैंड में सार्वजनिक सभाओं और व्याख्यानों का आयोजन किया। उदाहरण: दादाभाई नौरोजी ने लंदन और अन्य शहरों में व्याख्यान दिए, जिसमें उन्होंने भारत की गरीबी और ब्रिटिश नीतियों के प्रभाव को समझाया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने 1870 के दशक में इंग्लैंड में सिविल सेवा (ICS) की आयु सीमा बढ़ाने की मांग को लेकर प्रचार किया।
महत्व: इस सहयोग ने भारतीय मांगों को ब्रिटिश राजनीति में जगह दी और नीतिगत बदलावों के लिए दबाव बनाया। प्रमुख उपलब्धियां: जागरूकता का प्रसार: उदारवादियों ने ब्रिटिश जनता और संसद को भारत में ब्रिटिश शासन की कमियों, जैसे आर्थिक शोषण और प्रशासनिक भेदभाव, से अवगत कराया। नीतिगत प्रभाव: 1892 का भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act) उदारवादियों के प्रचार का परिणाम था, जिसने भारतीयों को सीमित विधायी प्रतिनिधित्व प्रदान किया। सिविल सेवा (ICS) की आयु सीमा को 19 से 23 वर्ष करने (1878) में सुरेंद्रनाथ बनर्जी के प्रचार का योगदान था। अंतरराष्ट्रीय वैधता: दादाभाई नौरोजी जैसे नेताओं ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को वैश्विक मंच पर ले जाकर इसे वैधता प्रदान की।
नेतृत्व का प्रशिक्षण: इंग्लैंड में प्रचार कार्य ने भारतीय नेताओं को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अनुभव प्रदान किया, जो बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में उपयोगी रहा। सीमाएं: सीमित प्रभाव: ब्रिटिश सरकार ने उदारवादियों की मांगों को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया, और सुधार सीमित रहे। उदारवादी दृष्टिकोण को कुछ भारतीय नेताओं (जैसे उग्रवादी) ने अपर्याप्त माना। मध्यम वर्ग तक सीमित: प्रचार कार्य मुख्य रूप से शिक्षित मध्यम वर्ग तक सीमित था, और ग्रामीण जनता तक इसकी पहुंच कम थी।
ब्रिटिश निष्ठा: उदारवादियों की ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा ने उनके प्रचार को कुछ हद तक सीमित किया, क्योंकि वे पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं करते थे।
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