Situation before Indian National Congress
jp Singh
2025-05-29 10:27:52
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व की स्थिति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व की स्थिति
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना 1885 में हुई, और यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर थी। इससे पहले की स्थिति, यानी 19वीं सदी के मध्य से 1885 तक का काल, भारतीय समाज, राजनीति, और अर्थव्यवस्था के लिए परिवर्तनकारी था। इस अवधि में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के प्रभाव, सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन, और प्रारंभिक राजनीतिक संगठनों ने भारतीय राष्ट्रवाद की नींव रखी। नीचे इस अवधि की स्थिति को संक्षेप में समझाया गया है:
1. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का प्रभाव
आर्थिक शोषण: ब्रिटिश नीतियों, जैसे स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी, और महालवाड़ी व्यवस्था, ने किसानों और जमींदारों पर भारी करों का बोझ डाला। भारतीय हस्तशिल्प उद्योग (विशेष रूप से कपड़ा) को नष्ट कर ब्रिटिश माल को बढ़ावा दिया गया, जिससे आर्थिक संकट और बेरोजगारी बढ़ी। दादाभाई नौरोजी ने "धन निष्कासन सिद्धांत" (Drain of Wealth) के माध्यम से भारत की संपत्ति के शोषण को उजागर किया। प्रशासनिक भेदभाव: भारतीयों को उच्च प्रशासनिक और सैन्य पदों से वंचित रखा गया। सिविल सेवा (ICS) में भारतीयों की भागीदारी सीमित थी, और आयु सीमा (19 वर्ष) ने भारतीय उम्मीदवारों के लिए अवसरों को और कम किया। इल्बर्ट बिल विवाद (1883) ने ब्रिटिश और भारतीयों के बीच नस्लीय भेदभाव को उजागर किया।
सामाजिक प्रभाव: ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज को आधुनिकता की ओर ले जाने का प्रयास किया, लेकिन यह भारतीय परंपराओं और संस्कृति के प्रति असंवेदनशील था, जिससे असंतोष बढ़ा।
2. सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन: ब्रह्म समाज (1828): राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, बाल विवाह, और अन्य सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ सुधार शुरू किए। पश्चिमी और भारतीय मूल्यों के समन्वय पर जोर दिया, जिसने राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाया। आर्य समाज (1875): स्वामी दयानंद सरस्वती ने "वेदों की ओर लौटो" का नारा दिया और हिंदू समाज में आत्मविश्वास जगाया। भारतीय संस्कृति और धर्म को पुनर्जनन करने में योगदान दिया। प्रार्थना समाज (1867): महाराष्ट्र में आत्माराम पांडुरंग और महादेव गोविंद रानाडे द्वारा स्थापित, इसने सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया। थियोसोफिकल सोसाइटी (1875): मैडम ब्लावात्स्की और कर्नल ओल्कोट द्वारा स्थापित, इसने भारतीय आध्यात्मिकता को वैश्विक मंच पर प्रचारित किया। महत्व: इन आंदोलनों ने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और भारतीय संस्कृति में गर्व की भावना को पुनर्जनन किया, जिसने राष्ट्रीय चेतना को मजबूत किया।
. 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम: प्रकृति: 1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला संगठित और व्यापक विद्रोह था, जिसमें सैनिकों, किसानों, जमींदारों, और स्थानीय शासकों (रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तांत्या टोपे) ने भाग लिया। मेरठ में शुरू हुआ और दिल्ली, कानपुर, लखनऊ जैसे क्षेत्रों में फैला। कारण: चर्बी वाले कारतूसों की अफवाह, आर्थिक शोषण, और सांस्कृतिक हस्तक्षेप। परिणाम: विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने भारतीयों में एकता और स्वतंत्रता की भावना को जागृत किया। ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर भारत को सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन किया (1858 का भारत सरकार अधिनियम)। इसने भारतीयों को संगठित होने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया।
. प्रारंभिक राजनीतिक संगठन: बंगाल लैंडहोल्डर्स सोसाइटी (1838): जमींदारों के हितों की रक्षा और भू-राजस्व नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए स्थापित। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन (1851): बंगाल में जमींदारों और मध्यम वर्ग ने प्रशासनिक सुधारों और भारतीय प्रतिनिधित्व की मांग की। बॉम्बे एसोसिएशन (1852): दादाभाई नौरोजी और अन्य ने आर्थिक और प्रशासनिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया। मद्रास नेटिव एसोसिएशन (1852): दक्षिण भारत में भू-राजस्व और कर नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। पूना सर्वजनिक सभा (1870): महादेव गोविंद रानाडे ने सामाजिक और राजनीतिक सुधारों को जोड़ा।
इंडियन एसोसिएशन (1876): सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस ने सिविल सेवा सुधार और राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया। अन्य संगठन: बंगाल नेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स (1834), इंडियन रिफॉर्म एसोसिएशन (1870), और नेशनल इंडियन एसोसिएशन (1870) जैसे संगठनों ने स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर जागरूकता फैलाई। महत्व: ये संगठन क्षेत्रीय थे, लेकिन इन्होंने भारतीयों को संगठित करने और ब्रिटिश सरकार को प्रार्थना पत्रों के माध्यम से मांगें प्रस्तुत करने का अनुभव प्रदान किया। इनका नेतृत्व शिक्षित मध्यम वर्ग (वकील, पत्रकार, शिक्षक) के पास था, जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित था।
5. पश्चिमी शिक्षा और प्रेस की भूमिका: पश्चिमी शिक्षा: लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति (1835) ने अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया, जिसने मध्यम वर्ग में स्वतंत्रता, समानता, और लोकतंत्र जैसे विचारों को जन्म दिया। इसने भारतीयों को ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना करने और संगठित होने के लिए प्रेरित किया। प्रेस: समाचार पत्रों जैसे हिंदू पैट्रियट, अमृत बाजार पत्रिका, बंगाली, और सोम प्रकाश ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना की और जनता में जागरूकता फैलाई। बंकिम चंद्र चटर्जी का उपन्यास आनंदमठ और गीत "वंदे मातरम" ने राष्ट्रीय भावनाओं को प्रेरित किया। महत्व: प्रेस और साहित्य ने भारतीयों को एकजुट करने और राष्ट्रीय चेतना को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
6. बाहरी प्रभाव: विश्व स्तर पर स्वतंत्रता आंदोलन (अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, फ्रांसीसी क्रांति) ने भारतीय बुद्धिजीवियों को प्रेरित किया। जापान की 1905 में रूस पर विजय (हालांकि यह बाद की घटना है) ने एशियाई देशों में आत्मविश्वास जगाया, लेकिन 19वीं सदी में यूरोपीय क्रांतियों का प्रभाव पहले से मौजूद था।
7. सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण: भारतीय इतिहास और संस्कृति की पुनर्खोज (मैक्स मूलर, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) ने भारतीयों में अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व की भावना को जागृत किया। साहित्यकारों जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र (हिंदी) और रवींद्रनाथ टैगोर (बंगाली) ने राष्ट्रीय भावनाओं को प्रेरित किया।
8. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की ओर: उपरोक्त कारकों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया और एक राष्ट्रीय मंच की आवश्यकता को रेखांकित किया। 1885 में ए. ओ. ह्यूम, एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी, ने भारतीय नेताओं (दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता) के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। कांग्रेस की स्थापना से पहले के संगठनों ने नेतृत्व, संगठनात्मक अनुभव, और वैचारिक आधार प्रदान किया, जिसने इसे राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख मंच बनाया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
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