Anglicist-Orientalist Controversy
jp Singh
2025-05-29 10:03:27
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आंग्ल प्राच्य विवाद
आंग्ल प्राच्य विवाद
आंग्ल-प्राच्य विवाद (Anglicist-Orientalist Controversy) 19वीं सदी के प्रारंभ में भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान शिक्षा नीति को लेकर एक महत्वपूर्ण बहस थी। यह विवाद मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित था कि भारत में शिक्षा का माध्यम और पाठ्यक्रम क्या होना चाहिए: पश्चिमी (अंग्रेजी) शिक्षा या पारंपरिक भारतीय (प्राच्य) शिक्षा। यह बहस 1830 के दशक में चरम पर थी और इसका परिणाम 1835 में लॉर्ड मैकाले के 'मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन' के रूप में सामने आया।
आंग्ल-प्राच्य विवाद का अवलोकन
1. पृष्ठभूमि समय: 1813-1835 संदर्भ: ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1813 के चार्टर एक्ट के तहत भारत में शिक्षा के लिए 1 लाख रुपये वार्षिक अनुदान आवंटित किया। इस धन के उपयोग को लेकर ब्रिटिश प्रशासकों और भारतीय सुधारकों के बीच मतभेद उभरे। प्रमुख प्रश्न: शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो या भारतीय भाषाएँ (संस्कृत, फारसी, और क्षेत्रीय भाषाएँ)? पाठ्यक्रम में पश्चिमी विज्ञान और साहित्य को प्राथमिकता दी जाए या पारंपरिक भारतीय ज्ञान को?
2. आंग्लवादी (Anglicists) प्रमुख समर्थक: लॉर्ड मैकाले, चार्ल्स ट्रेवेलियन, और अन्य ब्रिटिश प्रशासक। विचारधारा: पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देना, विशेष रूप से अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय विज्ञान, साहित्य, और दर्शन। उनका मानना था कि भारतीय पारंपरिक शिक्षा (संस्कृत और फारसी) "पुरानी" और "अवैज्ञानिक" थी, जो आधुनिक प्रशासन और प्रगति के लिए उपयुक्त नहीं थी। उद्देश्य: एक ऐसा भारतीय मध्यम वर्ग तैयार करना जो "रक्त और रंग में भारतीय हो, लेकिन विचार और बुद्धि में अंग्रेज" (मैकाले का कथन)। तर्क: अंग्रेजी शिक्षा से ब्रिटिश प्रशासन के लिए कुशल कर्मचारी (क्लर्क, अनुवादक) तैयार होंगे। पश्चिमी शिक्षा भारतीय समाज को आधुनिक बनाएगी और ब्रिटिश शासन के प्रति वफादारी बढ़ाएगी। प्रस्तावित कदम: अंग्रेजी माध्यम के स्कूल और कॉलेज स्थापित करना। पाठ्यक्रम में गणित, विज्ञान, और यूरोपीय साहित्य शामिल करना।
3. प्राच्यवादी (Orientalists) प्रमुख समर्थक: विलियम जोन्स, हेनरी थॉमस कोलब्रूक, और कुछ भारतीय सुधारक जैसे राजा राममोहन राय। विचारधारा: पारंपरिक भारतीय शिक्षा प्रणाली (संस्कृत, फारसी, और क्षेत्रीय भाषाओं) को संरक्षित और प्रोत्साहित करना। उनका मानना था कि भारतीय ज्ञान परंपराएँ (वेद, उपनिषद, कुरान, और साहित्य) समृद्ध हैं और इन्हें आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ा जा सकता है। अंग्रेजी शिक्षा को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया, बल्कि इसे भारतीय भाषाओं के साथ संतुलित करने की वकालत की। तर्क: भारतीय भाषाएँ और संस्कृति जनता के लिए अधिक सुलभ और स्वीकार्य हैं। पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने से सांस्कृतिक विरासत का ह्रास होगा। पश्चिमी और भारतीय शिक्षा का मिश्रण भारतीय समाज के लिए अधिक लाभकारी होगा। प्रस्तावित कदम: संस्कृत कॉलेज (बनारस, 1791) और मदरसों जैसे संस्थानों को मजबूत करना। भारतीय भाषाओं में पश्चिमी विज्ञान और ज्ञान का अनुवाद करना।
4. भारतीय सुधारकों की भूमिका राजा राममोहन राय: प्राच्यवादी दृष्टिकोण का समर्थन करते थे, लेकिन वे पश्चिमी विज्ञान और तर्कसंगत शिक्षा के पक्षधर भी थे। उन्होंने हिंदू कॉलेज, कोलकाता (1817) की स्थापना में योगदान दिया, जो भारतीय और पश्चिमी शिक्षा का मिश्रण प्रदान करता था। अंग्रेजी शिक्षा को उपयोगी माना, लेकिन संस्कृत और भारतीय भाषाओं को महत्वपूर्ण माना। अन्य सुधारक: ईश्वरचंद्र विद्यासागर और अन्य ने बाद में भारतीय और पश्चिमी शिक्षा के संतुलन की वकालत की। 5. मैकाले का मिनट (1835) और परिणाम लॉर्ड मैकाले का मिनट: 1835 में, लॉर्ड मैकाले ने अपने 'मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन' में अंग्रेजी शिक्षा को प्राथमिकता देने की सिफारिश की। उन्होंने तर्क दिया कि भारतीय भाषाएँ और साहित्य "अवैज्ञानिक" हैं और अंग्रेजी शिक्षा ही भारत को आधुनिक बना सकती है। इस नीति को गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने स्वीकार किया।
परिणाम: शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाया गया, और सरकारी धन मुख्य रूप से अंग्रेजी स्कूलों और कॉलेजों के लिए आवंटित किया गया। पारंपरिक संस्थानों (जैसे संस्कृत कॉलेज और मदरसे) को कम धन मिला, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हुई। अंग्रेजी जानने वाला एक नया भारतीय मध्यम वर्ग उभरा, जो बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
6. प्रभाव सकारात्मक प्रभाव: अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों को पश्चिमी विज्ञान, दर्शन, और साहित्य से परिचित कराया। इससे एक शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय हुआ, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) जैसे आंदोलनों में सक्रिय हुआ। शिक्षा के प्रसार ने सामाजिक सुधार आंदोलनों (जैसे सती प्रथा उन्मूलन) को गति दी। नकारात्मक प्रभाव: पारंपरिक शिक्षा प्रणालियों (गुरुकुल, मदरसे) का ह्रास हुआ। अंग्रेजी शिक्षा कुलीन वर्ग तक सीमित रही, जिससे ग्रामीण और निम्न वर्गों में साक्षरता दर कम रही। सांस्कृतिक और भाषाई विरासत को नुकसान पहुंचा, क्योंकि भारतीय भाषाओं को कम महत्व दिया गया।
7. समाचार पत्रों का योगदान आपके पिछले प्रश्नों (19वीं सदी के समाचार पत्र) से जोड़ते हुए, आंग्ल-प्राच्य विवाद के दौरान समाचार पत्रों ने शिक्षा नीति पर बहस को जनता तक पहुंचाया: संवाद कौमुदी (1821, राजा राममोहन राय): प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के संतुलन की वकालत की। जाम-ए-जहां नुमा (1822): उर्दू में शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर चर्चा। ये पत्र शिक्षा के महत्व और नीतिगत बहस को जनता तक ले गए, जिसने सामाजिक जागरूकता बढ़ाई।
8. चुनौतियाँ सामाजिक रूढ़ियाँ: भारतीय समाज में शिक्षा का दायरा सीमित था, विशेष रूप से महिलाओं और निम्न जातियों के लिए। आर्थिक बाधाएँ: सीमित सरकारी धन के कारण शिक्षा का विस्तार धीमा था। सांस्कृतिक प्रतिरोध: कुछ भारतीय समुदायों ने पश्चिमी शिक्षा को सांस्कृतिक आक्रमण के रूप में देखा।
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