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Paramhansa Mandali
jp Singh 2025-05-28 17:41:24
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परमहंस मंडली

परमहंस मंडली
परमहंस मंडली 19वीं सदी में भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन था, जिसका उद्देश्य हिंदू समाज में व्याप्त रूढ़ियों, विशेष रूप से जाति व्यवस्था, को समाप्त करना और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देना था। यह आंदोलन पश्चिमी भारत, विशेषकर महाराष्ट्र, में प्रभावशाली था और हिंदू सुधार आंदोलनों का हिस्सा था।
उद्भव और पृष्ठभूमि स्थापना: परमहंस मंडली की स्थापना 1849 में बंबई (वर्तमान मुंबई) में हुई थी। संस्थापक: दादोबा पांडुरंग, दुर्गाराम मेहताजी, और उनके मित्रों के एक समूह ने इसकी शुरुआत की। कुछ स्रोतों में रामचंद्र जयकर का भी उल्लेख है। संदर्भ: परमहंस मंडली का गहरा संबंध मानव धर्म सभा (1844, सूरत) से था, जिसके कई सदस्य बाद में परमहंस मंडली में शामिल हुए। 19वीं सदी में पश्चिमी शिक्षा और ब्रिटिश शासन के प्रभाव से बौद्धिक जागरण हुआ, जिसने सामाजिक कुरीतियों, जैसे जातिगत भेदभाव और रूढ़ियों, पर सवाल उठाए। यह आंदोलन ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज जैसे समकालीन हिंदू सुधार आंदोलनों से प्रेरित था, लेकिन इसका दृष्टिकोण अधिक कट्टर और गुप्त था।
उद्देश्य धार्मिक सुधार: एकेश्वरवाद (एक ईश्वर में विश्वास) को बढ़ावा देना और मूर्तिपूजा, कर्मकांड, और अंधविश्वासों का विरोध करना। सामाजिक सुधार: जाति व्यवस्था का उन्मूलन और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना। महिला शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह की वकालत। स्वतंत्र चिंतन: तर्कवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करना। आधुनिकीकरण: हिंदू समाज को आधुनिक और तर्कसंगत बनाने के लिए पश्चिमी विचारों को अपनाना। प्रमुख गतिविधियाँ और योगदान गुप्त संगठन: परमहंस मंडली एक गुप्त सामाजिक-धार्मिक समूह के रूप में कार्य करती थी, क्योंकि इसके कट्टर विचार रूढ़िवादी समाज से टकराते थे।
इसकी गुप्त बैठकों में विभिन्न जातियों के सदस्य एक साथ भोजन करते थे, जो जाति नियमों को तोड़ने का प्रतीक था। जाति उन्मूलन: मंडली के सदस्य निम्न जाति के लोगों द्वारा पकाया गया भोजन ग्रहण करते थे, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था। यह महाराष्ट्र का पहला सामाजिक-धार्मिक संगठन था, जिसने जाति व्यवस्था के खिलाफ खुलकर विरोध किया। महिला सुधार: मंडली ने विधवा पुनर्विवाह और महिला शिक्षा का समर्थन किया, जो 19वीं सदी में प्रगतिशील विचार थे। साहित्यिक योगदान: दादोबा पांडुरंग ने धर्म विवेचन (1848) में मानव धर्म सभा के लिए और परमहंसिक ब्रम्ह्यधर्म में परमहंस मंडली के सिद्धांतों को रेखांकित किया। इन लेखों में एकेश्वरवाद, तर्कवाद, और सामाजिक समानता पर जोर दिया गया।
शाखाएँ: मंडली की शाखाएँ बंबई के अलावा पूना, अहमदनगर, और रत्नागिरी जैसे स्थानों पर स्थापित की गईं। प्रमुख व्यक्तित्व दादोबा पांडुरंग: जन्म 1814 में पुणे में एक व्यापारी परिवार में। वे मानव धर्म सभा के प्रमुख नेता थे और बाद में परमहंस मंडली के नेतृत्वकर्ता बने। 1846 में बंबई नॉर्मल स्कूल के प्रधानाध्यापक बने। उनकी पुस्तक धर्म विवेचन में सात सिद्धांत दिए गए, जो मंडली की विचारधारा का आधार बने। दुर्गाराम मेहताजी: एक गुजराती सुधारक, जिन्होंने मानव धर्म सभा और परमहंस मंडली की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामचंद्र जयकर: दादोबा के सहयोगी, जिन्होंने मंडली की स्थापना में योगदान दिया।
प्रभाव और उपलब्धियाँ जाति व्यवस्था पर प्रहार: परमहंस मंडली ने जातिगत भेदभाव को चुनौती दी और सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। महिला सशक्तीकरण: विधवा पुनर्विवाह और महिला शिक्षा जैसे मुद्दों को उठाकर मंडली ने प्रगतिशील विचारों को प्रोत्साहित किया। बौद्धिक जागरण: मंडली ने शिक्षित युवा ब्राह्मणों को आकर्षित किया, जो पश्चिमी शिक्षा और तर्कवाद से प्रभावित थे। महाराष्ट्र में सुधार: यह महाराष्ट्र का पहला सामाजिक-धार्मिक संगठन था, जिसने पश्चिमी भारत में सुधार आंदोलनों को प्रेरित किया। चुनौतियाँ और पतन रूढ़िवादी विरोध: मंडली के कट्टर विचारों, जैसे जाति नियम तोड़ना और एकेश्वरवाद, ने रूढ़िवादी हिंदू समाज का विरोध झेला। गुप्त स्वरूप का खुलासा: माना जाता है कि 1860 में इसके गुप्त स्वरूप का रहस्योद्घाटन होने के कारण मंडली का प्रभाव कम हुआ और यह ध्वस्त हो गई।
सीमित दायरा: मंडली का प्रभाव मुख्य रूप से बंबई और महाराष्ट्र के शहरी, शिक्षित ब्राह्मणों तक सीमित रहा। आंतरिक कमजोरियाँ: संगठनात्मक ढाँचे की कमी और नेतृत्व के सीमित प्रसार ने इसके दीर्घकालिक प्रभाव को कम किया।
स्वतंत्रता के बाद की विरासत परमहंस मंडली अल्पकालिक रही, लेकिन इसने महाराष्ट्र में सामाजिक-धार्मिक सुधारों की नींव रखी। इसने प्रार्थना समाज (1867) और सत्यशोधक समाज (1873) जैसे बाद के सुधार आंदोलनों को प्रेरित किया। मंडली के विचार, जैसे जाति उन्मूलन और महिला शिक्षा, बाद में ज्योतिबा फुले और महादेव गोविंद रानाडे जैसे सुधारकों के कार्यों में देखे गए।
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