Social and Economic Reform Movement in India
jp Singh
2025-05-28 17:22:14
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भारत में सामाजिक एवं आर्थिक सुधार आंदोलन
भारत में सामाजिक एवं आर्थिक सुधार आंदोलन
भारत में सामाजिक और आर्थिक सुधार आंदोलन देश के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन लाने और शोषण, असमानता, और रूढ़ियों को दूर करने के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं। ये आंदोलन 19वीं सदी से शुरू होकर स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्रता के बाद भी विभिन्न रूपों में सक्रिय रहे। सामाजिक सुधार आंदोलन मुख्य रूप से सामाजिक कुरीतियों (जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत) पर केंद्रित थे, जबकि आर्थिक सुधार आंदोलन जमींदारी, शोषण, और आर्थिक असमानता को खत्म करने पर।
सामाजिक सुधार आंदोलन 19वीं सदी: प्रारंभिक सुधार आंदोलन ब्रह्म समाज (1828): संस्थापक: राजा राममोहन राय। उद्देश्य: एकेश्वरवाद, सामाजिक कुरीतियों (सती प्रथा, बाल विवाह, मूर्तिपूजा) का विरोध, और महिलाओं की स्थिति में सुधार। योगदान: 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध, विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा, और आधुनिक शिक्षा का समर्थन। प्रार्थना समाज (1867): संस्थापक: आत्माराम पांडुरंग और महादेव गोविंद रानाडे। उद्देश्य: हिंदू धर्म में सुधार, जातिगत भेदभाव और रूढ़ियों का विरोध। योगदान: विधवा पुनर्विवाह और नारी शिक्षा को बढ़ावा। आर्य समाज (1875): संस्थापक: स्वामी दयानंद सरस्वती। उद्देश्य: वेदों की ओर वापसी, मूर्तिपूजा, बाल विवाह, और छुआछूत का विरोध। योगदान: शुद्धि आंदोलन (धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को हिंदू धर्म में वापस लाना), शिक्षा और सामाजिक समानता पर जोर।
रामकृष्ण मिशन (1897): संस्थापक: स्वामी विवेकानंद। उद्देश्य: हिंदू धर्म का आधुनिकीकरण, सामाजिक सेवा, और शिक्षा का प्रसार। योगदान: सामाजिक सुधार, गरीबों की सेवा, और भारतीय संस्कृति का वैश्विक प्रचार। थियोसोफिकल सोसाइटी (1875): संस्थापक: मैडम ब्लावट्स्की और कर्नल ओल्कोट (भारत में 1879 में स्थापित)। उद्देश्य: भारतीय धर्म और संस्कृति का सम्मान, सामाजिक सुधार। योगदान: भारतीयों में आत्म-सम्मान की भावना को बढ़ावा। 20वीं सदी: सामाजिक सुधार दलित और पिछड़ा वर्ग सुधार: डॉ. बी.आर. अम्बेडकर: छुआछूत और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आंदोलन। 1927 में महाड़ सत्याग्रह (सार्वजनिक जलाशयों तक दलितों की पहुँच) और 1930 में कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन। पेरियार ई.वी. रामासामी: दक्षिण भारत में द्रविड़ आंदोलन और आत्म-सम्मान आंदोलन के माध्यम से जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध। ज्योतिबा फुले: महाराष्ट्र में सत्यशोधक समाज (1873) के माध्यम से दलितों और महिलाओं के लिए शिक्षा और समानता की वकालत।
महिला सुधार: पंडिता रमाबाई: विधवाओं और महिलाओं की शिक्षा के लिए कार्य, शारदा सदन की स्थापना। सावित्रीबाई फुले: महिलाओं और दलितों के लिए स्कूलों की स्थापना। कानूनी सुधार: 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम और 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने महिलाओं को संपत्ति और विवाह में अधिकार दिए। स्वतंत्रता संग्राम के साथ सामाजिक सुधार: महात्मा गांधी ने छुआछूत, अस्पृश्यता, और सामाजिक असमानता के खिलाफ 'हरिजन' आंदोलन चलाया। हरिजन सेवक संघ (1932): दलितों के उत्थान के लिए गठित। आर्थिक सुधार आंदोलन औपनिवेशिक काल: किसान आंदोलन: चंपारण सत्याग्रह (1917): महात्मा गांधी ने बिहार में नील किसानों के शोषण के खिलाफ आंदोलन चलाया, जिसके परिणामस्वरूप नील की खेती की शर्तों में सुधार हुआ। खेड़ा आंदोलन (1918): गुजरात में किसानों के लिए कर माफी की माँग। तेभागा आंदोलन (1946-47): बंगाल में बटाईदारों ने फसल का दो-तिहाई हिस्सा माँगा, जिसे अखिल भारतीय किसान सभा (CPI से संबद्ध) ने संगठित किया।
तेलंगाना आंदोलन (1946-51): हैदराबाद में निजाम और जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र किसान विद्रोह, जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने नेतृत्व दिया। श्रमिक आंदोलन: ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC, 1920): लाला लाजपत राय और अन्य नेताओं ने श्रमिकों के अधिकारों (उचित वेतन, कार्यस्थल सुरक्षा) के लिए स्थापित की। बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन (1884): नारायण मेघाजी लोखंडे द्वारा स्थापित, भारत का पहला संगठित श्रमिक संघ। 1926 का ट्रेड यूनियन एक्ट और 1948 का फैक्ट्रीज एक्ट श्रमिक आंदोलनों का परिणाम थे। स्वतंत्रता के बाद: भूमि सुधार: जमींदारी उन्मूलन: 1950 के दशक में कई राज्यों में जमींदारी प्रथा समाप्त की गई, जिससे किसानों को भूमि स्वामित्व मिला। ऑपरेशन बार्गा (1978, पश्चिम बंगाल): वामपंथी सरकार ने बटाईदारों को भूमि अधिकार और सुरक्षा प्रदान की। भूदान आंदोलन (1951): विनोबा भावे ने जमींदारों से स्वेच्छा से भूमि दान कराकर भूमिहीनों में वितरित की।
आर्थिक नीतियाँ: जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में समाजवादी ढाँचे पर आधारित पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू हुईं, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र, औद्योगीकरण, और सामाजिक कल्याण पर जोर था। न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP): 1960 के दशक में शुरू, जिसने किसानों को उनकी उपज के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित किया। आधुनिक आंदोलन: किसान आंदोलन (2020-21): सम्युक्त किसान मोर्चा ने तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में ऐतिहासिक आंदोलन चलाया, जिसके परिणामस्वरूप कानून वापस लिए गए। श्रमिक सुधार: 2020 के श्रम संहिताओं के खिलाफ ट्रेड यूनियनों ने विरोध किया, जो श्रमिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले माने गए। प्रमुख विशेषताएँ और प्रभाव: सामाजिक सुधार: सामाजिक सुधार आंदोलनों ने जातिगत भेदभाव, लैंगिक असमानता, और रूढ़िगत प्रथाओं को कम करने में मदद की। कानूनी सुधारों (जैसे सती प्रथा पर प्रतिबंध, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम) ने समाज को प्रगतिशील बनाया। शिक्षा और जागरूकता के प्रसार ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया।
आर्थिक सुधार: जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधारों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया। श्रमिक आंदोलनों ने कार्यस्थल पर सुरक्षा, उचित वेतन, और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की। किसान आंदोलनों ने MSP और कर्ज माफी जैसे मुद्दों को राष्ट्रीय चर्चा में लाया। चुनौतियाँ: सामाजिक: जातिगत और लैंगिक असमानता आज भी चुनौती बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में रूढ़ियाँ और अंधविश्वास पूरी तरह समाप्त नहीं हुए। आर्थिक: असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों और छोटे-सीमांत किसानों को संगठित करना मुश्किल रहा। वैश्वीकरण और निजीकरण ने श्रमिक-किसान संगठनों पर दबाव बढ़ाया। राजनीतिक प्रभाव: कई आंदोलन राजनीतिक दलों के प्रभाव में आए, जिससे उनकी स्वतंत्रता प्रभावित हुई।
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