Labour Movement
jp Singh
2025-05-28 17:08:45
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श्रमिक आंदोलन
श्रमिक आंदोलन
श्रमिक आंदोलन (Labour Movement) का तात्पर्य श्रमिकों द्वारा अपने अधिकारों, बेहतर कामकाजी परिस्थितियों, उचित वेतन, और सामाजिक सुरक्षा के लिए संगठित प्रयासों से है। यह आंदोलन मुख्य रूप से औद्योगिक क्रांति के दौरान 19वीं सदी में शुरू हुआ, जब श्रमिकों को अमानवीय परिस्थितियों, लंबे कार्य-घंटों, और कम वेतन का सामना करना पड़ता था। भारत में श्रमिक आंदोलन का इतिहास भी समृद्ध और जटिल है।
भारत में श्रमिक आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास
प्रारंभिक चरण (19वीं सदी): भारत में श्रमिक आंदोलन की शुरुआत औपनिवेशिक काल में हुई, जब ब्रिटिश शासन के दौरान कपड़ा मिलों, रेलवे, और अन्य उद्योगों में श्रमिकों का शोषण आम था। 1850 के दशक में बंगाल और बंबई में प्रारंभिक हड़तालें देखी गईं, जो मुख्य रूप से स्थानीय और असंगठित थीं। 1884 में, नारायण मेघाजी लोखंडे ने 'बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन' की स्थापना की, जिसे भारत में पहले संगठित श्रमिक संघ के रूप में माना जाता है। 20वीं सदी और स्वतंत्रता आंदोलन: 1920 में, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना हुई, जो भारत में पहला राष्ट्रीय स्तर का ट्रेड यूनियन था। इसे लाला लाजपत राय ने नेतृत्व प्रदान किया। श्रमिक आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़ा। नेताओं जैसे सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू ने श्रमिकों के अधिकारों का समर्थन किया। 1926 में 'ट्रेड यूनियन एक्ट' पारित हुआ, जिसने श्रमिक संगठनों को कानूनी मान्यता दी।
स्वतंत्रता के बाद: स्वतंत्रता के बाद, श्रमिक आंदोलनों ने श्रम कल्याण, न्यूनतम वेतन, और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया। कई ट्रेड यूनियनों का गठन हुआ, जैसे भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC), हिंद मजदूर सभा (HMS), और सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (CITU)। 1970 और 1980 के दशक में रेलवे हड़ताल (1974) और टेक्सटाइल हड़ताल (1982) जैसे बड़े आंदोलनों ने सरकार और उद्योगों पर दबाव डाला। प्रमुख विशेषताएँ और माँगें: बेहतर वेतन और कामकाजी परिस्थितियाँ: श्रमिक आंदोलन का मुख्य लक्ष्य उचित वेतन, कार्यस्थल पर सुरक्षा, और सीमित कार्य-घंटों की माँग रहा। सामूहिक सौदेबाजी: ट्रेड यूनियनों ने श्रमिकों और प्रबंधन के बीच सामूहिक सौदेबाजी को बढ़ावा दिया।
कानूनी अधिकार: न्यूनतम वेतन अधिनियम (1948), फैक्ट्रीज एक्ट (1948), और कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम (1952) जैसे कानून श्रमिक आंदोलनों के दबाव का परिणाम थे। सामाजिक समानता: आंदोलनों ने लिंग, जाति, और वर्ग आधारित भेदभाव को कम करने की दिशा में भी काम किया। वर्तमान परिदृश्य: आज, भारत में श्रमिक आंदोलन असंगठित क्षेत्र (जैसे निर्माण, कृषि, और घरेलू कामगार) में अधिक सक्रिय है, क्योंकि यह क्षेत्र सबसे अधिक शोषण का शिकार है। 2020 में लागू नए श्रम संहिताओं (लेबर कोड्स) ने श्रमिक अधिकारों और ट्रेड यूनियनों की भूमिका पर बहस छेड़ दी है। कई यूनियनों ने इन संहिताओं को श्रमिक-विरोधी माना है। डिजिटल युग में, गिग इकॉनमी (जैसे उबर, ओला, और स्विगी जैसे प्लेटफॉर्म) के श्रमिक भी अपने अधिकारों के लिए संगठित हो रहे हैं।
चुनौतियाँ: असंगठित क्षेत्र: भारत में 90% से अधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं, जहाँ यूनियन बनाना मुश्किल है। राजनीतिक प्रभाव: कई ट्रेड यूनियन राजनीतिक दलों से संबद्ध हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता प्रभावित होती है। वैश्वीकरण और उदारीकरण: निजीकरण और अनुबंध-आधारित नौकरियों ने श्रमिकों की सौदेबाजी की शक्ति को कम किया है।
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jp Singh
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