Trade Unions
jp Singh
2025-05-28 17:07:06
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श्रमिक संघ
श्रमिक संघ
श्रमिक संघ (Trade Unions) मजदूरों के संगठित समूह हैं जो अपने सदस्यों के हितों, जैसे बेहतर मजदूरी, कार्य परिस्थितियों, और सामाजिक सुरक्षा, की रक्षा के लिए गठित किए जाते हैं। भारत में श्रमिक संघों का इतिहास औपनिवेशिक काल से शुरू होता है यह दुबला हाली प्रथा, तीन कठिया प्रथा, कमिया प्रथा, दादनी प्रथा, हस्तशिल्प का ह्रास, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, और कारखाना अधिनियमों (1881, 1891, 1922, 1934, 1946)—से निकटता से जुड़ा है। यह विशेष रूप से 1850 के दशक में आधुनिक उद्योगों (सूती कपड़ा और जूट) के विकास और मजदूरों के शोषण से संबंधित है।
भारत में श्रमिक संघों का अवलोकन
परिभाषा: श्रमिक संघ मजदूरों के संगठन हैं जो सामूहिक सौदेबाजी (collective bargaining), हड़ताल, और अन्य कार्रवाइयों के माध्यम से मजदूरों के अधिकारों, जैसे मजदूरी, कार्य घंटे, सुरक्षा, और कल्याण, की रक्षा करते हैं। उत्पत्ति: भारत में श्रमिक संघ 19वीं सदी के अंत में उभरे, जब औद्योगिक विकास (सूती कपड़ा, जूट, और रेलवे) ने एक नया मजदूर वर्ग बनाया। औपनिवेशिक शोषण और खराब कार्य परिस्थितियों ने इन संगठनों को जन्म दिया। प्रमुख क्षेत्र: बॉम्बे (मुंबई), कोलकाता, अहमदाबाद, और मद्रास जैसे औद्योगिक केंद्र, जहां कारखाने और रेलवे मजदूर सक्रिय थे।
भारत में श्रमिक संघों का विकास 19वीं सदी की शुरुआत (1850 के संदर्भ में): 1850 के दशक में सूती कपड़ा (बॉम्बे, अहमदाबाद) और जूट (कोलकाता) उद्योगों की शुरुआत ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। दादनी प्रथा के अंत और हस्तशिल्प के ह्रास ने कारीगरों को कारखाना मजदूर बनने के लिए मजबूर किया। इस समय तक संगठित श्रमिक संघ नहीं थे, लेकिन मजदूरों में असंतोष बढ़ रहा था। लंबे कार्य घंटे, कम मजदूरी, और असुरक्षित परिस्थितियों ने सामाजिक सुधारकों का ध्यान आकर्षित किया। 1881 का कारखाना अधिनियम, जो बाल श्रम और कार्य परिस्थितियों पर केंद्रित था, मजदूरों की स्थिति को उजागर करता था, लेकिन यह संगठित श्रमिक आंदोलनों को प्रोत्साहित नहीं करता था।
19वीं सदी के अंत और प्रारंभिक संगठन (1870-1900): 1870 के दशक में, सामाजिक सुधारक जैसे साशिपदा बनर्जी और नारायण मेघाजी लोखंडे ने मजदूरों की स्थिति को सुधारने के लिए काम शुरू किया। 1884 में, लोखंडे ने बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन की स्थापना की, जो भारत में पहला मजदूर संगठन माना जाता है। यह संगठन मजदूरों के लिए साप्ताहिक अवकाश और बेहतर कार्य परिस्थितियों की मांग करता था। 1891 और 1922 के कारखाना अधिनियमों ने मजदूरों की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया, जिसने श्रमिक संगठनों के गठन को प्रेरित किया। 20वीं सदी की शुरुआत (1900-1920): 1900 के दशक में, मजदूरों ने हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से संगठित होने की शुरुआत की। उदाहरण के लिए, 1908 में बॉम्बे में टेक्सटाइल मजदूरों की हड़ताल हुई।
राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (जैसे स्वदेशी आंदोलन, 1905-08) ने मजदूरों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रवादी नेता जैसे लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक ने मजदूरों के मुद्दों को समर्थन दिया। अंतरराष्ट्रीय प्रभाव: 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की स्थापना ने श्रम सुधारों को प्रोत्साहित किया, जिसका प्रभाव 1922 और 1934 के कारखाना अधिनियमों में दिखा। अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC, 1920): 1920 में AITUC की स्थापना भारत में श्रमिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण कदम था। इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय, जोसेफ बापटिस्टा, और एन.एम. जोशी जैसे नेताओं ने किया। AITUC ने मजदूरों की मांगों (जैसे बेहतर मजदूरी, कम कार्य घंटे, और सुरक्षा) को संगठित रूप से उठाया और हड़तालों का समर्थन किया।
1920 के दशक में, बॉम्बे और कोलकाता में टेक्सटाइल और रेलवे मजदूरों की हड़तालें (जैसे 1928 की बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक) AITUC के नेतृत्व में हुईं। 1930 और 1940 का दशक: 1930 के दशक में, राष्ट्रीय आंदोलन (सविनय अवज्ञा आंदोलन, 1930-34) और मजदूर आंदोलनों का गठजोड़ मजबूत हुआ। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने मजदूरों के हितों का समर्थन किया। 1934 और 1946 के कारखाना अधिनियमों ने कार्य घंटे, बाल श्रम, और कल्याण उपायों को बेहतर किया, जो श्रमिक संघों की मांगों का परिणाम था। कम्युनिस्ट और समाजवादी प्रभाव: 1930 के दशक में, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) और समाजवादी नेताओं ने श्रमिक संघों को और संगठित किया, जिससे मजदूर आंदोलन अधिक आक्रामक हुए।
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के दौरान, युद्ध उत्पादन के दबाव ने मजदूरों की हड़तालों को बढ़ाया, जिसे AITUC और अन्य यूनियनों ने समन्वित किया। स्वतंत्रता के बाद (1947 और उसके बाद): स्वतंत्र भारत में, श्रमिक संघों को कानूनी मान्यता मिली। भारतीय ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 (औपनिवेशिक काल में पारित) ने यूनियनों को पंजीकरण और कानूनी अधिकार दिए, जो स्वतंत्रता के बाद और मजबूत हुए। 1948 का कारखाना अधिनियम श्रमिक संघों की मांगों का परिणाम था, जिसमें कार्य घंटे (48 घंटे साप्ताहिक), प्रसूति लाभ, और कल्याण उपाय शामिल थे। नए यूनियन: 1947 में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC) की स्थापना कांग्रेस पार्टी के समर्थन से हुई। बाद में, CPI और अन्य दलों ने हिंद मजदूर सभा (HMS) और CITU जैसे यूनियनों की स्थापना की।
स्वतंत्रता के बाद, बंधुआ श्रम प्रथाओं (जैसे कमिया, हाली, और तीन कठिया) को समाप्त करने के लिए बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 जैसे कानून पारित हुए, जो श्रमिक संघों के दबाव का परिणाम थे। श्रमिक संघों के प्रभाव आर्थिक प्रभाव: बेहतर मजदूरी और परिस्थितियां: श्रमिक संघों ने हड़तालों और सौदेबाजी के माध्यम से मजदूरी, कार्य घंटे, और कल्याण उपायों (जैसे कैंटीन, विश्राम कक्ष) में सुधार किया। श्रम कानून: 1881, 1891, 1922, 1934, 1946, और 1948 के कारखाना अधिनियम श्रमिक संघों के दबाव का परिणाम थे, जो मजदूरों की स्थिति को बेहतर करते थे। धन का निष्कासन पर प्रभाव: औपनिवेशिक काल में, श्रमिक संघों ने ब्रिटिश शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, जिसने धन के निष्कासन को कम करने में अप्रत्यक्ष रूप से योगदान दिया।
सामाजिक प्रभाव: मजदूर जागरूकता: श्रमिक संघों ने मजदूरों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ाई और सामाजिक असमानता (जैसे जातिगत शोषण) के खिलाफ आवाज उठाई। राष्ट्रीय आंदोलन: श्रमिक संघ राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बने, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत किया। उदाहरण के लिए, चंपारण सत्याग्रह (1917) में मजदूर और किसान आंदोलन एकजुट हुए। आदिवासी और दलित समुदाय: हाली और कमिया जैसी प्रथाओं के खिलाफ आंदोलनों में श्रमिक संघों ने अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया। राजनीतिक प्रभाव: श्रमिक संघों ने मजदूरों को संगठित करके राजनीतिक शक्ति प्रदान की, जिसने स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत में श्रम नीतियों को प्रभावित किया। कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारधाराओं ने श्रमिक संघों को और सक्रिय किया, जिसने श्रम कानूनों और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया।
1850 और कारखाना अधिनियमों के संदर्भ में संबंध 1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की शुरुआत ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। दादनी प्रथा के अंत और हस्तशिल्प के ह्रास ने कारीगरों को कारखाना मजदूर बनने के लिए मजबूर किया, जिसने श्रमिक संघों की नींव रखी। तीन कठिया, कमिया, और हाली जैसी प्रथाओं ने ग्रामीण गरीबी को बढ़ाया, जिसने कुछ मजदूरों को शहरी कारखानों की ओर पलायन करने के लिए प्रेरित किया। 1850 के दशक में रेलवे के विकास ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिसने मजदूर वर्ग की संख्या और उनके शोषण को बढ़ाया, जो श्रमिक संघों के उदय का कारण बना। कारखाना अधिनियमों से संबंध: 1881, 1891, 1922, 1934, और 1946 के कारखाना अधिनियम श्रमिक संघों की मांगों का परिणाम थे। इन अधिनियमों ने कार्य घंटे, बाल श्रम, और कल्याण उपायों को नियंत्रित किया।
श्रमिक संघों ने इन अधिनियमों के कार्यान्वयन पर नजर रखी और कमियों (जैसे छोटे कारखानों का दायरे से बाहर होना) को उजागर किया। हाली, कमिया, और तीन कठिया प्रथाओं के खिलाफ आंदोलनों ने ग्रामीण और शहरी मजदूरों के बीच एकजुटता को बढ़ाया, जो श्रमिक संघों को मजबूत करता था।
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