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jp Singh 2025-05-28 16:54:43
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कमियोटि प्रथा

कमियोटि प्रथा
कमियोटि प्रथा / कमियुति प्रथा (Kamiyuti System) या कमिया प्रथा (Kamiya System) जो भारत में विशेष रूप से बिहार, झारखंड, और पूर्वी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में प्रचलित एक शोषणकारी श्रम व्यवस्था थी। यह प्रथा औपनिवेशिक और स्वतंत्रता के बाद के भारत में मजदूरों, विशेष रूप से भूमिहीन किसानों और दलित समुदायों, के शोषण से जुड़ी थी। प्रश्नों—दादनी प्रथा, हस्तशिल्प का ह्रास, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, और कारखाना अधिनियमों (1881, 1891, 1922, 1934, 1946)—से भी संबंधित है, क्योंकि यह श्रम शोषण और सामाजिक-आर्थिक असमानता का हिस्सा थी।
कमिया प्रथा का अवलोकन
परिभाषा: कमिया प्रथा एक बंधुआ श्रम व्यवस्था थी, जिसमें भूमिहीन मजदूर (कमिया) जमींदारों या साहूकारों से कर्ज लेते थे और इसके बदले में उनके लिए कई वर्षों तक या कभी-कभी पूरी जिंदगी मुफ्त या न्यूनतम मजदूरी पर काम करते थे। यह प्रथा मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित थी। उत्पत्ति: कमिया प्रथा का उदय मध्यकालीन भारत में हो सकता है, लेकिन यह औपनिवेशिक काल (18वीं-19वीं सदी) में ब्रिटिश नीतियों, जैसे कृषि का व्यापारीकरण और जमींदारी प्रथा, के कारण और व्यापक हो गई। यह प्रथा स्वतंत्रता के बाद भी 20वीं सदी तक जारी रही। प्रमुख क्षेत्र: बिहार (विशेष रूप से मगध और भोजपुर क्षेत्र), झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, और कुछ हद तक मध्य प्रदेश और उड़ीसा।
कमिया प्रथा की विशेषताएं कर्ज और बंधन: भूमिहीन मजदूर, जो अक्सर दलित या निचली जातियों से होते थे, जमींदारों या साहूकारों से कर्ज लेते थे। यह कर्ज विवाह, बीमारी, या दैनिक जरूरतों के लिए होता था। कर्ज के बदले, मजदूर (कमिया) को जमींदार के खेतों में मुफ्त या बहुत कम मजदूरी पर काम करना पड़ता था। कर्ज की राशि और ब्याज इतना अधिक होता था कि इसे चुकाना असंभव था, जिससे मजदूर और उनके परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ बन जाते थे। कर्ज के दस्तावेज अक्सर मौखिक या अनौपचारिक होते थे, जिससे मजदूरों का शोषण आसान हो जाता था। श्रम का शोषण: कमिया मजदूरों को लंबे समय तक (12-14 घंटे प्रतिदिन) खेतों में काम करना पड़ता था, जिसमें खेती, पशुपालन, और अन्य घरेलू कार्य शामिल थे।
उन्हें कोई निश्चित मजदूरी नहीं मिलती थी; बदले में, उन्हें भोजन, कपड़े, या न्यूनतम अनाज दिया जाता था। कुछ मामलों में, कमिया मजदूरों को जमींदार के घर में भी काम करना पड़ता था, जैसे घरेलू नौकर के रूप में। सामाजिक और आर्थिक नियंत्रण: यह प्रथा सामाजिक और आर्थिक असमानता को बनाए रखने का साधन थी। जमींदार और साहूकार, जो अक्सर ऊपरी जातियों से होते थे, कमिया मजदूरों पर पूर्ण नियंत्रण रखते थे। मजदूरों को कहीं और काम करने या स्थान छोड़ने की स्वतंत्रता नहीं थी, क्योंकि वे कर्ज के बंधन में बंधे होते थे। इस प्रथा ने दलित और निचली जातियों को सामाजिक गतिशीलता से वंचित रखा।
कानूनी और सामाजिक वैधता: औपनिवेशिक काल में, ब्रिटिश प्रशासन ने जमींदारी प्रथा को मजबूत किया, जिसने कमिया प्रथा को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया। सामाजिक रीति-रिवाजों और जातिगत संरचना ने इस प्रथा को सामान्य बना दिया, जिससे इसका विरोध मुश्किल था। कमिया प्रथा का विकास और 1850 के संदर्भ में स्थिति 18वीं और 19वीं सदी: ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों, जैसे स्थायी बंदोबस्त (1793), ने जमींदारों को और शक्तिशाली बनाया, जिसने कमिया प्रथा को बढ़ावा दिया। जमींदारों ने कर्ज देकर भूमिहीन किसानों को अपने नियंत्रण में रखा।
कृषि का व्यापारीकरण (आपके पिछले प्रश्नों से संबंधित) ने नकदी फसलों (जैसे नील, अफीम) की खेती को बढ़ाया, जिसके लिए सस्ते श्रम की आवश्यकता थी। कमिया मजदूरों ने इस मांग को पूरा किया। 1850 तक, हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास (दादनी प्रथा के अंत के कारण) और अकाल (जैसे 1860-61) ने ग्रामीण आबादी को और गरीब बनाया, जिसने कमिया प्रथा को और गहरा किया। 1850 के बाद: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की शुरुआत (आपके पिछले प्रश्नों में उल्लिखित) ने कुछ कारीगरों को कारखाना मजदूरी की ओर धकेला, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में कमिया प्रथा प्रमुख रही। कमिया मजदूरों का शोषण ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा बन गया, क्योंकि औपनिवेशिक नीतियों ने जमींदारों और साहूकारों को संरक्षण दिया।
1881 और बाद के कारखाना अधिनियम (1881, 1891, 1922, 1934, 1946) कारखाना मजदूरों पर केंद्रित थे और कमिया प्रथा जैसे ग्रामीण बंधुआ श्रम को संबोधित नहीं करते थे। स्वतंत्रता के बाद: स्वतंत्र भारत में, कमिया प्रथा को समाप्त करने के लिए कई कानून बनाए गए, जैसे बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976। हालांकि, इस प्रथा के अवशेष 20वीं सदी के अंत तक कुछ क्षेत्रों में बने रहे। बिहार जैसे राज्यों में, कमिया प्रथा को समाप्त करने के लिए भूमि सुधार और कर्जमुक्ति जैसे उपाय किए गए, लेकिन सामाजिक-आर्थिक असमानता ने इसे पूरी तरह खत्म करना मुश्किल बनाया।
कमिया प्रथा के प्रभाव आर्थिक प्रभाव: बंधुआ श्रम: कमिया प्रथा ने भूमिहीन मजदूरों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बंधुआ बनाया, जिसने उनकी आर्थिक स्वतंत्रता को नष्ट किया। धन का निष्कासन: औपनिवेशिक काल में, कमिया मजदूरों के श्रम से उत्पन्न लाभ जमींदारों और ब्रिटिश प्रशासन के पास गया, जो धन के निष्कासन का हिस्सा था। ग्रामीण गरीबी: इस प्रथा ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर किया, क्योंकि मजदूरों को कोई आर्थिक प्रगति का अवसर नहीं मिला। सामाजिक प्रभाव: जातिगत शोषण: कमिया प्रथा ने दलित और निचली जातियों को सामाजिक और आर्थिक दासता में बांधे रखा। सामाजिक अशांति: इस प्रथा के खिलाफ असंतोष ने 19वीं और 20वीं सदी में सामाजिक और किसान आंदोलनों (जैसे चंपारण सत्याग्रह, 1917) को जन्म दिया।
पलायन: कुछ कमिया मजदूरों ने शहरी क्षेत्रों में पलायन किया, जहां वे कारखाना मजदूर बने, जो आपके पिछले प्रश्नों में उल्लिखित कारखाना अधिनियमों से संबंधित है। सांस्कृतिक प्रभाव: इस प्रथा ने ग्रामीण समुदायों में सामाजिक संरचना को और कठोर किया, जहां ऊपरी जातियां और जमींदार हावी रहे। कमिया मजदूरों की स्थिति ने सामाजिक सुधार आंदोलनों (जैसे ज्योतिबा फुले और अंबेडकर के प्रयास) को प्रेरित किया। कमिया प्रथा और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था कृषि का व्यापारीकरण: कमिया प्रथा नकदी फसलों (जैसे नील, अफीम, गन्ना) की खेती से जुड़ी थी, जो ब्रिटिश व्यापारिक हितों को पूरा करती थी। यह आपके पिछले प्रश्न में उल्लिखित कृषि के व्यापारीकरण का हिस्सा थी। हस्तशिल्प का ह्रास: दादनी प्रथा के अंत और हस्तशिल्प उद्योग के पतन ने कारीगरों को भूमिहीन मजदूर बनाया, जिनमें से कई कमिया प्रथा के तहत जमींदारों के अधीन काम करने लगे।
धन का निष्कासन: कमिया मजदूरों के श्रम से उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य जमींदारों और ब्रिटिश प्रशासन के पास गया, जो भारत से धन के निष्कासन का हिस्सा था। आधुनिक उद्योगों का विकास: 1850 के दशक में शुरू हुए सूती कपड़ा और जूट उद्योगों ने कमिया मजदूरों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं किया, लेकिन हस्तशिल्प के ह्रास ने ग्रामीण मजदूरों को कारखानों की ओर धकेला, जिसने कारखाना अधिनियमों (1881, 1891, 1922, 1934, 1946) की आवश्यकता को रेखांकित किया। अकाल: कमिया प्रथा ने ग्रामीण गरीबी को बढ़ाया, जिसने 1860-61, 1866, और 1943 जैसे अकालों को और गंभीर बनाया, क्योंकि मजदूरों के पास कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं थी।
1850 और कारखाना अधिनियमों के संदर्भ में संबंध 1850 का संदर्भ: 1850 तक, दादनी प्रथा के अंत और हस्तशिल्प के ह्रास ने ग्रामीण आबादी को भूमिहीन मजदूर बनाया, जिनमें से कई कमिया प्रथा के तहत जमींदारों के अधीन काम करने लगे। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने कच्चे माल (जैसे कपास, नील) के निर्यात को आसान बनाया, जिसने जमींदारों की शक्ति और कमिया प्रथा को बढ़ावा दिया। हस्तशिल्प के ह्रास ने कारीगरों को ग्रामीण मजदूरी या कारखाना श्रम की ओर धकेला, जो आधुनिक उद्योगों के विकास से जुड़ा था। कारखाना अधिनियमों से संबंध: कमिया प्रथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित थी, जबकि 1881, 1891, 1922, 1934, और 1946 के कारखाना अधिनियम शहरी कारखाना मजदूरों पर केंद्रित थे। हस्तशिल्प के ह्रास और कमिया प्रथा ने ग्रामीण मजदूरों को शहरी कारखानों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर किया, जिसने कारखाना अधिनियमों की आवश्यकता को बढ़ाया।
कमिया प्रथा का शोषणकारी स्वरूप सामाजिक सुधार और मजदूर आंदोलनों को प्रेरित करता था, जो बाद में 1948 के कारखाना अधिनियम और बंधुआ श्रम उन्मूलन जैसे कानूनों में परिलक्षित हुआ।
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