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Dadni System
jp Singh 2025-05-28 16:52:06
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दादनी प्रथा

दादनी प्रथा
दादनी प्रथा (Dadni System) भारत में औपनिवेशिक काल, विशेष रूप से 17वीं और 18वीं सदी में, यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों (मुख्य रूप से ब्रिटिश और डच ईस्ट इंडिया कंपनी) द्वारा भारतीय हस्तशिल्प उत्पादों, विशेष रूप से कपड़ा, की खरीद के लिए अपनाई गई एक आर्थिक व्यवस्था थी। यह प्रथा आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, और आधुनिक उद्योगों का विकास—से निकटता से जुड़ी है, क्योंकि यह औपनिवेशिक शोषण और भारतीय अर्थव्यवस्था के परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी।
दादनी प्रथा का अवलोकन
परिभाषा: दादनी प्रथा में यूरोपीय व्यापारी भारतीय कारीगरों (मुख्य रूप से बुनकरों) को अग्रिम धन (दादन) प्रदान करते थे ताकि वे उनके लिए विशिष्ट मात्रा और गुणवत्ता में माल (जैसे कपड़ा) तैयार करें। यह एक अनुबंध-आधारित व्यवस्था थी, जिसमें कारीगरों को निश्चित समय में माल आपूर्ति करना होता था। उत्पत्ति: यह प्रथा 17वीं सदी में शुरू हुई, जब यूरोपीय व्यापारी (ब्रिटिश, डच, फ्रांसीसी) भारतीय कपड़ों (जैसे ढाका का मलमल, बंगाल का रेशम, और गुजरात का सूती कपड़ा) की वैश्विक मांग को पूरा करने के लिए भारत आए। प्रमुख क्षेत्र: बंगाल, गुजरात, और दक्षिण भारत (कोरोमंडल तट) इस प्रथा के केंद्र थे, क्योंकि ये क्षेत्र हस्तशिल्प कपड़ा उत्पादन में विश्व प्रसिद्ध थे। दादनी प्रथा की विशेषताएं अग्रिम भुगतान: यूरोपीय व्यापारी या उनके भारतीय मध्यस्थ (दलाल, गोमस्ता) कारीगरों को उत्पादन शुरू करने के लिए अग्रिम धन देते थे।
यह धन कपास, रेशम, या अन्य कच्चे माल की खरीद और कारीगरों के निर्वाह के लिए होता था। बदले में, कारीगरों को निश्चित समय पर उच्च गुणवत्ता का माल (जैसे मलमल, रेशम, या सूती कपड़ा) आपूर्ति करना होता था। मध्यस्थों की भूमिका: यूरोपीय कंपनियां सीधे कारीगरों से संपर्क नहीं करती थीं। इसके बजाय, भारतीय दलालों या गोमस्तों को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाता था। ये मध्यस्थ अग्रिम धन वितरित करते थे, माल की गुणवत्ता की जांच करते थे, और आपूर्ति सुनिश्चित करते थे। मध्यस्थ अक्सर कारीगरों का शोषण करते थे, जैसे कम कीमत देना या अतिरिक्त कमीशन वसूलना। उत्पादन और व्यापार: दादनी प्रथा मुख्य रूप से निर्यात-उन्मुख थी। तैयार माल (विशेष रूप से कपड़ा) यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया, और मध्य पूर्व के बाजारों में भेजा जाता था। बंगाल का मलमल और रेशम, गुजरात का सूती कपड़ा, और दक्षिण भारत का चिंट्ज यूरोपीय बाजारों में बहुत लोकप्रिय था।
कारीगरों पर नियंत्रण: कारीगरों को अग्रिम धन के बदले यूरोपीय कंपनियों के लिए विशेष रूप से काम करना पड़ता था, जिससे उनकी स्वतंत्रता सीमित हो गई। यदि कारीगर समय पर माल नहीं दे पाते, तो उन्हें कर्ज के जाल में फंसाया जाता था, क्योंकि मध्यस्थ ब्याज वसूलते थे। दादनी प्रथा का विकास और 1850 के संदर्भ में स्थिति 17वीं और 18वीं सदी: दादनी प्रथा 17वीं सदी में शुरू हुई और 18वीं सदी में (विशेष रूप से 1750 के आसपास) अपने चरम पर थी, जब ब्रिटिश और डच ईस्ट इंडिया कंपनियां बंगाल और गुजरात में सक्रिय थीं। 1757 के प्लासी युद्ध के बाद, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर राजनीतिक नियंत्रण स्थापित किया, जिसके बाद दादनी प्रथा में शोषण बढ़ा। कंपनी ने कारीगरों को कम कीमतों पर माल आपूर्ति करने के लिए मजबूर किया।
19वीं सदी की शुरुआत: 19वीं सदी की शुरुआत में, ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के कारण मशीन-निर्मित कपड़े सस्ते और तेजी से उत्पादित होने लगे। इससे भारतीय हस्तशिल्प कपड़ों की मांग कम हुई। दादनी प्रथा धीरे-धीरे कमजोर होने लगी, क्योंकि ब्रिटिश माल ने भारतीय बाजारों पर कब्जा कर लिया और हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास शुरू हुआ। 1850 के आसपास: 1850 तक, दादनी प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी थी, क्योंकि ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को नष्ट कर दिया था। ढाका का मलमल और अन्य पारंपरिक कपड़ा उद्योग लगभग विलुप्त हो गए। ब्रिटिश मशीन-निर्मित कपड़े भारत में आयात किए जा रहे थे, और भारतीय कारीगरों को अब स्थानीय बाजारों में भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था। हस्तशिल्प के ह्रास ने कारीगरों को कृषि या कारखाना मजदूरी की ओर धकेला, जो आपके पिछले प्रश्नों में उल्लिखित आधुनिक उद्योगों (जैसे सूती कपड़ा मिलें) के विकास और कारखाना अधिनियमों (1881, 1891, 1922, 1934, 1946) से जुड़ा हुआ है।
दादनी प्रथा के अंत ने धन के निष्कासन को भी बढ़ाया, क्योंकि भारत से कच्चा माल (जैसे कपास) निर्यात किया जाता था और तैयार माल आयात किया जाता था। दादनी प्रथा के प्रभाव आर्थिक प्रभाव: कारीगरों का शोषण: दादनी प्रथा ने कारीगरों को यूरोपीय कंपनियों और मध्यस्थों के नियंत्रण में बांध दिया। उन्हें कम कीमत मिलती थी, और कर्ज के कारण उनकी आर्थिक स्थिति खराब हुई। धन का निष्कासन: भारतीय हस्तशिल्प का निर्यात लाभ मुख्य रूप से यूरोपीय व्यापारियों को हुआ, जिसने भारत की संपत्ति को बाहर ले जाया। हस्तशिल्प का ह्रास: 19वीं सदी में दादनी प्रथा के कमजोर होने और मशीन-निर्मित माल के आयात ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को नष्ट कर दिया। सामाजिक प्रभाव: कारीगर समुदायों का पतन: बुनकर और अन्य कारीगर समुदाय अपनी सामाजिक और आर्थिक पहचान खो बैठे। पलायन और बेरोजगारी: हस्तशिल्प के ह्रास के कारण कारीगरों को गांवों से शहरों में पलायन करना पड़ा, जहां वे मजदूरी करने लगे।
सामाजिक अशांति: आर्थिक शोषण ने असंतोष को जन्म दिया, जो 1857 के विद्रोह जैसे आंदोलनों में दिखाई दिया। सांस्कृतिक प्रभाव: पारंपरिक कला और शिल्प, जैसे ढाका का मलमल, लगभग विलुप्त हो गए। भारतीय हस्तशिल्प की वैश्विक प्रतिष्ठा कम हुई, क्योंकि यूरोपीय माल ने बाजारों पर कब्जा कर लिया। दादनी प्रथा और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था कृषि का व्यापारीकरण: दादनी प्रथा ने कपास और रेशम जैसे कच्चे माल की मांग बढ़ाई, जिसने नकदी फसलों की खेती को प्रोत्साहित किया। यह आपके पिछले प्रश्न में उल्लिखित कृषि के व्यापारीकरण से जुड़ा है। धन का निष्कासन: दादनी प्रथा के तहत यूरोपीय कंपनियों ने सस्ते दामों पर माल खरीदा और उसे यूरोप में उच्च कीमतों पर बेचा, जिसने भारत की संपत्ति को बाहर ले जाया। हस्तशिल्प का ह्रास: दादनी प्रथा के कमजोर होने और मशीन-निर्मित माल के आयात ने हस्तशिल्प उद्योग को नष्ट किया, जिसका प्रभाव 1850 के आसपास स्पष्ट था।
आधुनिक उद्योगों का विकास: दादनी प्रथा के अंत ने कारीगरों को कारखाना मजदूरी की ओर धकेला, जिसने 1850 के दशक में शुरू हुए सूती कपड़ा और जूट उद्योगों को श्रम आपूर्ति प्रदान की। यह 1881, 1891, 1922, 1934, और 1946 के कारखाना अधिनियमों की पृष्ठभूमि से जुड़ा है। अकाल और आर्थिक संकट: दादनी प्रथा के अंत और हस्तशिल्प के ह्रास ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर किया, जिसने 1860-61 और 1866 जैसे अकालों को और गंभीर बनाया।
1850 और कारखाना अधिनियमों के संदर्भ में संबंध
850 का संदर्भ: 1850 तक, दादनी प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी थी, क्योंकि ब्रिटिश मशीन-निर्मित कपड़े ने भारतीय हस्तशिल्प को बाजार से बाहर कर दिया था। हस्तशिल्प के ह्रास ने कारीगरों को कारखानों (जैसे बॉम्बे की सूती मिलें) में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने 1881 और बाद के कारखाना अधिनियमों की आवश्यकता को रेखांकित किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने कच्चे माल (जैसे कपास) के निर्यात को आसान बनाया, जो दादनी प्रथा के शोषणकारी स्वरूप का हिस्सा था।
कारखाना अधिनियमों से संबंध: दादनी प्रथा के अंत ने कारीगरों को कारखाना मजदूर बनाया, जिसने 1881, 1891, 1922, 1934, और 1946 के कारखाना अधिनियमों की आवश्यकता को जन्म दिया। इन अधिनियमों ने कारखाना मजदूरों की स्थिति (जैसे कार्य घंटे, बाल श्रम, सुरक्षा) को नियंत्रित करने का प्रयास किया, जो दादनी प्रथा के शोषणकारी प्रभावों का अप्रत्यक्ष परिणाम था।
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