Factories Act of 1948
jp Singh
2025-05-28 16:48:48
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1948 का कारखाना अधिनियम
1948 का कारखाना अधिनियम
1948 का कारखाना अधिनियम स्वतंत्र भारत में कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की सुरक्षा, स्वास्थ्य, और कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया एक व्यापक कानून था। यह 1881 और 1891 के औपनिवेशिक कारखाना अधिनियमों का उत्तराधिकारी था, जो सीमित और अप्रभावी थे। 1948 का अधिनियम भारत की औद्योगिक प्रगति और मजदूरों के अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया था, जो 1850 के आसपास शुरू हुए आधुनिक उद्योगों (जैसे सूती कपड़ा और जूट) के विकास से जुड़ा हुआ है।
1948 के कारखाना अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
परिभाषा और दायरा: यह अधिनियम उन कारखानों पर लागू होता था जहां 10 या अधिक मजदूर यांत्रिक शक्ति के साथ काम करते थे, या 20 या अधिक मजदूर बिना यांत्रिक शक्ति के काम करते थे। इसमें सभी प्रकार के कारखाने शामिल थे, न कि केवल सूती कपड़ा या जूट जैसे उद्योग। स्वास्थ्य और सुरक्षा: कारखानों में स्वच्छता, वेंटिलेशन, और पर्याप्त रोशनी सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान। खतरनाक मशीनों को बाड़ लगाने, अग्नि सुरक्षा, और दुर्घटना निवारण के उपाय। खतरनाक प्रक्रियाओं (जैसे रसायन या विषैले पदार्थों से संबंधित) के लिए विशेष नियम। कार्य के घंटे: वयस्क मजदूरों के लिए अधिकतम 48 घंटे साप्ताहिक और 9 घंटे दैनिक कार्य की सीमा। प्रत्येक मजदूर के लिए साप्ताहिक अवकाश और ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त वेतन का प्रावधान। बाल श्रम और किशोर: 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों में काम करने की मनाही।
14-18 वर्ष के किशोरों के लिए सीमित कार्य घंटे (4.5 घंटे प्रतिदिन) और चिकित्सा प्रमाणपत्र की आवश्यकता। महिलाओं के लिए प्रावधान: महिलाओं के लिए रात की पाली (रात 7 बजे से सुबह 6 बजे तक) में काम करने पर प्रतिबंध। प्रसूति लाभ और सुरक्षित कार्य परिस्थितियों का प्रावधान। कल्याण उपाय: कारखानों में कैंटीन, विश्राम कक्ष, और प्राथमिक चिकित्सा की सुविधाएं। बड़े कारखानों में कल्याण अधिकारियों की नियुक्ति। निरीक्षण और अनुपालन: कारखाना निरीक्षकों की नियुक्ति, जो नियमों के पालन की निगरानी करते थे। उल्लंघन के लिए दंड और जुर्माने का प्रावधान। 1991 तक के प्रमुख संशोधन 1948 के कारखाना अधिनियम को समय-समय पर संशोधित किया गया ताकि इसे बदलते औद्योगिक परिदृश्य के अनुरूप बनाया जा सके। 1991 तक के कुछ महत्वपूर्ण संशोधन निम्नलिखित हैं
1950-60 के दशक के संशोधन
1954 में, कार्य घंटों और कल्याण उपायों को और सख्त किया गया। खतरनाक कार्यों में लगे मजदूरों के लिए विशेष स्वास्थ्य जांच और सुरक्षा उपाय जोड़े गए। 1976 का संशोधन: खतरनाक प्रक्रियाओं से जुड़े उद्योगों (जैसे रासायनिक और पेट्रोकेमिकल) के लिए विशेष नियम जोड़े गए। मजदूरों की सुरक्षा के लिए आपातकालीन योजनाओं और प्रशिक्षण को अनिवार्य किया गया। 1987 का संशोधन: भोपाल गैस त्रासदी (1984) के बाद, इस संशोधन ने खतरनाक रासायनिक उद्योगों पर विशेष ध्यान दिया। कारखानों को खतरनाक पदार्थों की सूची और सुरक्षा नीतियां सार्वजनिक करने का आदेश दिया गया। मजदूरों और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए कड़े नियम लागू किए गए।
1991 में संशोधन: 1991 में कोई बड़ा स्वतंत्र संशोधन नहीं हुआ, लेकिन 1987 के संशोधन के प्रभाव और 1991 के आर्थिक सुधारों (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) ने कारखाना अधिनियम के कार्यान्वयन पर चर्चा को बढ़ाया। 1991 के बाद, भारत में औद्योगिक विकास तेज हुआ, जिसने श्रम कानूनों की प्रासंगिकता और सख्ती पर बहस को प्रेरित किया। यदि आप 1991 में किसी विशिष्ट संशोधन या घटना के बारे में पूछ रहे हैं, तो कृपया और स्पष्ट करें।
1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की शुरुआत ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया, जिसकी खराब स्थिति ने 1881 के कारखाना अधिनियम की आवश्यकता को रेखांकित किया। 1948 का अधिनियम 1881 के अधिनियम का विस्तार था, जो औपनिवेशिक काल की सीमाओं (जैसे सीमित दायरा, कमजोर कार्यान्वयन) को दूर करने के लिए बनाया गया था। हस्तशिल्प के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने मजदूरों को कारखानों में धकेला, जिसका प्रभाव 1948 के अधिनियम में मजदूरों के कल्याण पर जोर के रूप में दिखाई देता है। 1881 का कारखाना अधिनियम: 1881 का अधिनियम बाल श्रम और कार्य परिस्थितियों पर प्रारंभिक नियंत्रण था, लेकिन यह सीमित और ब्रिटिश हितों से प्रेरित था। 1948 का अधिनियम स्वतंत्र भारत की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अधिक व्यापक और मजदूर-केंद्रित था। 1948 के अधिनियम का प्रभाव (1991 तक)
1850 और 1881 के संदर्भ में संबंध
सकारात्मक प्रभाव: मजदूरों की सुरक्षा, स्वास्थ्य, और कल्याण में सुधार हुआ, विशेष रूप से बड़े कारखानों में। बाल श्रम पर प्रभावी नियंत्रण और महिलाओं के लिए बेहतर कार्य परिस्थितियां। औद्योगिक दुर्घटनाओं को कम करने में मदद, विशेष रूप से 1987 के संशोधन के बाद। सीमाएं: छोटे और असंगठित क्षेत्र के कारखाने अधिनियम के दायरे से बाहर रहे। कार्यान्वयन में कमी, विशेष रूप से ग्रामीण और छोटे शहरों में, जहां निरीक्षकों की कमी थी। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, निजी क्षेत्र के विस्तार ने श्रम कानूनों के अनुपालन पर दबाव बढ़ाया। सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: मजदूर यूनियनों और संगठनों को मजबूती मिली, जिसने मजदूरों के अधिकारों की वकालत की। औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिला, लेकिन मजदूरों की स्थिति में सुधार धीमा रहा।
1991 के संदर्भ में विशेष बिंदु आर्थिक सुधार (1991): 1991 में भारत ने उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरण की नीतियां अपनाईं, जिसने औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी निवेश और निजी उद्यमों को बढ़ावा दिया। इससे कारखाना अधिनियम के कार्यान्वयन पर नई चुनौतियां आईं, जैसे: असंगठित क्षेत्र में वृद्धि, जहां श्रम कानून लागू करना कठिन था। श्रम कानूनों को और लचीला करने की मांग, जो नियोक्ताओं के लिए अनुकूल हो। भोपाल त्रासदी का प्रभाव: 1987 का संशोधन भोपाल गैस त्रासदी से प्रेरित था, और 1991 तक इसके प्रभाव कारखानों में सुरक्षा मानकों को लागू करने में दिखाई दे रहे थे।
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