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Factory Act of 1934
jp Singh 2025-05-28 14:07:57
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1934 का कारखाना अधिनियम

1934 का कारखाना अधिनियम
1934 का कारखाना अधिनियम (Factory Act of 1934) भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान कारखानों में मजदूरों की कार्य परिस्थितियों, सुरक्षा, और कल्याण को बेहतर बनाने के लिए लाया गया एक महत्वपूर्ण कानून था। यह 1881, 1891, और 1922 के कारखाना अधिनियमों का उत्तराधिकारी था और इनकी कमियों को दूर करने का प्रयास था। यह अधिनियम आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, अकाल, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, हस्तशिल्प का ह्रास, आधुनिक उद्योगों का विकास, और 1881, 1891, 1922 के कारखाना अधिनियमों—से जुड़ा हुआ है।
1934 के कारखाना अधिनियम की पृष्ठभूमि
औद्योगिक संदर्भ: 1850 के दशक से शुरू हुए सूती कपड़ा (बॉम्बे, अहमदाबाद), जूट (कोलकाता), और चाय बागान जैसे उद्योग 1930 के दशक तक भारत में अच्छी तरह स्थापित हो चुके थे। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) और उसके बाद की आर्थिक मंदी (1929) ने भारतीय उद्योगों को प्रभावित किया, जिससे मजदूरों की स्थिति और खराब हुई। लंबे कार्य घंटे, कम वेतन, असुरक्षित परिस्थितियां, और बाल श्रम की समस्याएं बनी रहीं। 1922 का कारखाना अधिनियम कुछ हद तक प्रभावी था, लेकिन इसका दायरा सीमित था, और यह वयस्क मजदूरों के कल्याण, विशेष रूप से मौसमी कारखानों और छोटे उद्योगों में, को पूरी तरह संबोधित नहीं कर सका। सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO): 1919 में स्थापित ILO ने श्रम मानकों को लागू करने के लिए दबाव डाला। 1930 के दशक तक भारत ने कई ILO सम्मेलनों को स्वीकार किया, जिनमें कार्य घंटे, बाल श्रम, और सुरक्षा से संबंधित नियम शामिल थे।
राष्ट्रीय आंदोलन: 1930 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन, 1930-34) अपने चरम पर था। मजदूर संगठनों, जैसे अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC, 1920), और राष्ट्रवादी नेताओं (जैसे जवाहरलाल नेहरू) ने मजदूरों के अधिकारों की वकालत की।
मजदूर आंदोलन: 1920 और 1930 के दशक में मजदूर हड़तालें (जैसे बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक, 1928) बढ़ीं, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया और श्रम सुधारों की मांग को बढ़ाया। ब्रिटिश व्यापारिक दबाव: लंकाशायर के कपड़ा निर्माता अभी भी भारतीय मिलों की सस्ती श्रम लागत को अनुचित प्रतिस्पर्धा मानते थे, जिसने सुधारों को प्रेरित किया। पिछले अधिनियमों की कमियां: 1881 का अधिनियम केवल बाल श्रम और बड़े कारखानों पर केंद्रित था।
1891 का अधिनियम ने दायरे का विस्तार किया और महिलाओं के लिए प्रावधान जोड़े, लेकिन वयस्क पुरुषों की उपेक्षा की। 1922 का अधिनियम ने वयस्क पुरुषों के कार्य घंटों को नियंत्रित किया, लेकिन मौसमी कारखाने (जैसे चीनी मिलें) और छोटे उद्योग इसके दायरे से बाहर थे। 1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की शुरुआत ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कारखानों की संख्या और मजदूरों की समस्याएं बढ़ीं।
934 के कारखाना अधिनियम के प्रमुख प्रावधान 1934 का कारखाना अधिनियम 1922 के अधिनियम का संशोधन और विस्तार था, जो ILO के मानकों और भारतीय मजदूर आंदोलनों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
बाल श्रम पर सख्ती: न्यूनतम कार्य आयु को 12 वर्ष से बढ़ाकर 15 वर्ष कर दिया गया। 15 से 17 वर्ष के किशोरों को "युवा व्यक्तियों" (young persons) के रूप में वर्गीकृत किया गया और उनके लिए अधिकतम 5 घंटे प्रतिदिन कार्य की सीमा निर्धारित की गई। बच्चों और किशोरों के लिए चिकित्सा प्रमाणपत्र और कार्य रजिस्टर मेंटेन करना अनिवार्य था।
महिलाओं के लिए प्रावधान: महिलाओं के लिए कार्य घंटे 10 घंटे प्रतिदिन तक सीमित किए गए। रात की पाली (रात 7 बजे से सुबह 6 बजे तक) में महिलाओं के काम पर पूर्ण प्रतिबंध लागू किया गया। महिलाओं के लिए विश्राम अंतराल और सुरक्षित कार्य परिस्थितियों को और सख्त किया गया। वयस्क पुरुषों के लिए कार्य घंटे: वयस्क पुरुषों के लिए साप्ताहिक कार्य घंटे को 60 से घटाकर 54 घंटे और दैनिक कार्य घंटे को 11 से घटाकर 10 घंटे कर दिया गया।
साप्ताहिक अवकाश (आमतौर पर रविवार) और दोपहर के विश्राम अंतराल को सभी मजदूरों के लिए अनिवार्य किया गया। ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त वेतन का प्रावधान जोड़ा गया। स्वास्थ्य और सुरक्षा: कारखानों में स्वच्छता, वेंटिलेशन, रोशनी, और पेयजल की सुविधाओं के लिए और सख्त मानक लागू किए गए। खतरनाक मशीनों को बाड़ लगाने, अग्नि सुरक्षा, और रासायनिक खतरों से निपटने के लिए विस्तृत नियम बनाए गए। कारखाना मालिकों को सभी दुर्घटनाओं और व्यावसायिक बीमारियों की अनिवार्य रिपोर्टिंग का आदेश दिया गया।
मौसमी कारखानों को शामिल करना: पहली बार मौसमी कारखानों (जैसे चीनी मिलें, जिन्सिंग मिलें) को अधिनियम के दायरे में लाया गया, जो पहले बाहर थे। इन कारखानों के लिए विशेष प्रावधान बनाए गए, जैसे सीमित कार्य घंटे और सुरक्षा उपाय। निरीक्षण और अनुपालन: कारखाना निरीक्षकों की शक्तियों को और बढ़ाया गया, और उनकी संख्या में वृद्धि की गई। नियमों के उल्लंघन के लिए कड़े दंड और जुर्माने का प्रावधान किया गया, जिसमें कारखाना मालिकों की जवाबदेही बढ़ाई गई।
विस्तारित दायरा: अधिनियम का दायरा बढ़ाकर उन कारखानों तक विस्तारित किया गया जहां 10 या अधिक मजदूर यांत्रिक शक्ति के साथ काम करते थे, या 20 या अधिक मजदूर बिना यांत्रिक शक्ति के काम करते थे। यह 1922 के अधिनियम (20+ मजदूर) की तुलना में अधिक व्यापक था।
1934 के कारखाना अधिनियम की सीमाएं सीमित दायरा: यह अधिनियम चाय बागानों, खदानों, और असंगठित क्षेत्रों पर लागू नहीं था, जहां मजदूरों का शोषण व्यापक था। बहुत छोटे कारखानों (10 से कम मजदूरों वाले) को अभी भी शामिल नहीं किया गया। कमजोर कार्यान्वयन: निरीक्षकों की संख्या और संसाधन अभी भी अपर्याप्त थे, विशेष रूप से ग्रामीण और छोटे शहरों में। ब्रिटिश और भारतीय कारखाना मालिकों ने लागत कम करने के लिए नियमों का उल्लंघन किया, और दंड अक्सर हल्के थे।
जदूरों के अधिकारों की कमी: अधिनियम में मजदूरों के वेतन, सामूहिक सौदेबाजी, या यूनियन गठन के अधिकारों के लिए कोई प्रावधान नहीं था। सामाजिक सुरक्षा (जैसे पेंशन, स्वास्थ्य बीमा) पर ध्यान नहीं दिया गया। ब्रिटिश हितों का प्रभाव: अधिनियम आंशिक रूप से लंकाशायर के कपड़ा निर्माताओं और ILO के दबाव में लाया गया था। इसका उद्देश्य भारतीय मिलों की प्रतिस्पर्धा को सीमित करना था, न कि केवल मजदूर कल्याण।
1934 के कारखाना अधिनियम का प्रभाव सकारात्मक प्रभाव: बाल श्रम पर सख्ती ने बच्चों के शोषण को और कम किया, विशेष रूप से बड़े कारखानों में। वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए कार्य घंटों का नियमन मजदूरों की स्थिति में सुधार लाया। मौसमी कारखानों को शामिल करने से अधिक मजदूरों को सुरक्षा मिली। सुरक्षा और स्वच्छता मानकों में सुधार ने कारखाना दुर्घटनाओं को कम किया। इसने स्वतंत्र भारत में 1948 के कारखाना अधिनियम की नींव रखी।
नकारात्मक प्रभाव: अधिनियम का प्रभाव बड़े और मध्यम आकार के कारखानों तक सीमित रहा, और असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। कार्यान्वयन की कमजोरी के कारण कई कारखाना मालिकों ने नियमों का उल्लंघन जारी रखा। मजदूरों के लिए संगठित होने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ढांचा नहीं था। सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: अधिनियम ने मजदूर वर्ग की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया, जिसने ट्रेड यूनियनों और राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया।
यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में मजदूरों की स्थिति को सुधारने का एक कदम था, लेकिन यह हस्तशिल्प के ह्रास, धन के निष्कासन, और कृषि के व्यापारीकरण से उत्पन्न समस्याओं को पूरी तरह संबोधित नहीं कर सका। मजदूर आंदोलनों को प्रोत्साहन मिला, जिसने 1930 और 1940 के दशक में श्रम अधिकारों की मांग को और बढ़ाया। 1850, 1881, 1891, और 1922 के संदर्भ में संबंध 1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की स्थापना ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कारखानों की संख्या और मजदूरों की समस्याएं बढ़ीं।
1881 का कारखाना अधिनियम: 1881 का अधिनियम पहला प्रयास था, जो मुख्य रूप से बाल श्रम और सुरक्षा पर केंद्रित था, लेकिन इसका दायरा सीमित था (100+ मजदूरों वाले कारखाने)। यह ब्रिटिश व्यापारिक हितों (लंकाशायर) से प्रभावित था और कार्यान्वयन में कमजोर था। 1891 का कारखाना अधिनियम: 1891 का अधिनियम 1881 की कमियों को सुधारने का प्रयास था, जिसमें दायरे का विस्तार (50+ मजदूर), महिलाओं के लिए प्रावधान, और सख्त निरीक्षण शामिल थे। 1922 का कारखाना अधिनियम: 1922 का अधिनियम 1891 का विस्तार था, जिसमें वयस्क पुरुषों के कार्य घंटों का नियमन और ILO मानकों का समावेश शामिल था। इसका दायरा 20+ मजदूरों तक बढ़ाया गया।
1934 का कारखाना अधिनियम: 1934 का अधिनियम 1922 की तुलना में अधिक व्यापक था, जिसमें बाल श्रम की न्यूनतम आयु बढ़ाना, मौसमी कारखानों को शामिल करना, और कार्य घंटों को और कम करना शामिल था। यह ILO के प्रभाव और भारतीय मजदूर आंदोलनों के दबाव का परिणाम था।
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