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Factory Act of 1922
jp Singh 2025-05-28 14:05:46
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1922 का कारखाना अधिनियम

1922 का कारखाना अधिनियम
1922 का कारखाना अधिनियम (Factory Act of 1922) भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान कारखानों में मजदूरों की कार्य परिस्थितियों को बेहतर बनाने के लिए 1881 और 1891 के कारखाना अधिनियमों के बाद लाया गया एक महत्वपूर्ण कानून था। यह अधिनियम 1850 के दशक से शुरू हुए आधुनिक उद्योगों (विशेष रूप से सूती कपड़ा और जूट) के विस्तार और मजदूरों की खराब स्थिति को संबोधित करने के लिए बनाया गया था। यह आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, अकाल, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, हस्तशिल्प का ह्रास, आधुनिक उद्योगों का विकास, और 1881 व 1891 के कारखाना अधिनियमों—से जुड़ा हुआ है।
1922 के कारखाना अधिनियम की पृष्ठभूमि
औद्योगिक संदर्भ: 1850 के दशक में शुरू हुए सूती कपड़ा (बॉम्बे, अहमदाबाद) और जूट उद्योग (कोलकाता) 20वीं सदी की शुरुआत तक काफी विकसित हो चुके थे। इसके अलावा, चाय बागान और अन्य उद्योग भी विस्तारित हुए थे। कारखानों में मजदूरों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों, की स्थिति खराब थी। लंबे कार्य घंटे, कम वेतन, असुरक्षित परिस्थितियां, और बाल श्रम आम समस्याएं थीं। 1881 और 1891 के कारखाना अधिनियम सीमित थे, क्योंकि वे मुख्य रूप से बाल श्रम और महिलाओं पर केंद्रित थे, और वयस्क पुरुष मजदूरों की स्थिति को पूरी तरह संबोधित नहीं करते थे। सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO): 1919 में स्थापित ILO ने श्रम सुधारों पर वैश्विक दबाव डाला। भारत, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन था, ILO के कुछ मानकों को लागू करने के लिए बाध्य हुआ।
राष्ट्रीय आंदोलन: 1920 के दशक में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (जैसे असहयोग आंदोलन) के उभार ने मजदूरों की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया। भारतीय समाज सुधारक और राष्ट्रवादी नेता (जैसे लाला लाजपत राय) मजदूर अधिकारों की वकालत कर रहे थे। लंकाशायर का दबाव: ब्रिटिश कपड़ा निर्माता भारतीय मिलों की सस्ती श्रम लागत को अनुचित प्रतिस्पर्धा मानते थे, जिसने श्रम सुधारों की मांग को बढ़ाया। मजदूर संगठनों का उदय: 1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना ने मजदूरों के अधिकारों को संगठित रूप से उठाना शुरू किया। 1881 और 1891 के अधिनियमों की कमियां: सीमित दायरा (केवल बड़े कारखानों पर लागू)। वयस्क पुरुषों के लिए कार्य घंटों का कोई नियमन। निरीक्षण व्यवस्था की कमजोरी और नियमों का कमजोर कार्यान्वयन।
1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की शुरुआत ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कारखानों की संख्या और मजदूरों की समस्याएं बढ़ीं। 1922 के कारखाना अधिनियम के प्रमुख प्रावधान 1922 का कारखाना अधिनियम 1881 और 1891 के अधिनियमों की तुलना में अधिक व्यापक था और अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों (ILO) को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
ल श्रम पर नियंत्रण: न्यूनतम कार्य आयु को 9 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दिया गया। 12 से 15 वर्ष के बच्चों को "किशोर" (adolescents) माना गया और उनके लिए अधिकतम 6 घंटे प्रतिदिन कार्य की सीमा निर्धारित की गई। बच्चों के लिए चिकित्सा प्रमाणपत्र और कार्य रजिस्टर मेंटेन करने की आवश्यकता को और सख्त किया गया।
महिलाओं के लिए प्रावधान: महिलाओं के लिए कार्य घंटे 11 घंटे प्रतिदिन तक सीमित किए गए, और रात की पाली (रात 7 बजे से सुबह 5 बजे तक) में काम पर प्रतिबंध को और सख्त किया गया। महिलाओं के लिए विश्राम अंतराल और सुरक्षित कार्य परिस्थितियों को अनिवार्य किया गया। वयस्क पुरुषों के लिए कार्य घंटे: पहली बार वयस्क पुरुष मजदूरों के लिए कार्य घंटों को नियंत्रित किया गया। अधिकतम 60 घंटे साप्ताहिक और 11 घंटे दैनिक कार्य की सीमा निर्धारित की गई। साप्ताहिक अवकाश और दोपहर के विश्राम अंतराल को सभी मजदूरों के लिए अनिवार्य किया गया।
स्वास्थ्य और सुरक्षा: कारखानों में स्वच्छता, वेंटिलेशन, रोशनी, और पेयजल की सुविधाओं के लिए सख्त मानक लागू किए गए। खतरनाक मशीनों को बाड़ लगाने और दुर्घटना निवारण के लिए विस्तृत नियम बनाए गए। कारखाना मालिकों को दुर्घटनाओं और बीमारियों की अनिवार्य रिपोर्टिंग का आदेश दिया गया।
निरीक्षण और अनुपालन: कारखाना निरीक्षकों की शक्तियों को बढ़ाया गया, और उनकी संख्या में वृद्धि की गई। नियमों के उल्लंघन के लिए कड़े दंड और जुर्माने का प्रावधान किया गया। विस्तारित दायरा: अधिनियम का दायरा बढ़ाकर उन कारखानों तक विस्तारित किया गया जहां 20 या अधिक मजदूर यांत्रिक शक्ति के साथ काम करते थे (1891 में यह सीमा 50 थी)। गैर-यांत्रिक कारखानों को भी आंशिक रूप से शामिल किया गया, जिससे अधिनियम का प्रभाव बढ़ा
922 के कारखाना अधिनियम की सीमाएं सीमित दायरा: यह अधिनियम चाय बागानों, खदानों, और असंगठित क्षेत्रों पर लागू नहीं था, जहां मजदूरों का शोषण आम था। छोटे कारखानों (20 से कम मजदूरों वाले) को अभी भी शामिल नहीं किया गया। कमजोर कार्यान्वयन: निरीक्षकों की संख्या और संसाधन अभी भी अपर्याप्त थे, विशेष रूप से ग्रामीण और छोटे शहरों में। ब्रिटिश और भारतीय कारखाना मालिकों ने लागत कम करने के लिए नियमों का उल्लंघन किया। मजदूरों के अधिकार: अधिनियम में मजदूरों के वेतन, यूनियन गठन, या सामूहिक सौदेबाजी के अधिकारों के लिए कोई प्रावधान नहीं था। मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा (जैसे पेंशन, बीमा) पर ध्यान नहीं दिया गया।
ब्रिटिश हितों का प्रभाव: अधिनियम आंशिक रूप से लंकाशायर के कपड़ा निर्माताओं और ILO के दबाव में लाया गया था, जिसका उद्देश्य भारतीय मिलों की प्रतिस्पर्धा को सीमित करना था। यह मजदूर कल्याण से अधिक ब्रिटिश व्यापारिक हितों को संतुलित करता था। 1922 के कारखाना अधिनियम का प्रभाव सकारात्मक प्रभाव: बाल श्रम पर सख्त नियमों ने बच्चों के शोषण को और कम किया।
यस्क पुरुषों के लिए कार्य घंटों का नियमन एक महत्वपूर्ण कदम था, जो मजदूरों की स्थिति में सुधार लाया। कारखानों में सुरक्षा और स्वच्छता मानकों में सुधार हुआ, जिसने दुर्घटनाओं को कम करने में मदद की। इसने भविष्य के श्रम कानूनों, जैसे 1934 और 1948 के कारखाना अधिनियमों, की नींव रखी। नकारात्मक प्रभाव: अधिनियम का प्रभाव बड़े कारखानों तक सीमित रहा, और असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
कार्यान्वयन की कमजोरी के कारण कई कारखाना मालिकों ने नियमों का उल्लंघन जारी रखा। मजदूरों को संगठित करने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ठोस ढांचा नहीं था। सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: अधिनियम ने मजदूर वर्ग की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया, जिसने ट्रेड यूनियनों (जैसे AITUC) और राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया। यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में मजदूरों की स्थिति को सुधारने का एक कदम था, लेकिन यह हस्तशिल्प के ह्रास, धन के निष्कासन, और कृषि के व्यापारीकरण से उत्पन्न समस्याओं को पूरी तरह संबोधित नहीं कर सका। 1850, 1881, और 1891 के संदर्भ में संबंध
850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की स्थापना ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कारखानों की संख्या और मजदूरों की समस्याएं बढ़ीं। 1881 का कारखाना अधिनियम: 1881 का अधिनियम पहला प्रयास था, जो मुख्य रूप से बाल श्रम और सुरक्षा पर केंद्रित था, लेकिन इसका दायरा सीमित था (100+ मजदूरों वाले कारखाने)।
यह अधिनियम ब्रिटिश व्यापारिक हितों (लंकाशायर) से प्रभावित था और कार्यान्वयन में कमजोर था। 1891 का कारखाना अधिनियम: 1891 का अधिनियम 1881 की कमियों को सुधारने का प्रयास था, जिसमें दायरे का विस्तार (50+ मजदूर), महिलाओं के लिए प्रावधान, और सख्त निरीक्षण शामिल थे। 1922 का अधिनियम 1891 का और विस्तार था, जिसमें वयस्क पुरुषों के कार्य घंटों का नियमन और ILO मानकों का समावेश शामिल था।
सामान्य धागा: ये सभी अधिनियम औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में बनाए गए, जहां मजदूरों का शोषण आम था, लेकिन ब्रिटिश हितों (जैसे लंकाशायर की प्रतिस्पर्धा) को प्राथमिकता दी गई। 1922 का अधिनियम राष्ट्रीय आंदोलन और ILO के प्रभाव के कारण अधिक प्रगतिशील था।
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