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Factory Act of 1891
jp Singh 2025-05-28 14:03:50
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1891 का कारखाना अधिनियम

1891 का कारखाना अधिनियम
1891 का कारखाना अधिनियम (Factory Act of 1891) भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान कारखानों में मजदूरों की कार्य परिस्थितियों को बेहतर बनाने के लिए 1881 के कारखाना अधिनियम का संशोधित और विस्तारित संस्करण था। यह अधिनियम 1850 के दशक से शुरू हुए आधुनिक उद्योगों (विशेष रूप से सूती कपड़ा और जूट) के विकास और 1881 के अधिनियम की कमियों को ध्यान में रखते हुए लाया गया था। यह आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, अकाल, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, हस्तशिल्प का ह्रास, और आधुनिक उद्योगों का विकास—से जुड़ा हुआ है।
1891 के कारखाना अधिनियम की पृष्ठभूमि
औद्योगिक संदर्भ: 1850 के दशक में शुरू हुए सूती कपड़ा (बॉम्बे, अहमदाबाद) और जूट उद्योग (कोलकाता) 1880 के दशक तक काफी विस्तारित हो चुके थे। इन कारखानों में मजदूरों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों, का शोषण आम था। 1881 का कारखाना अधिनियम सीमित था, क्योंकि यह केवल बड़े कारखानों पर लागू होता था और वयस्क मजदूरों के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं थे। इसकी कमजोरियां और अप्रभावी कार्यान्वयन ने नए कानून की मांग को बढ़ाया। सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव: भारतीय समाज सुधारकों (जैसे साशिपदा बनर्जी) और ब्रिटिश प्रशासकों ने मजदूरों की खराब स्थिति (लंबे कार्य घंटे, कम वेतन, असुरक्षित परिस्थितियां) पर ध्यान आकर्षित किया। लंकाशायर (ब्रिटेन) के कपड़ा निर्माताओं ने भारतीय मिलों में सस्ते श्रम के उपयोग पर आपत्ति जताई, जिसे वे अनुचित प्रतिस्पर्धा मानते थे। ब्रिटेन में कारखाना सुधारों (जैसे 1878 का कारखाना अधिनियम) ने भारत में भी समान कानून की मांग को प्रेरित किया।
1881 के अधिनियम की कमियां: सीमित दायरा (केवल 100+ मजदूरों वाले कारखानों पर लागू)। वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए कार्य घंटों का कोई स्पष्ट नियमन। निरीक्षण व्यवस्था की कमजोरी और नियमों का उल्लंघन। 1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की स्थापना ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1891 के कारखाना अधिनियम के प्रमुख प्रावधान 1891 का अधिनियम 1881 के अधिनियम का सुधार था और इसमें अधिक व्यापक प्रावधान शामिल किए गए। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
बाल श्रम पर सख्ती: न्यूनतम कार्य आयु को 7 वर्ष से बढ़ाकर 9 वर्ष कर दिया गया। 9 से 14 वर्ष के बच्चों को "किशोर" (young persons) के रूप में वर्गीकृत किया गया और उनके लिए अधिकतम 7 घंटे प्रतिदिन कार्य की सीमा निर्धारित की गई। बच्चों के लिए चिकित्सा प्रमाणपत्र और कार्य रजिस्टर मेंटेन करने की आवश्यकता जोड़ी गई। महिलाओं के लिए प्रावधान: महिलाओं के लिए कार्य घंटे 11 घंटे प्रतिदिन तक सीमित किए गए।
रात की पाली (रात 8 बजे से सुबह 5 बजे तक) में महिलाओं के काम पर प्रतिबंध लगाया गया। महिलाओं के लिए विश्राम अंतराल (rest intervals) अनिवार्य किए गए। कार्य के घंटे और अवकाश: सभी मजदूरों (वयस्क पुरुषों सहित) के लिए साप्ताहिक अवकाश का प्रावधान। कारखानों में दोपहर के समय विश्राम अवधि (लंच ब्रेक) अनिवार्य की गई। हालांकि, वयस्क पुरुषों के लिए दैनिक कार्य घंटों की कोई स्पष्ट सीमा नहीं थी, जो एक कमी थी।
स्वास्थ्य और सुरक्षा: कारखानों में स्वच्छता, वेंटिलेशन, और रोशनी के लिए बेहतर मानक निर्धारित किए गए। खतरनाक मशीनों को बाड़ लगाने और दुर्घटना निवारण के लिए सख्त नियम बनाए गए। कारखाना मालिकों को दुर्घटनाओं की रिपोर्ट करने का आदेश दिया गया। निरीक्षण और अनुपालन: कारखाना निरीक्षकों की संख्या बढ़ाई गई, और उनकी शक्तियों को मजबूत किया गया। नियमों के उल्लंघन के लिए दंड और जुर्माने को और सख्त किया गया।
विस्तारित दायरा: अधिनियम का दायरा बढ़ाकर उन कारखानों तक विस्तारित किया गया जहां 50 या अधिक मजदूर काम करते थे (1881 में यह सीमा 100 थी)। यांत्रिक शक्ति के उपयोग की आवश्यकता को हटाया गया, जिससे अधिक कारखाने इस अधिनियम के दायरे में आए। 1891 के कारखाना अधिनियम की सीमाएं सीमित दायरा: यह अधिनियम अभी भी चाय बागानों, खदानों, और असंगठित क्षेत्रों पर लागू नहीं था। छोटे कारखानों (50 से कम मजदूरों वाले) को शामिल नहीं किया गया।
कमजोर कार्यान्वयन: निरीक्षकों की संख्या और संसाधन अभी भी अपर्याप्त थे, जिससे नियमों का पालन सुनिश्चित करना मुश्किल था। ब्रिटिश और भारतीय कारखाना मालिकों ने लागत कम करने के लिए नियमों का उल्लंघन किया। वयस्क पुरुष मजदूरों की उपेक्षा: वयस्क पुरुषों के लिए कार्य घंटों की कोई स्पष्ट सीमा नहीं थी, जिसके कारण उनका शोषण जारी रहा। मजदूरों के वेतन या अन्य कल्याणकारी उपायों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। ब्रिटिश हितों का प्रभाव: अधिनियम को लंकाशायर के कपड़ा निर्माताओं के दबाव में लाया गया, जो भारतीय मिलों की सस्ती श्रम लागत से चिंतित थे। यह मजदूर कल्याण से अधिक ब्रिटिश व्यापारिक हितों को संतुलित करने का प्रयास था।
1891 के कारखाना अधिनियम का प्रभाव सकारात्मक प्रभाव: बाल श्रम पर सख्त नियमों ने बच्चों के शोषण को कुछ हद तक कम किया। महिलाओं के लिए कार्य घंटों और रात की पाली पर प्रतिबंध ने उनकी स्थिति में मामूली सुधार किया। कारखानों में सुरक्षा और स्वच्छता मानकों में सुधार हुआ, जिसने दुर्घटनाओं को कम करने में मदद की। इसने भविष्य के और व्यापक श्रम कानूनों (जैसे 1911 और 1948 के कारखाना अधिनियम) की नींव रखी।
नकारात्मक प्रभाव: अधिनियम का प्रभाव सीमित रहा, क्योंकि इसका दायरा बड़े कारखानों तक ही था। मजदूरों को संगठित करने या उनके वेतन और अधिकारों की रक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं था। ब्रिटिश और भारतीय कारखाना मालिकों ने नियमों को लागू करने में रुचि नहीं दिखाई, जिससे कार्यान्वयन कमजोर रहा। सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: अधिनियम ने मजदूर वर्ग की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया, जिसने भारतीय समाज सुधारकों और राष्ट्रवादियों को मजदूर अधिकारों के लिए प्रेरित किया। यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में मजदूरों की स्थिति को सुधारने का एक प्रारंभिक प्रयास था, लेकिन यह धन के निष्कासन और हस्तशिल्प के ह्रास से उत्पन्न समस्याओं को पूरी तरह संबोधित नहीं कर सका।
850 और 1881 के संदर्भ में संबंध 1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की स्थापना ने एक नया मजदूर वर्ग बनाया, जिसकी खराब स्थिति ने 1881 और 1891 के अधिनियमों की आवश्यकता को रेखांकित किया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की संख्या और उनके शोषण को बढ़ाया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, लेकिन यह ब्रिटिश हितों को प्राथमिकता देता था, जिसके कारण मजदूरों की स्थिति पर ध्यान देना आवश्यक हो गया।
1881 का कारखाना अधिनियम: 1881 का अधिनियम पहला कदम था, जो मुख्य रूप से बाल श्रम और सुरक्षा पर केंद्रित था, लेकिन इसका दायरा सीमित था।
1891 का अधिनियम 1881 की कमियों को दूर करने का प्रयास था, जिसमें दायरे का विस्तार, महिलाओं के लिए प्रावधान, और सख्त निरीक्षण शामिल थे।
दोनों अधिनियम ब्रिटिश व्यापारिक हितों (विशेष रूप से लंकाशायर के दबाव) से प्रभावित थे, लेकिन 1891 का अधिनियम अधिक व्यापक था।
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