Factory Act of 1881
jp Singh
2025-05-28 14:02:07
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1881 का कारखाना अधिनिय
1881 का कारखाना अधिनिय
1881 का कारखाना अधिनियम (Factory Act of 1881) भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान औद्योगिक मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिए पहला विधायी प्रयास था। यह अधिनियम मुख्य रूप से नवजात आधुनिक उद्योगों, विशेष रूप से सूती कपड़ा और जूट मिलों में काम करने वाले मजदूरों के शोषण को नियंत्रित करने के उद्देश्य से पारित किया गया था। यह आपके पिछले प्रश्नों—विशेष रूप से भारत में आधुनिक उद्योगों का विकास और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था—से जुड़ा हुआ है।
1881 के कारखाना अधिनियम की पृष्ठभूमि
औद्योगिक संदर्भ: 1850 के दशक से भारत में आधुनिक उद्योगों, जैसे सूती कपड़ा (बॉम्बे, अहमदाबाद) और जूट (कोलकाता), का विकास शुरू हुआ था। 1881 तक ये उद्योग महत्वपूर्ण हो चुके थे। मिलों में काम करने वाले मजदूरों, जिनमें कई पूर्व हस्तशिल्पी और ग्रामीण प्रवासी शामिल थे, को लंबे काम के घंटे, कम वेतन, और असुरक्षित कार्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों का शोषण आम था, क्योंकि वे सस्ते श्रम के रूप में काम करते थे। सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय दबाव: ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद कारखाना अधिनियम (1833, 1847) लागू किए गए थे, जो भारत में भी इसी तरह के कानून की मांग को प्रेरित कर रहे थे। भारतीय समाज सुधारकों (जैसे साशिपदा बनर्जी) और ब्रिटिश प्रशासकों (जैसे अलेक्जेंडर रेडिंग) ने मजदूरों की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया।
लंकाशायर (ब्रिटेन) के कपड़ा निर्माताओं ने भारतीय मिलों में सस्ते श्रम के उपयोग पर आपत्ति जताई, जिसे वे अनुचित प्रतिस्पर्धा मानते थे। 1850 से संबंध: 1850 के दशक में शुरू हुए सूती कपड़ा उद्योग और रेलवे ने औद्योगिक मजदूर वर्ग को जन्म दिया। 1881 तक, इन मजदूरों की स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि विधायी हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को मिलों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने इस अधिनियम की आवश्यकता को और बढ़ाया। 1881 के कारखाना अधिनियम के प्रमुख प्रावधान 1881 का कारखाना अधिनियम भारत में पहला कानून था जो कारखानों में कार्य परिस्थितियों को नियंत्रित करता था। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
बाल श्रम पर नियंत्रण: 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों में काम करने की अनुमति नहीं थी। 7 से 12 वर्ष के बच्चों को अधिकतम 9 घंटे प्रतिदिन काम करने की अनुमति थी। बच्चों के लिए सप्ताह में एक दिन का अवकाश अनिवार्य था। महिलाओं के लिए प्रावधान: महिलाओं के लिए कार्य के घंटे सीमित किए गए, हालांकि यह प्रावधान अस्पष्ट था और प्रभावी ढंग से लागू नहीं हुआ। कार्य के घंटे: कारखानों में काम के घंटों को विनियमित करने का प्रयास किया गया, लेकिन वयस्क पुरुष मजदूरों के लिए कोई स्पष्ट सीमा निर्धारित नहीं की गई।
सुरक्षा उपाय: कारखानों में खतरनाक मशीनरी को बाड़ लगाने और अन्य सुरक्षा उपायों का प्रावधान किया गया। दुर्घटनाओं की स्थिति में कारखाना मालिकों को जिम्मेदार ठहराया गया। निरीक्षण व्यवस्था: कारखानों का निरीक्षण करने के लिए इंस्पेक्टर नियुक्त किए गए, जो काम की परिस्थितियों और कानून के पालन की निगरानी करते थे। हालांकि, इंस्पेक्टरों की संख्या कम थी, और निरीक्षण प्रक्रिया प्रभावी नहीं थी। अधिनियम की सीमाएं
सीमित दायरा: यह अधिनियम केवल उन कारखानों पर लागू था जहां 100 या अधिक मजदूर काम करते थे और यांत्रिक शक्ति (जैसे भाप) का उपयोग होता था। छोटे कारखाने और गैर-यांत्रिक इकाइयां इससे बाहर थीं। चाय बागान और अन्य गैर-कारखाना आधारित उद्योगों को शामिल नहीं किया गया। कमजोर कार्यान्वयन: निरीक्षण व्यवस्था अपर्याप्त थी, और कारखाना मालिकों (विशेष रूप से ब्रिटिश मालिकों) पर नियमों का पालन करने का दबाव कम था। कई कारखाना मालिकों ने प्रावधानों को नजरअंदाज किया, और उल्लंघन पर दंड हल्के थे।
यस्क मजदूरों की उपेक्षा: अधिनियम में वयस्क पुरुष मजदूरों के लिए कार्य के घंटे, वेतन, या कार्य परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं थे। महिलाओं के लिए भी नियम अस्पष्ट और अप्रभावी थे। ब्रिटिश हितों का प्रभाव: अधिनियम को लंकाशायर के कपड़ा निर्माताओं के दबाव में लाया गया था, जो भारतीय मिलों की सस्ती श्रम लागत से प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे थे। यह भारतीय मजदूरों के कल्याण से अधिक ब्रिटिश व्यापारिक हितों को ध्यान में रखता था। 1881 के कारखाना अधिनियम का प्रभाव सकारात्मक प्रभाव: यह भारत में श्रम कानूनों की शुरुआत थी, जिसने मजदूरों की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया। बाल श्रम पर कुछ हद तक अंकुश लगा, खासकर बड़े कारखानों में।
इसने भविष्य के अधिक व्यापक श्रम कानूनों (जैसे 1891 का कारखाना अधिनियम) की नींव रखी। नकारात्मक प्रभाव: अधिनियम का दायरा सीमित था, और यह बड़े पैमाने पर मजदूरों की स्थिति में सुधार करने में विफल रहा। ब्रिटिश और भारतीय कारखाना मालिकों ने इसका विरोध किया, क्योंकि यह उनकी लागत बढ़ाता था। मजदूरों को संगठित करने और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: अधिनियम ने मजदूर वर्ग की स्थिति को सुधारने में बहुत कम योगदान दिया, और शहरी मजदूरों की खराब स्थिति (कम वेतन, लंबे घंटे, असुरक्षा) बनी रही। इसने भारतीय समाज सुधारकों और राष्ट्रवादियों को मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया।
850 के संदर्भ में संबंध औद्योगिक विकास: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की शुरुआत ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया, जिसकी खराब स्थिति ने 1881 के अधिनियम की आवश्यकता को रेखांकित किया।
हस्तशिल्प का ह्रास: हस्तशिल्प उद्योग के पतन ने कई कारीगरों को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की संख्या और उनके शोषण को बढ़ाया।
कृषि का व्यापारीकरण: नकदी फसलों (जैसे नील, कपास) पर जोर और अकालों (जैसे 1860-61, 1866) ने ग्रामीण आबादी को शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर किया, जिसने कारखाना मजदूरों की आपूर्ति बढ़ाई।
धन का निष्कासन: कारखानों में उपयोग होने वाली मशीनरी और तकनीक ब्रिटेन से आयात की जाती थी, जो धन के निष्कासन का हिस्सा थी।
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