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Development of Modern Industries in India
jp Singh 2025-05-28 14:00:28
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भारत में आधुनिक उधोगो का विकास

भारत में आधुनिक उधोगो का विकास
भारत में आधुनिक उद्योगों का विकास (Development of Modern Industries in India) ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, विशेष रूप से 19वीं सदी के मध्य से शुरू हुआ, लेकिन यह प्रक्रिया धीमी, सीमित और ब्रिटिश हितों से प्रेरित थी। 1850 के आसपास, जब भारत की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि-आधारित थी और हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास हो चुका था, आधुनिक उद्योगों की शुरुआत हुई। यह आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, अकाल, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, और हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास—से जुड़ा हुआ है।
भारत में आधुनिक उद्योगों की शुरुआत (1850 के आसपास) सूती कपड़ा उद्योग: प्रारंभ: भारत में आधुनिक सूती कपड़ा उद्योग की शुरुआत 1850 के दशक में हुई। पहली आधुनिक कपड़ा मिल 1854 में बॉम्बे में बॉम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग कंपनी के रूप में स्थापित की गई। प्रमुख केंद्र: बॉम्बे (मुंबई) और अहमदाबाद इस उद्योग के प्रमुख केंद्र बने।
प्रेरणा: ब्रिटिश मशीन-निर्मित कपड़ों के आयात ने भारतीय हस्तशिल्प को नष्ट किया, जिसके जवाब में भारतीय उद्यमियों (जैसे पारसी और गुजराती व्यापारी) ने आधुनिक मिलें शुरू कीं। 1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने कुछ औद्योगिक विकास को अनुमति दी, लेकिन यह सीमित था। प्रभाव: यह उद्योग भारतीय पूंजी और उद्यमिता का प्रतीक था, लेकिन ब्रिटिश नीतियों (उच्च कर, प्रतिस्पर्धा) ने इसके विकास को बाधित किया। जूट उद्योग: प्रारंभ: जूट उद्योग की शुरुआत 1855 में कोलकाता के निकट रिशरा में पहली जूट मिल (बंगाल जूट मिल) के साथ हुई।
कारण: बंगाल में जूट की प्रचुर उपलब्धता और वैश्विक मांग (विशेष रूप से बोरे और पैकेजिंग सामग्री के लिए)। 1850 के दशक में क्रीमियन युद्ध (1853-56) के कारण रूस से जूट आपूर्ति बाधित हुई, जिसने भारत में जूट उद्योग को बढ़ावा दिया। प्रभाव: जूट उद्योग मुख्य रूप से ब्रिटिश पूंजी द्वारा नियंत्रित था, और इसका लाभ अधिकांशतः ब्रिटिश व्यापारियों को हुआ। रेलवे और संबंधित उद्योग: रेलवे की शुरुआत: 1853 में पहली रेलवे लाइन (बॉम्बे-ठाणे) शुरू हुई। रेलवे निर्माण ने इस्पात, मशीनरी, और इंजीनियरिंग उद्योगों को प्रोत्साहन दिया।
प्रभाव: रेलवे ने कच्चे माल (जैसे कपास, जूट) के परिवहन को आसान बनाया, जिससे औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ। हालांकि, रेलवे उपकरण और तकनीक ब्रिटेन से आयात किए गए, जिसने स्थानीय औद्योगिक विकास को सीमित किया। लोहा और इस्पात: छोटे स्तर पर लोहा उत्पादन शुरू हुआ, लेकिन बड़े पैमाने पर इस्पात उद्योग का विकास बाद में (20वीं सदी में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी, 1907) हुआ। चाय उद्योग: प्रारंभ: 1830 के दशक में असम में चाय बागानों की शुरुआत हुई, लेकिन 1850 के दशक तक यह एक प्रमुख उद्योग बन गया।
विकास: ब्रिटिश पूंजी ने असम और दार्जिलिंग में चाय बागानों को बढ़ावा दिया। 1850 के दशक में चाय निर्यात में तेजी आई। प्रभाव: यह उद्योग ब्रिटिश नियंत्रण में था, और मजदूरों (मुख्य रूप से आदिवासी और गरीब समुदायों से) का शोषण किया गया। आधुनिक उद्योगों के विकास को प्रभावित करने वाले कारक ब्रिटिश नीतियों का प्रभाव: प्रतिबंधात्मक नीतियां: ब्रिटिश प्रशासन ने भारत में औद्योगीकरण को हतोत्साहित किया, क्योंकि भारत को कच्चे माल का स्रोत और ब्रिटिश माल का बाजार बनाए रखना था।
उच्च कर और शुल्क: भारतीय उद्योगों पर उच्च कर लगाए गए, जबकि ब्रिटिश माल को कम या कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था। आयात पर निर्भरता: मशीनरी, तकनीक, और विशेषज्ञता ब्रिटेन से आयात की जाती थी, जिसने धन के निष्कासन को बढ़ाया। भारतीय पूंजी और उद्यमिता: पारसी (जैसे जमशेदजी नुसीरवानजी टाटा), गुजराती, और मारवाड़ी व्यापारियों ने सूती कपड़ा और अन्य उद्योगों में निवेश किया। 1850 के दशक में बॉम्बे और अहमदाबाद में भारतीय उद्यमियों ने मिलें स्थापित कीं, जो स्वदेशी भावना का प्रारंभिक रूप था।
उदाहरण: कावासजी नानाभाई दावर ने 1854 में पहली कपड़ा मिल शुरू की। कृषि और हस्तशिल्प का ह्रास: हस्तशिल्प उद्योग (जैसे ढाका का मलमल) के पतन ने कारीगरों को बेरोजगार किया, जिससे कुछ क्षेत्रों में मजदूरों की उपलब्धता बढ़ी। कृषि का व्यापारीकरण (नील, कपास, जूट) ने आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चा माल प्रदान किया, लेकिन यह ब्रिटिश हितों को प्राथमिकता देता था। बुनियादी ढांचे का विकास: रेलवे (1853 से) और बंदरगाहों (बॉम्बे, कलकत्ता) ने कच्चे माल और तैयार माल के परिवहन को सुगम बनाया। हालांकि, यह बुनियादी ढांचा मुख्य रूप से निर्यात और ब्रिटिश व्यापार के लिए था, न कि स्थानीय औद्योगिक विकास के लिए।
आधुनिक उद्योगों के प्रभाव आर्थिक प्रभाव: सीमित औद्योगीकरण: 1850 के दशक में भारत में औद्योगीकरण प्रारंभिक चरण में था और मुख्य रूप से सूती कपड़ा और जूट तक सीमित था। ब्रिटिश प्रभुत्व: जूट और चाय जैसे उद्योगों में ब्रिटिश पूंजी और नियंत्रण हावी था, जबकि सूती कपड़ा उद्योग में भारतीय उद्यमियों की भूमिका थी। धन का निष्कासन: मशीनरी और तकनीक के आयात ने भारत से धन के बहिर्गमन को बढ़ाया।
सामाजिक प्रभाव: शहरीकरण: बॉम्बे, कलकत्ता, और अहमदाबाद जैसे शहर उद्योगों के कारण विकसित हुए। बेरोजगार कारीगर और ग्रामीण मजदूर शहरों में पलायन करने लगे। मजदूर वर्ग का उदय: मिलों और बागानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति खराब थी, जिसमें कम वेतन और असुरक्षित कार्य परिस्थितियां शामिल थीं। सामाजिक असमानता: उद्योगों का लाभ मुख्य रूप से ब्रिटिश और कुछ भारतीय पूंजीपतियों को हुआ, जबकि मजदूर वर्ग शोषित रहा। राष्ट्रीय चेतना: भारतीय उद्यमियों द्वारा स्थापित मिलों ने स्वदेशी भावना को बढ़ावा दिया। यह बाद में स्वदेशी आंदोलन (1905) का आधार बना।
दादाभाई नौरोजी और रमेश चंद्र दत्त जैसे राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक नीतियों की आलोचना की, जो औद्योगीकरण को रोक रही थीं।
850 के संदर्भ में विशेष बिंदु 1857 का विद्रोह: यह विद्रोह आधुनिक उद्योगों के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। विद्रोह के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने कुछ औद्योगिक गतिविधियों को अनुमति दी, लेकिन यह नियंत्रित था।
कपास की मांग: 1850 के दशक में वैश्विक कपास की मांग (विशेष रूप से अमेरिकी गृहयुद्ध से पहले) ने सूती कपड़ा उद्योग को प्रोत्साहन दिया।
रेलवे का प्रभाव: रेलवे ने उद्योगों के लिए कच्चे माल और तैयार माल के परिवहन को आसान बनाया, लेकिन इसका लाभ मुख्य रूप से ब्रिटिश व्यापारियों को हुआ।
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