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Decline of Indian Handicraft Industry
jp Singh 2025-05-28 13:52:29
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भरतीय हस्तशिल्प उधोग का ह्रास

भरतीय हस्तशिल्प उधोग का ह्रास
भारतीय हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास (Decline of Indian Handicraft Industry) ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, विशेष रूप से 19वीं सदी में, एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन था। 1850 के आसपास यह ह्रास अपने चरम पर था, जिसने भारत की पारंपरिक अर्थव्यवस्था को गहरा प्रभावित किया। यह प्रक्रिया आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, अकाल, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, और धन का निष्कासन—से निकटता से जुड़ी हुई है।
भारतीय हस्तशिल्प उद्योग का अवलोकन
प्री-औपनिवेशिक स्थिति: 18वीं सदी से पहले, भारत का हस्तशिल्प उद्योग, विशेष रूप से सूती कपड़ा, रेशम, और अन्य हस्तशिल्प (जैसे धातु कार्य, मिट्टी के बर्तन, और आभूषण), विश्व प्रसिद्ध था। ढाका का मलमल, बनारस का रेशम, और सूरत का कपड़ा अंतरराष्ट्रीय बाजारों में मांग में था।
आर्थिक महत्व: हस्तशिल्प उद्योग ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था का आधार था, जो लाखों कारीगरों को रोजगार प्रदान करता था और भारत को वैश्विक व्यापार में अग्रणी बनाता था।
हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास के कारण (1850 के संदर्भ में) ब्रिटिश मशीन-निर्मित माल का आयात
औद्योगिक क्रांति का प्रभाव: ब्रिटेन में 18वीं सदी के अंत में औद्योगिक क्रांति ने मशीन-निर्मित कपड़ों (विशेष रूप से सूती कपड़ा) का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू किया। ये कपड़े सस्ते और तेजी से उत्पादित होते थे।
आयात नीतियां: ब्रिटिश सरकार ने भारत में मशीन-निर्मित कपड़ों पर कम या कोई आयात शुल्क नहीं लगाया, जबकि भारतीय हस्तशिल्प पर उच्च कर लगाए गए।
प्रभाव: ढाका, सूरत, और मुरादाबाद जैसे हस्तशिल्प केंद्रों में उत्पादित कपड़े ब्रिटिश माल के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके। उदाहरण के लिए, ढाका का मलमल उद्योग 19वीं सदी के मध्य तक लगभग समाप्त हो गया। कच्चे माल का निर्यात: भारत से कच्चा कपास, रेशम, और अन्य कच्चे माल को सस्ते दामों पर ब्रिटेन निर्यात किया गया। 1850 के संदर्भ में: 1850 के दशक में, कपास का निर्यात बढ़ा, खासकर अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-65) से पहले, क्योंकि ब्रिटेन की मिलों को कच्चे माल की आवश्यकता थी। प्रभाव: भारतीय कारीगरों को कच्चा माल महंगा या अनुपलब्ध हुआ, जिससे उनका उत्पादन प्रभावित हुआ। औपनिवेशिक नीतियों का प्रभाव
कर और शुल्क: ब्रिटिश प्रशासन ने भारतीय हस्तशिल्प पर उच्च कर लगाए, जबकि ब्रिटिश माल को कर-मुक्त या कम कर के साथ आयात किया गया। रेलवे का उपयोग: 1853 में शुरू हुए रेलवे ने ब्रिटिश माल को भारत के आंतरिक हिस्सों तक पहुंचाने में मदद की, जिसने स्थानीय हस्तशिल्प की मांग को और कम किया। बाजार का नुकसान: भारतीय हस्तशिल्प पहले यूरोप, मध्य पूर्व, और दक्षिण-पूर्व एशिया में निर्यात किए जाते थे, लेकिन ब्रिटिश नीतियों ने इन बाजारों को भी ब्रिटिश माल के लिए खोल दिया।
पारंपरिक संरचनाओं का विघटन: जाति-आधारित कारीगरी: हस्तशिल्प उद्योग जाति-आधारित था, जिसमें बुनकर, धातुकार, और अन्य कारीगर विशेष समुदायों से आते थे। औपनिवेशिक नीतियों ने इन समुदायों की सामाजिक-आर्थिक संरचना को तोड़ा। संरक्षण का अभाव: मुगल और अन्य भारतीय शासकों द्वारा हस्तशिल्प को संरक्षण दिया जाता था, जो ब्रिटिश शासन में समाप्त हो गया।
कृषि पर निर्भरता: हस्तशिल्प के ह्रास के कारण कारीगरों को मजबूरी में कृषि पर निर्भर होना पड़ा। हालांकि, कृषि का व्यापारीकरण और भारी भू-राजस्व ने उनकी स्थिति को और खराब किया। प्रभाव: ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी और गरीबी बढ़ी, जिसने अकालों (जैसे 1860-61, 1866) को और गंभीर बनाया।
स्तशिल्प उद्योग के ह्रास के प्रभाव आर्थिक प्रभाव: बेरोजगारी: लाखों बुनकर, कारीगर, और अन्य हस्तशिल्पी बेरोजगार हो गए। उदाहरण के लिए, ढाका, जो कभी विश्व प्रसिद्ध मलमल का केंद्र था, 1850 तक एक उजड़ा हुआ शहर बन गया। गरीबी और कर्ज: कारीगरों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ा, जिसने उन्हें कर्ज के चक्र में फंसाया। धन का निष्कासन: हस्तशिल्प उद्योग के पतन ने भारत की निर्यात आय को कम किया, जिससे धन का निष्कासन और बढ़ा।
सामाजिक प्रभाव: कारीगर समुदायों का पतन: बुनकर और अन्य कारीगर समुदाय अपनी सामाजिक पहचान और आर्थिक स्थिति खो बैठे। शहरीकरण और पलायन: कई कारीगर गांवों या छोटे शहरों से बड़े शहरों (जैसे कलकत्ता, बॉम्बे) में पलायन करने को मजबूर हुए, जहां वे मजदूरी करने लगे। सामाजिक अशांति: आर्थिक संकट ने असंतोष को जन्म दिया, जो 1857 के विद्रोह और बाद के राष्ट्रीय आंदोलनों में दिखाई दिया।
सांस्कृतिक प्रभाव: पारंपरिक कला और शिल्प, जैसे मलमल बुनाई और जटिल धातु कार्य, लगभग विलुप्त हो गए। भारतीय हस्तशिल्प की वैश्विक प्रतिष्ठा कम हुई, क्योंकि ब्रिटिश माल ने बाजार पर कब्जा कर लिया। 1850 के संदर्भ में विशेष बिंदु 1857 का विद्रोह: हस्तशिल्प उद्योग का ह्रास 1857 के विद्रोह का एक अप्रत्यक्ष कारण था। बुनकरों और कारीगरों की बेरोजगारी ने सामाजिक असंतोष को बढ़ाया, खासकर उत्तर भारत में।
रेलवे की शुरुआत: 1853 में रेलवे की शुरुआत ने ब्रिटिश माल को भारत के ग्रामीण बाजारों तक पहुंचाया, जिसने हस्तशिल्प की मांग को और कम किया। नील और कपास का दबाव: 1850 के दशक में नील और कपास जैसे नकदी फसलों की खेती ने कारीगरों को कृषि की ओर धकेला, लेकिन भारी कर और कर्ज ने उनकी स्थिति को और बदतर बनाया।
राष्ट्रवादी आलोचना दादाभाई नौरोजी और रमेश चंद्र दत्त: इन नेताओं ने हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास को औपनिवेशिक शोषण का हिस्सा बताया। नौरोजी ने इसे धन के निष्कासन का एक रूप माना, क्योंकि भारत की औद्योगिक क्षमता को नष्ट किया गया।
स्वदेशी आंदोलन: 20वीं सदी की शुरुआत में, हस्तशिल्प उद्योग के पुनरुद्धार के लिए स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें खादी और स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा दिया गया।
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