Famines around 1850: detailed information
jp Singh
2025-05-28 13:47:14
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1850 के आसपास के अकाल: विस्तृत जानकारी
1850 के आसपास के अकाल: विस्तृत जानकारी
1860-61 का ऊपरी भारत अकाल: क्षेत्र प्रभावित: दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजपूताना (आधुनिक राजस्थान), और अवध के कुछ हिस्से। कारण: लगातार दो वर्षों तक मॉनसून की विफलता, जिसके कारण फसलें पूरी तरह नष्ट हुईं। ब्रिटिश नीतियों ने नकदी फसलों (जैसे कपास और नील) को प्राथमिकता दी, जिससे खाद्यान्न की उपलब्धता कम हुई। भू-राजस्व की भारी मांग ने किसानों को कर्ज लेने के लिए मजबूर किया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और कमजोर हुई।
रभाव: अनुमानित 20 लाख लोगों की मृत्यु, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। भुखमरी और बीमारियों (जैसे हैजा) ने स्थिति को और बदतर बनाया। ब्रिटिश प्रशासन ने कुछ राहत शिविर खोले, लेकिन ये अपर्याप्त थे और केवल चुनिंदा क्षेत्रों तक सीमित थे। विशेष टिप्पणी: इस अकाल ने ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष को बढ़ाया, जो 1857 के विद्रोह के बाद पहले से ही तनावपूर्ण स्थिति में था। 1866 का उड़ीसा अकाल: क्षेत्र प्रभावित: उड़ीसा (आधुनिक ओडिशा), बंगाल का कुछ हिस्सा, और मद्रास प्रेसीडेंसी।
कारण: मॉनसून की विफलता और चक्रवातों ने धान की फसल को नष्ट किया, जो उड़ीसा की प्रमुख फसल थी। ब्रिटिश प्रशासन ने अनाज निर्यात को रोका नहीं, जिससे स्थानीय खाद्य भंडार खाली हो गए। खराब परिवहन और संचार सुविधाओं ने राहत कार्यों को बाधित किया। प्रभाव: लगभग 10-15 लाख लोग मरे, जो उड़ीसा की एक-तिहाई आबादी थी। भुखमरी से ग्रस्त लोग भोजन की तलाश में जंगलों में भटकने लगे, जहां वे जंगली जड़ों और पत्तियों पर निर्भर रहे। इस अकाल ने ब्रिटिश प्रशासन की अक्षमता को उजागर किया, जिसके कारण 1880 में अकाल आयोग (Famine Commission) का गठन हुआ। महत्व: इस अकाल ने औपनिवेशिक नीतियों की विफलता को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया। ब्रिटिश भारत में अकालों की दीर्घकालिक वजहें
कृषि का व्यापारीकरण: 1850 के आसपास, ब्रिटिश नीतियों ने नील, कपास, जूट, और अफीम जैसी नकदी फसलों को बढ़ावा दिया। इससे पारंपरिक खाद्यान्न फसलों (जैसे चावल, गेहूं, और बाजरा) की खेती कम हुई। किसानों को नकद कर (cash taxes) चुकाने के लिए नकदी फसलों पर निर्भर होना पड़ा, जिसने उनकी आत्मनिर्भरता को नष्ट किया। नकदी फसलों की कीमतें वैश्विक बाजारों पर निर्भर थीं, और कीमतों में उतार-चढ़ाव ने किसानों को आर्थिक संकट में डाला।
भू-राजस्व प्रणालियां: जमींदारी व्यवस्था (बंगाल, बिहार, उड़ीसा): जमींदारों को भारी राजस्व वसूलने की जिम्मेदारी दी गई, जिसे उन्होंने किसानों से कठोरता से वसूला। रैयतवाड़ी व्यवस्था (मद्रास, बॉम्बे): सीधे किसानों पर उच्च कर लगाए गए, जिससे उनकी बचत और निवेश की क्षमता कम हुई। इन नीतियों ने किसानों को साहूकारों के चंगुल में फंसाया, जो उच्च ब्याज दरों पर कर्ज देते थे। अनाज निर्यात और भंडारण की कमी: ब्रिटिश प्रशासन ने अकाल के दौरान भी अनाज निर्यात को प्राथमिकता दी। उदाहरण के लिए, 1876-78 के अकाल में, भारत से गेहूं और चावल का निर्यात ब्रिटेन और अन्य देशों में जारी रहा।
स्थानीय स्तर पर अनाज भंडारण की कोई व्यवस्था नहीं थी, जिससे सूखे के दौरान खाद्य संकट बढ़ गया। परिवहन और संचार की कमी: हालांकि रेलवे का विकास शुरू हो चुका था, लेकिन इसका उपयोग मुख्य रूप से नकदी फसलों और कच्चे माल को बंदरगाहों तक ले जाने के लिए किया गया, न कि राहत सामग्री के वितरण के लिए। ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों और संचार की कमी ने राहत कार्यों को और कठिन बनाया। सामाजिक और आर्थिक प्रभाव
जनसांख्यिकीय प्रभाव: अकालों ने लाखों लोगों की जान ली और कई गांव पूरी तरह उजड़ गए। भुखमरी के साथ-साथ हैजा, मलेरिया, और स्मॉलपॉक्स जैसी बीमारियों ने मृत्यु दर को बढ़ाया। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पतन: किसानों की जमीनें साहूकारों और जमींदारों के पास चली गईं, जिससे भूमिहीनता बढ़ी। ग्रामीण हस्तशिल्प और स्थानीय उद्योग भी प्रभावित हुए, क्योंकि लोग भोजन के लिए संघर्ष कर रहे थे। सामाजिक असंतोष: अकालों ने ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष को बढ़ाया। उदाहरण के लिए, 1866 के उड़ीसा अकाल और 1876-78 के महान अकाल ने राष्ट्रीय जागरूकता को प्रेरित किया। भारतीय नेताओं, जैसे दादाभाई नौरोजी, ने अकालों को औपनिवेशिक शोषण का परिणाम बताया और "धन के निष्कासन" (Drain of Wealth) सिद्धांत को प्रस्तुत किया।
दी फसलों पर जोर ने खाद्यान्न उत्पादन को कम किया, जिससे भविष्य में भी अकाल का खतरा बना रहा। ग्रामीण समुदायों की आत्मनिर्भरता खत्म हो गई, और वे वैश्विक बाजारों पर निर्भर हो गए। ब्रिटिश नीतियों की आलोचना उपेक्षा और उदासीनता: ब्रिटिश प्रशासन ने अकालों को प्राकृतिक आपदा मानकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। उदाहरण के लिए, लॉर्ड लिटन (1876-80 के वायसराय) ने 1876-78 के अकाल के दौरान अनाज निर्यात को रोका नहीं। राहत कार्यों की अक्षमता: राहत शिविरों में भोजन और चिकित्सा सुविधाएं अपर्याप्त थीं। कई शिविरों में मजदूरी के बदले भोजन (food-for-work) की नीति लागू की गई, जो कमजोर लोगों के लिए बेकार थी। आर्थिक शोषण: अकालों के दौरान भी कर वसूली जारी रही, और किसानों को राहत के बजाय कर्ज लेने के लिए मजबूर किया गया।
अकाल आयोग और सुधार 1880 का प्रथम अकाल आयोग: 1866 के उड़ीसा अकाल और 1876-78 के महान अकाल के बाद ब्रिटिश सरकार ने पहला अकाल आयोग गठित किया। इसने अकाल कोड (Famine Codes) की सिफारिश की, जो 1883 में लागू हुए। इन कोड्स में राहत कार्यों, अनाज भंडारण, और कर माफी के दिशानिर्देश शामिल थे। हालांकि, ये कोड अक्सर देर से लागू हुए और पूरी तरह प्रभावी नहीं थे।
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