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commercialization of agriculture
jp Singh 2025-05-28 13:44:17
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कृषि का व्यपारीकरण 1850

कृषि का व्यपारीकरण 1850
1850 के आसपास भारत में कृषि का व्यापारीकरण (commercialization of agriculture) एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन था, जो मुख्य रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के प्रभाव में हुआ। यह वह दौर था जब भारतीय कृषि, जो पहले मुख्य रूप से आत्मनिर्भर और स्थानीय आवश्यकताओं पर आधारित थी, को वैश्विक बाजारों और औपनिवेशिक हितों के लिए पुनर्गठित किया गया।
षि व्यापारीकरण के प्रमुख पहलू (1850 के संदर्भ में): नकदी फसलों का प्रसार: ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों ने नकदी फसलों (cash crops) जैसे नील, अफीम, कपास, जूट और चाय की खेती को बढ़ावा दिया। ये फसलें स्थानीय खपत के बजाय निर्यात के लिए उगाई जाती थीं, विशेष रूप से ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय बाजारों के लिए। उदाहरण: नील की खेती बंगाल और बिहार में बड़े पैमाने पर की गई, जिसका उपयोग कपड़ा उद्योग में रंगाई के लिए किया जाता था। ब्रिटिश नीतियों का प्रभाव: जमींदारी और रैयतवाड़ी व्यवस्था: भू-राजस्व प्रणालियों ने किसानों पर भारी कर का बोझ डाला, जिसके कारण उन्हें नकदी फसलों की खेती करनी पड़ी ताकि कर चुका सकें। बाजार एकीकरण: रेलवे और सड़क नेटवर्क के विकास ने कृषि उत्पादों को बंदरगाहों तक पहुंचाना आसान बनाया, जिससे निर्यात बढ़ा।
जबूरी आधारित खेती: कई क्षेत्रों में किसानों को नील और अफीम जैसी फसलों की खेती के लिए मजबूर किया गया, जिससे उनकी आत्मनिर्भरता कम हुई। आर्थिक प्रभाव: आय असमानता: कुछ किसानों और मध्यस्थों को लाभ हुआ, लेकिन अधिकांश छोटे किसान कर्ज और गरीबी के चक्र में फंस गए। कृषि विविधता में कमी: पारंपरिक खाद्यान्न फसलों के बजाय नकदी फसलों पर ध्यान देने से खाद्य सुरक्षा प्रभावित हुई। कर्ज और साहूकारों की भूमिका: नकदी फसलों की खेती के लिए पूंजी की आवश्यकता ने साहूकारों पर निर्भरता बढ़ाई, जिससे किसान कर्ज में डूब गए।
सामाजिक प्रभाव: पारंपरिक ग्रामीण अर्थव्यवस्था कमजोर हुई, क्योंकि आत्मनिर्भर खेती का स्थान बाजार-उन्मुख खेती ने ले लिया। नील विद्रोह (1859-60) जैसे आंदोलन इस दौर की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ किसानों के असंतोष का प्रतीक थे। उदाहरण: नील की खेती: बंगाल में नील की खेती ब्रिटिश व्यापारियों के लिए लाभकारी थी, लेकिन किसानों को कम कीमत और कठोर शर्तों का सामना करना पड़ा। कपास: अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-65) के दौरान भारत से कपास निर्यात में तेजी आई, क्योंकि ब्रिटेन को वैकल्पिक स्रोत की जरूरत थी।
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