Permanent settlement or zamindari system
jp Singh
2025-05-28 13:38:15
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स्थाई बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा
स्थाई बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा
स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement), जिसे जमींदारी प्रथा के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा भारत में लागू की गई एक भू-राजस्व व्यवस्था थी। इसे 1793 में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने बंगाल, बिहार, और उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) में शुरू किया था। यह प्रथा बाद में उत्तर भारत के कुछ हिस्सों, जैसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश, में भी लागू की गई। इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के लिए स्थिर और निश्चित राजस्व सुनिश्चित करना था, लेकिन इसने जमींदारों को अत्यधिक शक्तिशाली बनाया और किसानों का शोषण बढ़ाया।
स्थायी बंदोबस्त की पृष्ठभूमि
औपनिवेशिक संदर्भ: 1757 में प्लासी के युद्ध और 1764 में बक्सर के युद्ध के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर नियंत्रण हासिल कर लिया। 1765 में, कंपनी को बंगाल, बिहार, और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व संग्रह का अधिकार) मिली, जिसके बाद भू-राजस्व व्यवस्था को व्यवस्थित करने की आवश्यकता पड़ी। इससे पहले, मुगल काल में इजारा प्रथा (Revenue Farming) और अन्य अस्थायी व्यवस्थाएँ थीं, जो अनिश्चित और अस्थिर थीं। ब्रिटिश उद्देश्य: स्थिर और नियमित राजस्व सुनिश्चित करना। प्रशासन को सरल बनाना और स्थानीय जमींदारों को ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार बनाना। ब्रिटिश सामंती मॉडल की तर्ज पर भारत में एक जमींदारी वर्ग बनाना, जो ब्रिटिश हितों की रक्षा करे।
स्थायी बंदोबस्त की विशेषताएँ स्थायी राजस्व निश्चितीकरण: जमींदारों को जमीन का मालिकाना हक दे दिया गया, और उनके साथ एक निश्चित राशि के राजस्व (लगान) का समझौता किया गया, जो कभी नहीं बदला जाना था। यह राशि हर साल ब्रिटिश सरकार को दी जानी थी, चाहे फसल अच्छी हो या खराब। जमींदारों की भूमिका: जमींदार अब केवल कर संग्राहक नहीं, बल्कि जमीन के मालिक बन गए। उन्हें किसानों से लगान वसूलने और सरकार को देने का अधिकार था। जमींदारों को लगान का 10% हिस्सा कमीशन के रूप में मिलता था। किसानों की स्थिति: किसान (रैयत) अब जमींदारों के किरायेदार बन गए। उन्हें जमींदारों को लगान देना पड़ता था, जो अक्सर बहुत अधिक होता था।
किसानों को जमीन पर कोई मालिकाना हक नहीं था, और उन्हें बेदखल करने का अधिकार जमींदारों के पास था। कानूनी ढांचा: 1793 के रेगुलेशन के तहत, जमींदारों को लगान समय पर न देने पर उनकी जमीन नीलाम करने का प्रावधान था (सनसेट क्लॉज)। यह व्यवस्था बंगाल, बिहार, और उड़ीसा में लागू थी, लेकिन बाद में उत्तर प्रदेश और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में भी फैली।
स्थायी बंदोबस्त के प्रभाव
1. जमींदारों पर प्रभाव: शक्ति में वृद्धि: जमींदार एक शक्तिशाली वर्ग बन गए, जिन्हें ब्रिटिश सरकार का समर्थन प्राप्त था। वे सामंती स्वामी की तरह व्यवहार करने लगे। आर्थिक लाभ: जमींदारों को लगान का 10% कमीशन मिलता था, और कई ने मनमाने ढंग से किसानों से अतिरिक्त कर वसूले। नए जमींदारों का उदय: कई पुराने जमींदार लगान न चुका पाने के कारण अपनी जमीन खो बैठे, और उनकी जगह नीलामी में व्यापारियों और साहूकारों ने जमीनें खरीदीं, जिससे एक नया जमींदारी वर्ग उभरा। विलासिता और कुप्रबंधन: कई जमींदारों ने अपनी आय को विलासिता पर खर्च किया और कृषि विकास में निवेश नहीं किया।
2. किसानों पर प्रभाव: शोषण और गरीबी: जमींदारों ने किसानों से भारी लगान और अवैध कर (जैसे नजराना, बेगारी) वसूले, जिससे किसान कर्ज के जाल में फँस गए। बेदखली का डर: किसानों को जमीन से बेदखल करने का अधिकार जमींदारों के पास था, जिससे उनकी स्थिति अनिश्चित हो गई। कृषि में ठहराव: भारी लगान के कारण किसानों के पास कृषि सुधार या निवेश के लिए संसाधन नहीं बचे, जिससे कृषि उत्पादकता कम हुई। आंदोलनों का उदय: स्थायी बंदोबस्त ने किसानों में असंतोष को जन्म दिया, जिसके परिणामस्वरूप नील आंदोलन (1859-60), पाबना विद्रोह (1873-76), मोपला विद्रोह (1921), और तेभागा आंदोलन (1946-47) जैसे आंदोलन शुरू हुए।
3. ब्रिटिश सरकार पर प्रभाव: राजस्व में स्थिरता: शुरू में ब्रिटिश सरकार को निश्चित राजस्व मिला, लेकिन लंबे समय में यह व्यवस्था अप्रभावी साबित हुई, क्योंकि मुद्रास्फीति और कृषि उत्पादन में कमी के कारण राजस्व की वास्तविक कीमत कम हो गई। प्रशासनिक समस्याएँ: जमींदारों का मनमाना व्यवहार और किसानों का असंतोष ब्रिटिश प्रशासन के लिए सिरदर्द बन गया। सामाजिक अशांति: जमींदारों और किसानों के बीच बढ़ते तनाव ने कई विद्रोहों को जन्म दिया।
4. सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: सामंती ढांचे का सुदृढ़ीकरण: जमींदारी प्रथा ने सामंती व्यवस्था को मजबूत किया, जिसने सामाजिक असमानता को बढ़ाया। कर्ज और साहूकारी: जमींदारों और साहूकारों ने मिलकर किसानों को कर्ज के जाल में फँसाया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हुई। कृषि अवनति: स्थायी बंदोबस्त ने कृषि में नवाचार और निवेश को हतोत्साहित किया, क्योंकि जमींदारों और किसानों दोनों के पास संसाधनों की कमी थी। स्थायी बंदोबस्त की कमियाँ किसानों का शोषण: जमींदारों को असीमित शक्ति मिली, जिसका उन्होंने दुरुपयोग किया। कृषि विकास में कमी: जमींदारों ने कृषि सुधारों में निवेश नहीं किया, जिससे उत्पादकता घटी।
लगान की कठोरता: निश्चित लगान की राशि किसानों के लिए बोझ बन गई, खासकर अकाल या खराब फसल के समय। जमीनों का हस्तांतरण: कई पुराने जमींदार अपनी जमीनें खो बैठे, और नया धनाढ्य वर्ग (साहूकार, व्यापारी) जमींदार बन गया। सामाजिक असंतोष: जमींदारों और किसानों के बीच तनाव ने सामाजिक अशांति और विद्रोहों को जन्म दिया। स्थायी बंदोबस्त और अन्य व्यवस्थाओं से तुलना रैयतवारी प्रथा (मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में): रैयतवारी में किसान सीधे सरकार को लगान देते थे, और जमींदारों की मध्यस्थता नहीं थी। यह अधिक लचीली थी, क्योंकि लगान समय-समय पर संशोधित हो सकता था।
लेकिन इसमें भी भारी कर और साहूकारों का शोषण था, जैसे दक्कन दंगे (1875) में देखा गया। महालवारी प्रथा (उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में): गाँव या समूह (महाल) के आधार पर राजस्व तय किया जाता था। यह स्थायी बंदोबस्त से अधिक सामुदायिक थी, लेकिन जमींदारों की भूमिका बनी रही। स्थायी बंदोबस्त की अनन्यता: यह एकमात्र व्यवस्था थी जिसमें राजस्व स्थायी रूप से निश्चित था, जिसने जमींदारों को मालिकाना हक दिया। स्थायी बंदोबस्त का ऐतिहासिक महत्व किसान आंदोलनों का आधार: स्थायी बंदोबस्त ने कई किसान आंदोलनों को जन्म दिया, जैसे
नील आंदोलन (1859-60): नील बागान मालिकों के खिलाफ।
पाबना विद्रोह (1873-76): जमींदारों के खिलाफ।
मोपला विद्रोह (1921): जमींदारों और ब्रिटिश के खिलाफ।
तेभागा आंदोलन (1946-47): बटाईदारों की फसल हिस्सेदारी की माँग।
तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह (1946-51): निज़ाम और जमींदारों के खिलाफ।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: जमींदारी शोषण ने किसानों में ब्रिटिश विरोधी भावना को बढ़ाया, जो स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बना।
गांधीवादी आंदोलनों, जैसे चंपारण सत्याग्रह (1917) और अवध किसान सभा (1918-22), में जमींदारी प्रथा का विरोध प्रमुख था।
स्वतंत्र भारत में सुधार: स्वतंत्रता के बाद, जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम (1950 के दशक) पारित किए गए, जो स्थायी बंदोबस्त के दीर्घकालिक प्रभावों का परिणाम था।
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