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Tebhaga Movement
jp Singh 2025-05-28 13:33:38
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तेभागा आंदोलन (1946-47)

तेभागा आंदोलन (1946-47)
तेभागा आंदोलन (Tebhaga Movement) 1946-47 में बंगाल (वर्तमान पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश) में किसानों द्वारा शुरू किया गया एक महत्वपूर्ण आंदोलन था, जिसका उद्देश्य जमींदारी प्रथा के तहत शोषण को समाप्त करना और फसल के उचित हिस्से की माँग करना था। यह आंदोलन बटाईदारों (Sharecroppers) द्वारा चलाया गया, जो जमींदारों को अपनी उपज का आधा या अधिक हिस्सा देने के लिए मजबूर थे। तेभागा आंदोलन कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित था और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम चरण में एक महत्वपूर्ण किसान आंदोलन था।
मुख्य बिंदु: स्थान: बंगाल, विशेष रूप से दीनाजपुर, जलपाईगुड़ी, रंगपुर, मालदा, मिदनापुर, और 24 परगना जिले (उत्तरी और पूर्वी बंगाल)। समय: 1946-47, चरम पर 1946 के अंत और 1947 की शुरुआत में। नेतृत्व: अखिल भारतीय किसान सभा (All India Kisan Sabha), जो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) से संबद्ध थी, ने आंदोलन का नेतृत्व किया। प्रमुख नेता: कमल सरकार, बिमल दासगुप्ता, सुनील सेन, और स्थानीय स्तर पर आदिवासी और बटाईदार नेता।
पृष्ठभूमि: बंगाल में जमींदारी प्रथा के तहत बटाईदारों (बर्गादारों) को अपनी फसल का 50% या अधिक जमींदारों को देना पड़ता था, जिसे अधियारी प्रथा कहा जाता था। बटाईदारों को अपनी मेहनत के लिए बहुत कम हिस्सा मिलता था, और जमींदार अक्सर अवैध कर और बेगारी थोपते थे। 1943 के बंगाल अकाल ने किसानों की स्थिति को और खराब कर दिया, जिससे आर्थिक और सामाजिक असंतोष बढ़ा। स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम चरण में कम्युनिस्ट पार्टी और किसान सभा ने बटाईदारों को संगठित किया। तेभागा का अर्थ था "तीन हिस्सों में," यानी बटाईदारों की माँग थी कि फसल का दो-तिहाई हिस्सा उन्हें मिले और केवल एक-तिहाई जमींदार को।
कारण: आर्थिक शोषण: बटाईदारों को फसल का केवल आधा या उससे कम हिस्सा मिलता था, जबकि जमींदारों को बीज, खेती के उपकरण, और अन्य लागतों में कोई योगदान नहीं करना पड़ता था। जमींदारों द्वारा अवैध कर, जैसे नजराना और बेगारी, ने किसानों को और कर्ज में डुबो दिया। 1943 का बंगाल अकाल: अकाल ने लाखों लोगों की जान ली और किसानों को भुखमरी के कगार पर ला दिया। जमींदारों और साहूकारों ने इस संकट का फायदा उठाकर शोषण बढ़ाया। राजनीतिक जागरूकता: कम्युनिस्ट पार्टी और किसान सभा ने बटाईदारों को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया और संगठित प्रतिरोध की रणनीति बनाई। स्वतंत्रता संग्राम और ब्रिटिश विरोधी भावना ने किसानों को प्रेरित किया।
मींदारी प्रथा का दमन: जमींदारों ने बटाईदारों को बेदखल करने, उनकी फसलें जब्त करने, और हिंसक दमन का सहारा लिया, जिसने आंदोलन को और भड़काया। घटनाक्रम: शुरुआत (1946): 1946 में अखिल भारतीय किसान सभा ने तेभागा की माँग को औपचारिक रूप दिया, जिसमें बटाईदारों को फसल का दो-तिहाई हिस्सा और जमींदारों को एक-तिहाई हिस्सा देने की माँग की गई। आंदोलन की शुरुआत उत्तरी बंगाल के दीनाजपुर और जलपाईगुड़ी में हुई, जहाँ बटाईदारों ने जमींदारों को फसल का आधा हिस्सा देने से इनकार कर दिया।
प्रसार: आंदोलन जल्द ही मालदा, रंगपुर, मिदनापुर, और 24 परगना तक फैल गया। बटाईदारों ने सामूहिक रूप से फसल काटकर अपने घरों में रखी और जमींदारों को देने से मना कर दिया। कई स्थानों पर बटाईदारों ने जमींदारों के गोदामों पर हमले किए और फसल को वापस लिया। हिंसक टकराव: जमींदारों और उनके समर्थकों ने बटाईदारों पर हमले किए, जिसके जवाब में बटाईदारों ने भी हिंसक प्रतिरोध किया। ब्रिटिश पुलिस और जमींदारों ने मिलकर आंदोलन को दबाने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप कई स्थानों पर खूनी झड़पें हुईं। काकरबेरी हत्याकांड (1947): दीनाजपुर में पुलिस ने बटाईदारों पर गोली चलाई, जिसमें कई लोग मारे गए।
दोलन में महिलाओं और आदिवासी समुदायों (जैसे संथाल और उराँव) ने सक्रिय भूमिका निभाई। महिलाएँ प्रदर्शनों और सभाओं में शामिल हुईं। परिणाम: सफलताएँ: तेभागा आंदोलन ने बटाईदारों की स्थिति को उजागर किया और जमींदारी प्रथा के खिलाफ जनमत तैयार किया। 1947 में बंगाल बर्गादार अस्थायी नियमन अधिनियम पारित हुआ, जिसने बटाईदारों को फसल का दो-तिहाई हिस्सा देने का प्रावधान किया। आंदोलन ने स्वतंत्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन (1950 के दशक में) की नींव रखी।
दमन: ब्रिटिश सरकार और जमींदारों ने आंदोलन को बलपूर्वक दबाया। सैकड़ों बटाईदार मारे गए, और कई को गिरफ्तार किया गया। कम्युनिस्ट नेताओं पर प्रतिबंध लगाए गए, और आंदोलन 1947 तक कमजोर पड़ गया। दीर्घकालिक प्रभाव: तेभागा आंदोलन ने बंगाल में किसान आंदोलनों को मजबूत किया और कम्युनिस्ट पार्टी को ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाया। इसने स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधारों, जैसे पश्चिम बंगाल भूमि सुधार अधिनियम (1955), को प्रेरित किया। आंदोलन ने हिंदू-मुस्लिम एकता को दर्शाया, क्योंकि दोनों समुदायों के बटाईदारों ने मिलकर हिस्सा लिया।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: तेभागा आंदोलन ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसानों की एकता को मजबूत किया और स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम चरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तुलना (पाइक, फकीर, रंपा, मुंडा, नील, पाबना, दक्कन, अवध, मोपला, कूका, रामोसी, और ताना भगत से): पाइक विद्रोह (1817): सैन्य विद्रोह, ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ, जबकि तेभागा बटाईदारों का आर्थिक आंदोलन था। फकीर विद्रोह (1760-1800): धार्मिक समुदायों द्वारा गुरिल्ला युद्ध, जबकि तेभागा कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित था। रंपा विद्रोह (1879, 1922-24): आदिवासी और गुरिल्ला युद्ध, जबकि तेभागा बटाईदारों का आंदोलन था और कम हिंसक था।
मुंडा विद्रोह (1899-1900): आदिवासी और धार्मिक पुनर्जनन, जबकि तेभागा आर्थिक और कम्युनिस्ट था। नील आंदोलन (1859-60): नील बागान मालिकों के खिलाफ, शांतिपूर्ण, तेभागा से मिलता-जुलता, लेकिन तेभागा में कम्युनिस्ट प्रभाव और हिंसा अधिक थी। पाबना विद्रोह (1873-76): जमींदारों के खिलाफ शांतिपूर्ण, तेभागा से बहुत समान, लेकिन तेभागा में कम्युनिस्ट नेतृत्व और हिंसक टकराव अधिक थे।
दक्कन दंगे (1875): साहूकारों के खिलाफ हिंसक, जबकि तेभागा बटाईदारों और जमींदारों के खिलाफ था। अवध किसान सभा (1918-22): जमींदारों के खिलाफ, गांधीवादी प्रभाव में, जबकि तेभागा कम्युनिस्ट प्रभाव में था। मोपला विद्रोह (1921): जमींदारों और ब्रिटिश के खिलाफ, खिलाफत से प्रेरित, जबकि तेभागा कम्युनिस्ट और आर्थिक था।
कूका आंदोलन (1871-72): धार्मिक सुधार और सशस्त्र विद्रोह, जबकि तेभागा आर्थिक और कम्युनिस्ट था।
रामोसी विद्रोह (1822-29): मराठा गौरव और अकाल से प्रेरित, जबकि तेभागा बटाईदारों का आंदोलन था।
ताना भगत आंदोलन (1914-20): आदिवासी और गांधीवादी, तेभागा से अलग, क्योंकि तेभागा कम्युनिस्ट और बटाईदार-केंद्रित था।
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