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Tana Bhagat Movement
jp Singh 2025-05-28 13:31:44
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ताना भगत आंदोलन

ताना भगत आंदोलन
ताना भगत आंदोलन (Tana Bhagat Movement) 1914 से 1920 के बीच छोटानागपुर क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) में उराँव (ओरांव) आदिवासियों द्वारा शुरू किया गया एक धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन था। यह आंदोलन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और स्थानीय शोषण के खिलाफ था, साथ ही इसमें सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जनन का लक्ष्य भी शामिल था। यह आंदोलन मुंडा विद्रोह (1899-1900) की विरासत से प्रेरित था और बाद में राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम, विशेष रूप से असहयोग आंदोलन, से जुड़ा।
मुख्य बिंदु: स्थान: छोटानागपुर, विशेष रूप से रांची, गुमला, और लोहरदगा (वर्तमान झारखंड)। समय: 1914 से 1920, चरम पर 1914-15 और 1919-20। नेतृत्व: जतरा भगत (जतरा उराँव), जिन्हें "ताना भगत" के नाम से जाना जाता है, इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे। अन्य नेताओं में बालदेव भगत और सिबू भगत शामिल थे। पृष्ठभूमि: ताना भगत आंदोलन उराँव आदिवासियों द्वारा शुरू किया गया, जो छोटानागपुर के मूल निवासी थे और खेती व जंगल पर निर्भर थे। ब्रिटिश शासन की जमींदारी प्रथा और वन अधिनियमों ने आदिवासियों की जमीन और जंगल के अधिकार छीन लिए, जिससे आर्थिक संकट पैदा हुआ। मुंडा विद्रोह (बिरसा मुंडा के नेतृत्व में) ने ताना भगतों को प्रेरित किया, क्योंकि बिरसा ने आदिवासी स्वायत्तता और धार्मिक पुनर्जनन पर जोर दिया था।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान आर्थिक कठिनाइयाँ, जैसे भारी कर और खाद्य की कमी, ने असंतोष को और बढ़ाया। कारण: आर्थिक शोषण: ब्रिटिश राजस्व नीतियों और जमींदारों द्वारा भारी लगान और अवैध कर (जैसे बेगारी) ने उराँव किसानों को परेशान किया। साहूकारों और बाहरी लोगों ("दिकू") द्वारा कर्ज का शोषण, जिससे आदिवासियों की जमीनें छीनी जा रही थीं। जंगल और जमीन पर प्रतिबंध: ब्रिटिश वन अधिनियमों ने आदिवासियों को जंगल संसाधनों (लकड़ी, फल, शिकार) से वंचित कर दिया, जो उनकी आजीविका का आधार थे। धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जनन: जतरा भगत ने उराँव समुदाय में धार्मिक सुधारों का आह्वान किया, जिसमें अंधविश्वास, पशु बलि, और शराबखोरी का विरोध शामिल था।
उन्होंने "धरमेश" (उच्चतम ईश्वर) की पूजा पर जोर दिया और एक शुद्ध, एकेश्वरवादी विश्वास को बढ़ावा दिया। ब्रिटिश विरोध: ताना भगतों ने ब्रिटिश शासन को "दिकू राज" माना और स्वशासन की माँग की। वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम, विशेष रूप से गांधी के असहयोग आंदोलन, से प्रभावित हुए। घटनाक्रम: शुरुआत (1914): जतरा भगत ने 1914 में गुमला के चिंगरी गाँव में ताना भगत संप्रदाय की स्थापना की। उन्होंने दावा किया कि उन्हें "धरमेश" का दर्शन हुआ, जिसने उन्हें आदिवासियों को एकजुट करने और शुद्ध जीवन जीने का आदेश दिया। ताना भगतों ने सामाजिक सुधार शुरू किए, जैसे शराब और मांस का त्याग, सादगीपूर्ण जीवन, और सामुदायिक प्रार्थना (ताना पूजा)।
ब्रिटिश विरोध: ताना भगतों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहयोग शुरू किया, जिसमें लगान और कर देने से इनकार करना शामिल था। उन्होंने जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ भी विरोध किया, उनकी संपत्ति पर हमले किए, और कुछ मामलों में जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की। असहयोग आंदोलन से जुड़ाव (1919-20): 1919 में ताना भगतों ने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने स्वदेशी कपड़े अपनाए और ब्रिटिश स्कूलों, अदालतों, और प्रशासन का बहिष्कार किया। ताना भगतों ने गांधी के अहिंसक सिद्धांतों को अपनाया, लेकिन कुछ मामलों में हिंसक घटनाएँ भी हुईं, जैसे जमींदारों के खिलाफ हमले।
प्रमुख घटनाएँ: 1914-15 में ताना भगतों ने जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए आंदोलन तेज किया। 1920 में रांची और गुमला में ताना भगतों ने बड़े पैमाने पर सभाएँ आयोजित कीं, जिसमें उन्होंने "स्वराज" और "धरमेश राज" की माँग की। परिणाम: दमन: ब्रिटिश सरकार ने ताना भगत आंदोलन को दबाने के लिए सैन्य बल और पुलिस का उपयोग किया। जतरा भगत और कई अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। सैकड़ों ताना भगतों को जेल भेजा गया, और कुछ को कठोर दंड दिए गए। जतरा भगत को 1915 में गिरफ्तार किया गया और जेल में उनकी मृत्यु हो गई।
सुधार: आंदोलन के दबाव के कारण ब्रिटिश प्रशासन ने छोटानागपुर में कुछ सुधार किए, जैसे छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (1908) को और मजबूत करना, जिसने आदिवासियों की जमीन को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगाई। ताना भगतों के सामाजिक सुधारों ने उराँव समुदाय में शराबखोरी और अंधविश्वास को कम करने में मदद की। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: ताना भगतों ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत किया। उनकी अहिंसक और स्वदेशी नीतियों ने झारखंड में राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया।
विरासत: ताना भगत आज भी झारखंड में सम्मानित हैं, और उनकी धार्मिक और सामाजिक प्रथाएँ उराँव समुदाय में जीवित हैं। ताना भगत संप्रदाय आज भी एक धार्मिक समुदाय के रूप में मौजूद है, जो गांधीवादी सिद्धांतों और आदिवासी संस्कृति का मिश्रण दर्शाता है।
महत्व: आदिवासी जागृति: ताना भगत आंदोलन ने उराँव समुदाय में सामाजिक, धार्मिक, और राजनीतिक चेतना जगाई। गांधीवादी प्रभाव: यह आंदोलन गांधी के अहिंसक और स्वदेशी सिद्धांतों से प्रभावित था, जिसने इसे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा। सांस्कृतिक पुनर्जनन: ताना भगतों ने आदिवासी संस्कृति को पुनर्जनन किया और बाहरी प्रभावों (जैसे ईसाई मिशनरियों) का विरोध किया। झारखंड आंदोलन का आधार: ताना भगत आंदोलन ने बाद में झारखंड के अलग राज्य की माँग को प्रेरित किया। तुलना (पाइक, फकीर, रंपा, मुंडा, नील, पाबना, दक्कन, अवध, मोपला, कूका, और रामोसी से): पाइक विद्रोह (1817): सैन्य विद्रोह, ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ, जबकि ताना भगत आंदोलन धार्मिक और अहिंसक था।
फकीर विद्रोह (1760-1800): धार्मिक समुदायों द्वारा गुरिल्ला युद्ध, जबकि ताना भगत में अहिंसा और गांधीवादी प्रभाव था। रंपा विद्रोह (1879, 1922-24): आदिवासी और गुरिल्ला युद्ध, जबकि ताना भगत अधिक अहिंसक और धार्मिक था। मुंडा विद्रोह (1899-1900): आदिवासी और धार्मिक पुनर्जनन, ताना भगत से मिलता-जुलता, लेकिन ताना भगत गांधीवादी प्रभाव में था। नील आंदोलन (1859-60): नील बागान मालिकों के खिलाफ, शांतिपूर्ण, जबकि ताना भगत धार्मिक और राष्ट्रीय स्वतंत्रता से प्रेरित था। पाबना विद्रोह (1873-76): जमींदारों के खिलाफ शांतिपूर्ण, ताना भगत से मिलता-जुलता, लेकिन ताना भगत में धार्मिक तत्व अधिक थे।
दक्कन दंगे (1875): साहूकारों के खिलाफ हिंसक, जबकि ताना भगत अधिक अहिंसक और गांधीवादी था। अवध किसान सभा (1918-22): जमींदारों के खिलाफ, गांधीवादी प्रभाव में, ताना भगत से बहुत समान, लेकिन ताना भगत आदिवासी-केंद्रित था। मोपला विद्रोह (1921): जमींदारों और ब्रिटिश के खिलाफ, खिलाफत से प्रेरित, जबकि ताना भगत गांधीवादी और आदिवासी था। कूका आंदोलन (1871-72): धार्मिक सुधार और सशस्त्र विद्रोह, जबकि ताना भगत अहिंसक और आदिवासी-केंद्रित था।
रामोसी विद्रोह (1822-29): मराठा गौरव और अकाल से प्रेरित, जबकि ताना भगत धार्मिक पुनर्जनन और स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित था।
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