Avadh Kisan Sabha Movement (1918–1922)
jp Singh
2025-05-28 13:19:30
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अवध किसान सभा आंदोलन (1918-1922)
अवध किसान सभा आंदोलन (1918-1922)
स्थान: अवध क्षेत्र, उत्तर प्रदेश (विशेष रूप से हरदोई, बहराइच, सीतापुर, रायबरेली, और फैजाबाद जिले)। समय: 1918 में शुरू हुआ, लेकिन 1920-22 में यह चरम पर पहुँचा। पृष्ठभूमि: ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत जमींदारी प्रथा ने उत्तर प्रदेश के किसानों, विशेष रूप से रैयतों (काश्तकारों) और किरायेदारों, पर भारी दबाव डाला। जमींदारों ने मनमाने ढंग से लगान बढ़ाया, अवैध कर (नजराना, बेगारी, आदि) वसूले, और किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किया। उच्च लगान: ब्रिटिश सरकार की राजस्व नीतियों ने जमींदारों को और शक्तिशाली बनाया, जिससे किसानों का आर्थिक शोषण बढ़ा। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के कारण आर्थिक संकट, बढ़ती कीमतें, और खाद्य कमी ने किसानों की स्थिति को और बदतर कर दिया। होम रूल आंदोलन (1916-18) और महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन ने किसानों में जागरूकता पैदा की।
नेतृत्व: मदन मोहन मालवीय और जवाहरलाल नेहरू ने अवध किसान सभा के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गौरी शंकर मिश्र और इंद्र नारायण द्विवेदी जैसे स्थानीय नेताओं ने भी किसानों को संगठित किया। 1918 में उत्तर प्रदेश किसान सभा की स्थापना होम रूल लीग के कार्यकर्ताओं के प्रयासों से हुई, जिसे बाद में जवाहरलाल नेहरू ने 1919 के अंत में समर्थन दिया। मुख्य मुद्दे: जमींदारों द्वारा लगान में वृद्धि और उपज के रूप में लगान की वसूली का विरोध। अवैध करों (जैसे नजराना, बेगारी) और बेदखली के खिलाफ आंदोलन। किसानों को उनके कब्जे की जमीन पर अधिकार दिलाने की माँग।
घटनाक्रम: 1918 में हरदोई, बहराइच, और सीतापुर में किसानों ने जमींदारों के खिलाफ संगठित विरोध शुरू किया। उन्होंने लगान देने से इनकार किया और सामाजिक बहिष्कार की रणनीति अपनाई। 1920 में एका आंदोलन (Eka Movement) अवध क्षेत्र में उभरा, जिसका नेतृत्व मदारी पासी जैसे स्थानीय नेताओं ने किया। यह आंदोलन निम्न जाति के किसानों, विशेष रूप से पासी समुदाय, द्वारा समर्थित था और इसने "एकता" (Eka) के सिद्धांत पर जोर दिया। आंदोलन में किसानों ने सभाएँ आयोजित कीं, जमींदारों के खिलाफ प्रदर्शन किए, और कुछ मामलों में हिंसक कार्रवाइयाँ भी हुईं, जैसे जमींदारों की संपत्ति को नुकसान पहुँचाना।
1921 में बाबा रामचंद्र, एक प्रमुख किसान नेता, ने अवध में किसानों को संगठित किया। उन्होंने रामायण और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग करके किसानों को एकजुट किया और "सियाराम" के नारे को लोकप्रिय बनाया। परिणाम: ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए सख्त कदम उठाए, जिसमें गिरफ्तारियाँ और पुलिस कार्रवाई शामिल थी। 1921 में अवध रेंट एक्ट पारित हुआ, जिसने कुछ हद तक लगान की दरों को नियंत्रित किया और बेदखली पर रोक लगाई। आंदोलन ने किसानों में राजनीतिक चेतना जगाई और इसे 1920 के असहयोग आंदोलन के साथ जोड़ा गया, जिसने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती दी। एका आंदोलन को 1922 तक दबा दिया गया, और कई नेता, जैसे बाबा रामचंद्र, को गिरफ्तार कर लिया गया।
अन्य प्रासंगिक संदर्भ (1918 के आसपास): चंपारण सत्याग्रह (1917): हालांकि यह बिहार में हुआ, लेकिन इसका प्रभाव उत्तर प्रदेश के किसानों पर भी पड़ा। 1917 में महात्मा गांधी ने चंपारण में नील किसानों के शोषण के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप चंपारण कृषि अधिनियम (1918) पारित हुआ। इसने उत्तर प्रदेश के किसानों को प्रेरित किया कि संगठित प्रतिरोध से बदलाव संभव है। खेड़ा सत्याग्रह (1918): गुजरात में हुआ यह आंदोलन भी 1918 में चला, जिसमें गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल ने किसानों का नेतृत्व किया। सूखे के कारण फसल खराब होने के बावजूद लगान माफी की माँग की गई। इसने उत्तर प्रदेश में किसानों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। होम रूल लीग का प्रभाव: 1916-18 में होम रूल आंदोलन ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा दिया, जिसने किसानों को अपनी माँगों के लिए संगठित होने के लिए प्रेरित किया।
क्कन दंगों से): पाइक विद्रोह (1817): सैन्य विद्रोह, ब्रिटिश प्रशासन और स्थानीय शक्ति हस्तक्षेप के खिलाफ, जबकि अवध किसान सभा मुख्य रूप से जमींदारों के खिलाफ थी। फकीर विद्रोह (1760-1800): धार्मिक समुदायों द्वारा गुरिल्ला युद्ध, जमींदारों और ब्रिटिश दोनों के खिलाफ, जबकि अवध आंदोलन शांतिपूर्ण और संगठित था। रंपा विद्रोह (1879, 1922-24): आदिवासी विद्रोह, जंगल अधिकारों और जमीन की रक्षा के लिए, जबकि अवध आंदोलन गैर-आदिवासी किसानों का था। मुंडा विद्रोह (1899-1900): आदिवासी विद्रोह, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जनन के साथ, जबकि अवध आंदोलन आर्थिक और सामाजिक था।
नील आंदोलन (1859-60): नील बागान मालिकों के खिलाफ, जबरन नील खेती के विरोध में, जबकि अवध आंदोलन जमींदारों के खिलाफ था। पाबना विद्रोह (1873-76): जमींदारों के खिलाफ शांतिपूर्ण और कानूनी प्रतिरोध, जो अवध आंदोलन से मिलता-जुलता था, लेकिन अवध में कुछ हिंसक घटनाएँ भी हुईं। दक्कन दंगे (1875): साहूकारों के खिलाफ हिंसक आंदोलन, जबकि अवध आंदोलन मुख्य रूप से जमींदारों के खिलाफ था और अधिक संगठित था।
विशेष टिप्पणी: 1918 में उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन पूरी तरह से गैर-हिंसक नहीं थे, लेकिन गांधीवादी सत्याग्रह के प्रभाव के कारण इनमें शांतिपूर्ण प्रतिरोध का महत्व बढ़ा। अवध किसान सभा और एका आंदोलन ने उत्तर प्रदेश में बाद के किसान आंदोलनों, जैसे 1980 के दशक में भारतीय किसान यूनियन (BKU) के आंदोलनों, का आधार तैयार किया।
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jp Singh
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