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Deccan Rebellion
jp Singh 2025-05-28 13:18:06
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दक्कन दंगे (Deccan Riots, 1875)

दक्कन दंगे (Deccan Riots, 1875)
जो 1875 में पश्चिमी भारत के दक्कन क्षेत्र (वर्तमान महाराष्ट्र, विशेष रूप से पुणे और अहमदनगर जिले) में हुए थे। "दक्कन विद्रोह" के रूप में कोई विशिष्ट ऐतिहासिक घटना दर्ज नहीं है, लेकिन दक्कन दंगे एक महत्वपूर्ण किसान आंदोलन थे, जो जमींदारों और साहूकारों के शोषण के खिलाफ थे।
दक्कन दंगे (Deccan Riots, 1875): स्थान: दक्कन क्षेत्र, मुख्य रूप से पुणे और अहमदनगर जिले (बॉम्बे प्रेसीडेंसी, वर्तमान महाराष्ट्र)। समय: मई-जून 1875। पृष्ठभूमि: दक्कन क्षेत्र में अधिकांश किसान (मुख्य रूप से मराठा और कुणबी समुदाय) छोटे भूस्वामी या रैयत थे, जो ब्रिटिश शासन के तहत रैयतवारी प्रणाली के अंतर्गत आते थे। इस प्रणाली में किसानों को सीधे सरकार को लगान देना पड़ता था। साहूकारों (मुख्य रूप से मारवाड़ी और गुजराती) ने किसानों को भारी ब्याज दरों पर कर्ज देना शुरू किया, जिससे किसान कर्ज के जाल में फँस गए। 1860 के दशक में कपास की कीमतों में गिरावट और ब्रिटिश राजस्व नीतियों (उच्च लगान) ने किसानों की आर्थिक स्थिति को और बदतर कर दिया। नेतृत्व: यह एक सहज और असंगठित आंदोलन था, जिसमें कोई एकल नेता नहीं था। यह स्थानीय किसानों द्वारा शुरू हुआ और जल्द ही कई गाँवों में फैल गया।
कारण: साहूकारों का शोषण: साहूकारों ने किसानों को उच्च ब्याज दरों (25-50% या अधिक) पर कर्ज दिया, जिसे चुकाने में असमर्थता के कारण किसानों की जमीनें जब्त हो रही थीं। साहूकार अक्सर धोखाधड़ी से कर्ज के दस्तावेज तैयार करते थे, जिससे किसान और कर्ज में डूब जाते थे। उच्च लगान: ब्रिटिश रैयतवारी प्रणाली ने किसानों पर भारी लगान थोपा, जो उनकी आय के अनुपात में नहीं था। लगान की माँग समय पर चुकानी पड़ती थी, चाहे फसल अच्छी हो या नहीं।
आर्थिक संकट: 1860 के दशक में अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद कपास की माँग और कीमतों में कमी आई, जिसने दक्कन के कपास उत्पादक किसानों को प्रभावित किया। सूखा और अकाल ने किसानों की स्थिति को और खराब किया। कानूनी शोषण: साहूकार और जमींदार अंग्रेजी अदालतों का दुरुपयोग करते थे, जहाँ किसानों को अंग्रेजी कानूनों की जानकारी नहीं थी, और उनकी जमीनें आसानी से छीनी जा रही थीं। 1859 के सिविल प्रक्रिया संहिता ने साहूकारों को किसानों की संपत्ति जब्त करने की शक्ति दी।
घटनाक्रम: शुरुआत: मई 1875 में पुणे जिले के सुपा गाँव में किसानों ने एक मारवाड़ी साहूकार के खिलाफ विद्रोह शुरू किया। उन्होंने साहूकार के घर पर हमला किया, कर्ज के दस्तावेज (बॉन्ड्स) जलाए, और संपत्ति को नुकसान पहुँचाया। प्रसार: आंदोलन जल्द ही पुणे और अहमदनगर के 30 से अधिक गाँवों में फैल गया। किसानों ने साहूकारों के घरों, दुकानों, और गोदामों को निशाना बनाया, कर्ज के दस्तावेज नष्ट किए, और कुछ मामलों में साहूकारों को गाँव से भगा दिया। यह आंदोलन मुख्य रूप से हिंसक था, लेकिन यह जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ लक्षित था, न कि ब्रिटिश सरकार के।
रणनीति: किसानों ने सामूहिक रूप से साहूकारों का सामाजिक बहिष्कार किया और कर्ज चुकाने से इनकार कर दिया। कुछ मामलों में, उन्होंने स्थानीय पुलिस और अधिकारियों को भी धमकाया ताकि वे साहूकारों का समर्थन न करें। परिणाम: दमन: ब्रिटिश सरकार ने दंगों को दबाने के लिए पुलिस और सैन्य बल भेजा। कई किसानों को गिरफ्तार किया गया, और कुछ को सजा दी गई। हालांकि, दंगे इतने व्यापक थे कि ब्रिटिश प्रशासन को इसकी गंभीरता पर ध्यान देना पड़ा।
दक्कन कृषक राहत अधिनियम (1879): दंगों के बाद ब्रिटिश सरकार ने Deccan Agriculturists' Relief Act, 1879 पारित किया, जिसका उद्देश्य किसानों को साहूकारों के शोषण से बचाना था। इस अधिनियम ने कर्ज के दस्तावेजों की जाँच, ब्याज दरों पर नियंत्रण, और किसानों की जमीन जब्त करने पर रोक लगाई। किसानों को अदालतों में सस्ती और आसान कानूनी सहायता प्रदान की गई। दीर्घकालिक प्रभाव: दक्कन दंगों ने साहूकारों की शक्ति को कम किया और किसानों में सामूहिक प्रतिरोध की भावना को जागृत किया। इसने बाद के किसान आंदोलनों, जैसे चंपारण सत्याग्रह (1917) और बारडोली सत्याग्रह (1928), के लिए प्रेरणा प्रदान की।
इसने ब्रिटिश शासन को यह दिखाया कि किसान आर्थिक शोषण के खिलाफ संगठित हो सकते हैं। तुलना (पाइक, फकीर, रंपा, मुंडा, नील, और पाबना विद्रोह से): पाइक विद्रोह (1817): सैन्य विद्रोह, ब्रिटिश प्रशासन और स्थानीय शक्ति हस्तक्षेप के खिलाफ, जबकि दक्कन दंगे साहूकारों और आर्थिक शोषण के खिलाफ थे। फकीर विद्रोह (1760-1800): धार्मिक समुदायों द्वारा गुरिल्ला युद्ध, जमींदारों और ब्रिटिश दोनों के खिलाफ, जबकि दक्कन दंगे स्थानीय और आर्थिक थे। रंपा विद्रोह (1879, 1922-24): आदिवासी विद्रोह, जंगल अधिकारों और जमीन की रक्षा के लिए, जबकि दक्कन दंगे गैर-आदिवासी किसानों का आंदोलन था। मुंडा विद्रोह (1899-1900): आदिवासी विद्रोह, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जनन के साथ स्वशासन की माँग, जबकि दक्कन दंगे आर्थिक और कानूनी सुधारों पर केंद्रित थे।
नील आंदोलन (1859-60): नील बागान मालिकों के खिलाफ, जबरन नील खेती के विरोध में, जबकि दक्कन दंगे साहूकारों और कर्ज के खिलाफ थे। पाबना विद्रोह (1873-76): जमींदारों के खिलाफ शांतिपूर्ण और कानूनी प्रतिरोध, जो दक्कन दंगों से मिलता-जुलता था, लेकिन दक्कन दंगे अधिक हिंसक थे और साहूकारों पर केंद्रित थे।
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