Lunatic Revolt
jp Singh
2025-05-28 12:36:54
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पागलपंथी विद्रोह (1813-1833)
पागलपंथी विद्रोह (1813-1833)
पागलपंथी विद्रोह (1813-1833) भारत के उत्तरी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश के मैमनसिंह और शेरपुर क्षेत्र) में एक अर्द्ध-धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक विद्रोह था, जो मुख्य रूप से हाजोंग, गारो और अन्य स्थानीय जनजातियों द्वारा जमींदारों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शोषण के खिलाफ लड़ा गया। यह विद्रोह पागलपंथी संप्रदाय के इर्द-गिर्द केंद्रित था, जो धार्मिक और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देता था।
प्रमुख बिंदु: पृष्ठभूमि: पागलपंथी संप्रदाय: इसकी स्थापना करम शाह (या करीम शाह), एक सूफी संत, ने 18वीं सदी के अंत में की थी। यह संप्रदाय हिंदू, सूफी और स्थानीय आदिवासी मान्यताओं का मिश्रण था, जो सत्य, भाईचारा और समानता का प्रचार करता था। शोषण: ब्रिटिश शासन और स्थानीय जमींदारों द्वारा भारी कर, बेगार, और भूमि हड़पने की नीतियों ने गारो, हाजोंग और अन्य किसानों में असंतोष पैदा किया। आर्थिक दबाव: जमींदारों और साहूकारों द्वारा अत्यधिक ब्याज और शोषण ने स्थानीय समुदायों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया।
नेतृत्व और प्रारंभ: विद्रोह की शुरुआत टीपू शाह (या टीपू मीर), करम शाह के पुत्र, ने 1813 में की थी। टीपू ने जमींदारों और ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ हथियार उठाए। कुछ स्रोतों में मजनू शाह (एक मुस्लिम फकीर) को भी इस विद्रोह से जोड़ा जाता है, जो सामाजिक सुधारों के लिए प्रेरणा स्रोत थे। 1825 में टीपू ने शेरपुर पर कब्जा कर लिया और 1833 तक इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को बनाए रखा। विद्रोह का स्वरूप: यह विद्रोह मुख्य रूप से जमींदारों और ब्रिटिश कर व्यवस्था के खिलाफ था। विद्रोहियों ने जमींदारों की हवेलियों और ब्रिटिश चौकियों पर हमले किए। पागलपंथी समुदाय ने गारो और हाजोंग जनजातियों को संगठित किया, और यह एक सशस्त्र आंदोलन बन गया। विद्रोह में धार्मिक और सामाजिक सुधारों की मांग के साथ-साथ आर्थिक शोषण से मुक्ति का लक्ष्य था। बाद में, जानकी पाठर और देबराज पाठर जैसे हाजोंग नेताओं ने भी विद्रोह को आगे बढ़ाया।
दमन और परिणाम: ब्रिटिश सरकार ने 1833 में सैन्य बल का उपयोग कर विद्रोह को कुचल दिया। टीपू शाह को गिरफ्तार कर लिया गया, और विद्रोह सशक्त संगठन के अभाव में कमजोर पड़ गया। विद्रोह के बाद, ब्रिटिशों ने कुछ सुधार किए, जैसे करों में कमी और स्थानीय प्रशासन में बदलाव, लेकिन ये सीमित थे। बाद में, पागलपंथी संप्रदाय ब्राउन संप्रदाय में विलय हो गया। महत्व: पागलपंथी विद्रोह स्थानीय जनजातियों और किसानों के शोषण के खिलाफ एक महत्वपूर्ण प्रतिरोध था, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ संगठित आंदोलन का प्रतीक बना। इसने उत्तरी बंगाल में सामाजिक और धार्मिक सुधारों को बढ़ावा दिया और बाद के विद्रोहों, जैसे संथाल विद्रोह, के लिए प्रेरणा दी।
यह विद्रोह आदिवासी और किसान समुदायों की एकता और स्वायत्तता की मांग को दर्शाता है। वर्तमान प्रासंगिकता: पागलपंथी विद्रोह को बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण जनआंदोलन के रूप में देखा जाता है। यह स्थानीय समुदायों के शोषण के खिलाफ संघर्ष और उनकी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का प्रतीक है।
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