Inder Kumar Gujral (I.K. Gujral)
jp Singh
2025-05-28 11:37:37
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इंद्र कुमार गुजराल (आई.के. गुजराल)
इंद्र कुमार गुजराल (आई.के. गुजराल)
इंद्र कुमार गुजराल (आई.के. गुजराल) भारत के अगले प्रधानमंत्री बने। उनका कार्यकाल 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998 तक रहा। गुजराल संयुक्त मोर्चा (United Front) गठबंधन के नेता थे और एक कूटनीतिज्ञ, विद्वान और समाजवादी विचारधारा के समर्थक के रूप में जाने जाते हैं। वे भारत के विदेश नीति में “गुजराल सिद्धांत” के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उनका कार्यकाल लगभग 11 महीने का था और गठबंधन की अस्थिरता के कारण छोटा रहा। नीचे उनके जीवन, राजनीतिक करियर, कार्यकाल और विरासत का विस्तृत विवरण दिया गया है
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
जन्म: इंद्र कुमार गुजराल का जन्म 4 दिसंबर 1919 को पंजाब के झेलम (वर्तमान में पाकिस्तान) में एक पंजाबी खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, अवतार नारायण गुजराल, एक स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता थे। शिक्षा: गुजराल ने लाहौर के डीएवी कॉलेज और फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अर्थशास्त्र और इतिहास में स्नातक की डिग्री हासिल की। उनकी बौद्धिक रुचियों ने उन्हें एक विचारशील और कूटनीतिक नेता बनाया। प्रारंभिक जीवन: गुजराल का परिवार स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय था। उनके माता-पिता और बड़े भाई, सत्यनारायण गुजराल, कांग्रेस के साथ जुड़े थे। यह पृष्ठभूमि उनकी राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा को आकार देने में महत्वपूर्ण थी। स्वतंत्रता संग्राम और प्रारंभिक राजनीति स्वतंत्रता आंदोलन: गुजराल ने युवावस्था में स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रदर्शनों के लिए जेल गए। उनकी गिरफ्तारी और संघर्ष ने उनकी देशभक्ति को
कम्युनिस्ट प्रभाव: 1930 और 1940 के दशक में, गुजराल कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे और अखिल भारतीय छात्र फेडरेशन में सक्रिय थे। बाद में, वे समाजवादी विचारधारा की ओर मुड़े और कांग्रेस से जुड़े। विभाजन का प्रभाव: 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान, गुजराल का परिवार झेलम से भारत आ गया। इस अनुभव ने उनकी कूटनीतिक सोच, विशेषकर पड़ोसी देशों के साथ संबंधों पर, गहरा प्रभाव डाला। राजनीतिक करियर गुजराल का राजनीतिक सफर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से शुरू हुआ, लेकिन बाद में वे जनता दल और संयुक्त मोर्चा के साथ जुड़े। उनकी विशेषज्ञता विदेश नीति और कूटनीति में थी।
कांग्रेस में शुरुआत प्रारंभिक भूमिका: 1950 के दशक में, गुजराल दिल्ली में कांग्रेस के स्थानीय नेता के रूप में सक्रिय हुए। वे दिल्ली नगर निगम में पार्षद रहे और सामाजिक कार्यों में शामिल थे। राज्यसभा में प्रवेश: 1964 में, वे राज्यसभा के लिए चुने गए और कांग्रेस के एक प्रभावशाली नेता बन गए। उनकी बौद्धिक और कूटनीतिक क्षमता ने उन्हें विदेश नीति के क्षेत्र में पहचान दिलाई।
केंद्रीय मंत्रिमंडल: 1967-1976: इंदिरा गांधी की सरकार में गुजराल ने संचार, संसदीय कार्य और सूचना और प्रसारण जैसे मंत्रालयों में कार्य किया। वे इंदिरा गांधी के विश्वसनीय सलाहकारों में से एक थे। आपातकाल का विरोध: 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद, गुजराल ने इंदिरा गांधी की नीतियों का विरोध किया। इसके कारण उन्हें किनारे कर दिया गया।
जनता पार्टी और विदेश में भूमिका विदेश में सेवा: 1976 में, आपातकाल के दौरान, इंदिरा गांधी ने गुजराल को मॉस्को में भारत का राजदूत नियुक्त किया। यह निर्णय संभवतः उन्हें भारत की राजनीति से दूर रखने के लिए लिया गया था। मॉस्को में उनके कार्यकाल ने उनकी कूटनीतिक क्षमता को और निखारा। जनता दल: 1980 के दशक में, गुजराल जनता दल में शामिल हुए। 1989 में, वे वी.पी. सिंह की सरकार में विदेश मंत्री बने। इस दौरान उन्होंने भारत-पाकिस्तान और अन्य पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने की कोशिश की।
प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल (21 अप्रैल 1997 - 19 मार्च 1998) 1996 के आम चुनाव के बाद, संयुक्त मोर्चा (United Front) ने कांग्रेस और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। एच.डी. देवे गौड़ा की सरकार के पतन के बाद, संयुक्त मोर्चा ने गुजराल को अपना नेता चुना, और वे 21 अप्रैल 1997 को भारत के 12वें प्रधानमंत्री बने। उनकी सरकार अल्पमत में थी और कांग्रेस के समर्थन पर निर्भर थी।
प्रमुख नीतियाँ और उपलब्धियाँ गुजराल सिद्धांत: गुजराल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि उनकी विदेश नीति में “गुजराल सिद्धांत” थी। इस सिद्धांत के प्रमुख बिंदु थे: भारत अपने छोटे पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, मालदीव) के साथ संबंधों में उदारता और गैर-पारस्परिकता (non-reciprocity) का दृष्टिकोण अपनाएगा। भारत पड़ोसियों से समान व्यवहार की अपेक्षा किए बिना सहायता और सहयोग प्रदान करेगा। क्षेत्रीय शांति और सहयोग को बढ़ावा देना। प्रभाव: इस सिद्धांत ने भारत को दक्षिण एशिया में एक उदार और जिम्मेदार शक्ति के रूप में स्थापित किया। इसने बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका के साथ संबंधों को बेहतर करने में मदद की।
पाकिस्तान के साथ संबंध: गुजराल ने भारत-पाकिस्तान संबंधों को सुधारने की कोशिश की। 1997 में, उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ बातचीत की और शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। हालांकि, कश्मीर मुद्दे और सीमा पर तनाव के कारण कोई बड़ा परिणाम नहीं मिला।
आर्थिक नीतियाँ: गुजराल की सरकार ने पी.वी. नरसिम्हा राव और देवे गौड़ा द्वारा शुरू किए गए आर्थिक उदारीकरण को जारी रखा। उनके वित्त मंत्री, पी. चिदंबरम, ने कर सुधार और विदेशी निवेश को बढ़ावा देने की नीतियाँ लागू कीं। हालांकि, गठबंधन की अस्थिरता और छोटे कार्यकाल के कारण बड़े आर्थिक सुधार सीमित रहे। सामाजिक और कल्याणकारी नीतियाँ: गुजराल ने सामाजिक न्याय और वंचित वर्गों के उत्थान पर जोर दिया। उनकी सरकार ने दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए कल्याणकारी योजनाएँ शुरू कीं। शिक्षा और ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया गया, लेकिन समय की कमी के कारण प्रभाव सीमित रहा। पंजाब और कश्मीर: गुजराल ने पंजाब में शांति प्रक्रिया को मजबूत करने की कोशिश की और अकाली दल के साथ संवाद बढ़ाया। कश्मीर में अलगाववाद को संबोधित करने के लिए बातचीत की शुरुआत की, लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं मिला।
चुनौतियाँ गठबंधन की अस्थिरता: संयुक्त मोर्चा 13 दलों का गठबंधन था, जिसमें विभिन्न विचारधाराएँ थीं। आंतरिक मतभेद और नेतृत्व के मुद्दों ने सरकार को कमजोर किया। कांग्रेस का बाहरी समर्थन सशर्त था, और कांग्रेस ने सरकार पर लगातार दबाव बनाए रखा। कांग्रेस के साथ तनाव: 1998 में, कांग्रेस ने जैन आयोग की रिपोर्ट (जो राजीव गांधी की हत्या की जाँच से संबंधित थी) के आधार पर DMK (संयुक्त मोर्चा का हिस्सा) पर LTTE से संबंधों का आरोप लगाया। इसके कारण कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। आर्थिक दबाव: भारत 1997 में वैश्विक आर्थिक मंदी और एशियाई वित्तीय संकट से प्रभावित था। गुजराल की सरकार के पास इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त समय या संसाधन नहीं थे। सीमित राष्ट्रीय अपील: गुजराल को एक बौद्धिक और कूटनीतिक नेता के रूप में देखा जाता था, लेकिन उनकी राष्ट्रीय अपील सीमित थी। उनकी पंजाबी और समाजवादी पृष्ठभूमि ने उन्हें उत्तर भारत तक सीमित रखा।
विश्वास मत में विफलता: मार्च 1998 में, कांग्रेस के समर्थन वापसी के बाद, गुजराल की सरकार अल्पमत में आ गई। उन्होंने लोकसभा में विश्वास मत हासिल करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे और 19 मार्च 1998 को इस्तीफा दे दिया। बाद का जीवन राजनीति से संन्यास: इस्तीफे के बाद, गुजराल ने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली। वे जनता दल और विदेश नीति के मुद्दों पर सलाहकार के रूप में सक्रिय रहे। लेखन और बौद्धिक कार्य: गुजराल ने अपनी आत्मकथा Matters of Discretion (2011) लिखी, जिसमें उनके जीवन, कूटनीति और राजनीतिक अनुभवों का वर्णन है। वे विभिन्न मंचों पर विदेश नीति और सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करते रहे। निधन: 30 नवंबर 2012 को गुड़गाँव, हरियाणा में लंबी बीमारी (फेफड़े और गुर्दे की समस्याएँ) के कारण उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के समय उनकी उम्र 92 वर्ष थी।
व्यक्तिगत विशेषताएँ और विचारधारा कूटनीतिक और बौद्धिक: गुजराल एक विद्वान और कूटनीतिज्ञ थे, जिनकी विदेश नीति में गहरी समझ थी। उनका “गुजराल सिद्धांत” उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता है। समाजवादी विचारधारा: वे सामाजिक न्याय, समानता और वंचित वर्गों के उत्थान के समर्थक थे। उनकी नीतियाँ समाजवादी और समावेशी थीं। सादगी: गुजराल अपनी सादगी और विनम्रता के लिए जाने जाते थे। वे जनता के बीच एक सुलझे हुए और सम्मानित नेता थे। विवाद: उनकी सरकार की अल्पकालिक प्रकृति और कांग्रेस पर निर्भरता ने उनकी प्रभावशीलता को सीमित किया। कुछ लोग उनकी नेतृत्व शैली को कमजोर मानते थे। विरासत आई.के. गुजराल का कार्यकाल छोटा था, लेकिन उनकी विदेश नीति और सादगी ने भारतीय राजनीति में एक स्थायी छाप छोड़ी:
गुजराल सिद्धांत: यह उनकी सबसे बड़ी विरासत है, जो भारत की पड़ोसी देशों के साथ उदार और सहयोगात्मक नीति को दर्शाता है। यह सिद्धांत आज भी भारत की विदेश नीति में प्रासंगिक है।
सामाजिक न्याय: उनकी सरकार ने सामाजिक समावेश और वंचित वर्गों के उत्थान को बढ़ावा दिया, जो जनता दल की समाजवादी विचारधारा को दर्शाता है।
गठबंधन राजनीति: गुजराल की सरकार गठबंधन राजनीति का एक और उदाहरण थी, जिसने क्षेत्रीय दलों की भूमिका को मजबूत किया।
स्मृति: उनके सम्मान में कई संस्थानों और स्मारकों का नामकरण किया गया है। उनकी कूटनीतिक विरासत को विदेश नीति विशेषज्ञों द्वारा सराहा जाता है।
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