Lord Mountbatten
jp Singh
2025-05-28 10:09:56
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लॉर्ड माउंटबेटन का शासन (1947-1948)
लॉर्ड माउंटबेटन का शासन (1947-1948)
लॉर्ड माउंटबेटन (लुई फ्रांसिस अल्बर्ट विक्टर निकोलस माउंटबेटन, प्रथम अर्ल माउंटबेटन ऑफ बर्मा) का भारत में वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में शासन मार्च 1947 से अगस्त 1947 तक रहा, और इसके बाद वे स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर-जनरल के रूप में 15 अगस्त 1947 से 21 जून 1948 तक कार्यरत रहे। उनका कार्यकाल ब्रिटिश भारत के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक दौर था, क्योंकि इस दौरान भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की और भारत-पाकिस्तान विभाजन हुआ। लॉर्ड माउंटबेटन एक अनुभवी सैन्य अधिकारी, कूटनीतिज्ञ, और ब्रिटिश शाही परिवार के सदस्य थे। उन्होंने भारत में स्वतंत्रता और सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को तेजी से लागू किया, लेकिन उनकी नीतियों और जल्दबाजी के कारण साम्प्रदायिक दंगे और विभाजन की त्रासदी भी हुई।
1. पृष्ठभूमि
लॉर्ड माउंटबेटन को 21 फरवरी 1947 को भारत का अंतिम वायसराय नियुक्त किया गया। वह लॉर्ड वावेल के बाद आए, जिनके शासनकाल में कैबिनेट मिशन (1946) और साम्प्रदायिक दंगों ने भारत के विभाजन को अपरिहार्य बना दिया था। माउंटबेटन को ब्रिटिश सरकार ने भारत से सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को पूरा करने का स्पष्ट निर्देश दिया था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने 20 फरवरी 1947 को घोषणा की थी कि जून 1948 तक भारत से ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। माउंटबेटन का दृष्टिकोण गतिशील और कूटनीतिक था। वह भारतीय नेताओं, विशेष रूप से महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, और मुहम्मद अली जिन्ना, के साथ संवाद स्थापित करने में कुशल थे। हालांकि, उनकी जल्दबाजी और साम्प्रदायिक मुद्दों को संभालने की नीतियों ने विवाद को जन्म दिया। उनके शासनकाल में भारत साम्प्रदायिक तनाव, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की आर्थिक कठिनाइयों, और स्वतंत्रता की माँग के चरम पर था।
2. प्रमुख नीतियाँ और घटनाएँ
2.1 माउंटबेटन योजना (3 जून योजना, 1947)
माउंटबेटन ने भारत पहुँचने के बाद तुरंत स्थिति का आकलन किया। कैबिनेट मिशन (1946) की विफलता और साम्प्रदायिक दंगों (विशेष रूप से कोलकाता और पंजाब में) ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत का विभाजन अपरिहार्य है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक अखंड भारत चाहती थी, जबकि मुस्लिम लीग पाकिस्तान की माँग पर अडिग थी। 3 जून योजना: 3 जून 1947 को, माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण और विभाजन की योजना की घोषणा की, जिसे माउंटबेटन योजना या 3 जून योजना के नाम से जाना जाता है। इसके प्रमुख बिंदु थे: भारत का दो स्वतंत्र डोमिनियन राष्ट्रों—भारत और पाकिस्तान—में विभाजन। बंगाल और पंजाब प्रांतों का विभाजन, जिसमें मुस्लिम-बहुल क्षेत्र पाकिस्तान को और हिंदू-बहुल क्षेत्र भारत को मिले। रियासतों को यह विकल्प दिया गया कि वे भारत, पाकिस्तान, या स्वतंत्र रहें। सत्ता हस्तांतरण की तारीख को जून 1948 से घटाकर 15 अगस्त 1947 कर दिया गया।
एक संविधान सभा प्रत्येक डोमिनियन के लिए संविधान बनाएगी। बाउंड्री कमीशन (सीमा आयोग) की स्थापना, जिसके अध्यक्ष सिरिल रैडक्लिफ थे, ताकि भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ निर्धारित की जाएँ। प्रतिक्रिया: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने, हालांकि अनिच्छा से, विभाजन को स्वीकार किया, क्योंकि साम्प्रदायिक दंगे और मुस्लिम लीग की अडिग माँग ने एकता को असंभव बना दिया था। मुस्लिम लीग ने योजना को स्वीकार किया, क्योंकि यह उनकी पाकिस्तान की माँग को पूरा करती थी। महात्मा गांधी ने विभाजन का विरोध किया, लेकिन उनकी आवाज को कांग्रेस के अन्य नेताओं ने अनदेखा कर दिया। प्रभाव: माउंटबेटन योजना ने भारत की स्वतंत्रता और विभाजन की प्रक्रिया को औपचारिक रूप दिया। हालांकि, तारीख को जल्दी करने का निर्णय और सीमा निर्धारण में जल्दबाजी ने साम्प्रदायिक दंगों को बढ़ावा दिया।
2.2 भारत और पाकिस्तान की स्वतंत्रता (15 अगस्त 1947)
घटनाएँ: 15 अगस्त 1947 को, भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र डोमिनियन के रूप में स्वतंत्र हुए। जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने, और लियाकत अली खान पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री बने। लॉर्ड माउंटबेटन स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर-जनरल बने, जबकि मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल बने। माउंटबेटन की भूमिका: माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को तेजी से लागू किया और भारतीय नेताओं के साथ मिलकर संवैधानिक व्यवस्थाएँ कीं। उन्होंने स्वतंत्रता समारोहों को आयोजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रभाव: भारत की स्वतंत्रता ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत का प्रतीक थी। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक सदी से अधिक की लड़ाई का परिणाम था। हालांकि, स्वतंत्रता के साथ ही साम्प्रदायिक दंगों और शरणार्थी संकट ने भारत और पाकिस्तान को प्रभावित किया।
2.3 साम्प्रदायिक दंगे और शरणार्थी संकट
पृष्ठभूमि: माउंटबेटन योजना और रैडक्लिफ लाइन की घोषणा (17 अगस्त 1947) के बाद, बंगाल और पंजाब में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। हिंदू, मुस्लिम, और सिख समुदायों के बीच हिंसा में लाखों लोग मारे गए (अनुमानित 2 लाख से 10 लाख मृत्यु)। लगभग 1.5 करोड़ लोग विस्थापित हुए, क्योंकि हिंदू और सिख पाकिस्तान से भारत आए, और मुस्लिम भारत से पाकिस्तान गए। माउंटबेटन की भूमिका: माउंटबेटन ने दंगों को नियंत्रित करने के लिए सैन्य बलों का उपयोग किया और आपातकालीन राहत कार्य शुरू किए। हालांकि, उनकी जल्दबाजी और सीमा निर्धारण में स्पष्टता की कमी ने दंगों को और भड़काया। रैडक्लिफ कमीशन को सीमाएँ निर्धारित करने के लिए पर्याप्त समय और संसाधन नहीं दिए गए। प्रभाव: साम्प्रदायिक दंगों ने भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी तनाव पैदा किया। शरणार्थी संकट ने दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं और सामाजिक ढाँचे पर भारी दबाव डाला।
2.4 रियासतों का एकीकरण
पृष्ठभूमि: भारत में लगभग 562 रियासतें थीं, जिन्हें माउंटबेटन योजना के तहत भारत, पाकिस्तान, या स्वतंत्र रहने का विकल्प दिया गया था। अधिकांश रियासतों ने भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया, लेकिन कुछ रियासतों, जैसे जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, और जूनागढ़, ने जटिलताएँ पैदा कीं। माउंटबेटन की भूमिका: माउंटबेटन ने रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन के साथ मिलकर रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया को सुगम बनाया। जम्मू-कश्मीर में महाराजा हरि सिंह ने शुरू में स्वतंत्र रहने का प्रयास किया, लेकिन पठान कबीलों के आक्रमण के बाद उन्होंने अक्टूबर 1947 में भारत में विलय का संलग्नता पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए। प्रभाव: रियासतों का एकीकरण स्वतंत्र भारत के एकीकरण में एक महत्वपूर्ण कदम था। हालांकि, जम्मू-कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच एक स्थायी विवाद बन गया।
2.5 माउंटबेटन का गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यकाल (1947-1948)
स्वतंत्रता के बाद, माउंटबेटन भारत के प्रथम गवर्नर-जनरल बने। इस दौरान उनकी प्रमुख भूमिकाएँ थीं: शरणार्थी संकट और साम्प्रदायिक दंगों को नियंत्रित करना। भारत सरकार को संवैधानिक और प्रशासनिक स्थिरता प्रदान करने में सहायता करना। जम्मू-कश्मीर में पहले भारत-पाक युद्ध (1947-1948) के दौरान भारत का समर्थन करना। माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू और अन्य नेताओं के साथ निकटता से काम किया, और उनकी लोकप्रियता ने उन्हें भारत में स्वीकार्य बनाया। 21 जून 1948 को, माउंटबेटन ने गवर्नर-जनरल का पद छोड़ा, और उनके स्थान पर सी. राजगोपालाचारी स्वतंत्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर-जनरल बने। 2.6 साम्प्रदायिक तनाव और गांधी की हत्या: स्वतंत्रता के बाद साम्प्रदायिक दंगों ने भारत को हिलाकर रख दिया। महात्मा गांधी ने दंगों को रोकने के लिए कई अनशन किए और हिंदू-मुस्लिम एकता की अपील की। 30 जनवरी 1948 को, नाथूराम गोडसे ने नई दिल्ली में गांधी की हत्या कर दी। यह घटना माउंटबेटन के गवर्नर-जनरल के कार्यकाल के दौरान हुई।
माउंटबेटन की भूमिका: माउंटबेटन ने गांधी की हत्या पर गहरा दुख व्यक्त किया और सरकार को स्थिति को नियंत्रित करने में मदद की। उनकी उपस्थिति ने भारत में स्थिरता बनाए रखने में सहायता की। 3. महत्व और प्रभाव: स्वतंत्रता और विभाजन: माउंटबेटन का शासनकाल भारत की स्वतंत्रता और विभाजन का प्रतीक था। उनकी 3 जून योजना ने भारत और पाकिस्तान के निर्माण को औपचारिक रूप दिया। साम्प्रदायिक दंगे: माउंटबेटन की जल्दबाजी और रैडक्लिफ लाइन की अव्यवस्थित सीमा निर्धारण ने दंगों और शरणार्थी संकट को बढ़ाया, जिसे उनकी सबसे बड़ी आलोचना माना जाता है। रियासतों का एकीकरण: माउंटबेटन की कूटनीति ने रियासतों के एकीकरण को सुगम बनाया, जो स्वतंत्र भारत के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। संवैधानिक विकास: माउंटबेटन ने संविधान सभा के गठन और सत्ता हस्तांतरण को सुनिश्चित किया, जिसने स्वतंत्र भारत के संवैधानिक ढाँचे की नींव रखी। भारत-पाक तनाव: जम्मू-कश्मीर और अन्य मुद्दों ने भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी तनाव की शुरुआत की।
4. कार्यकाल का अंत
लॉर्ड माउंटबेटन ने 21 जून 1948 को भारत के गवर्नर-जनरल का पद छोड़ा। इसके बाद वे ब्रिटेन लौट गए और नौसेना और कूटनीति में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। उनकी जगह सी. राजगोपालाचारी ने भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यभार संभाला।
5. विरासत
लॉर्ड माउंटबेटन को भारत के अंतिम वायसराय और स्वतंत्रता के सूत्रधार के रूप में याद किया जाता है। उनकी गतिशील और कूटनीतिक शैली ने सत्ता हस्तांतरण को तेजी से लागू किया, लेकिन उनकी जल्दबाजी ने साम्प्रदायिक दंगों और शरणार्थी संकट को जन्म दिया। उनकी रियासतों के एकीकरण में भूमिका ने भारत को एक एकीकृत राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। माउंटबेटन की नीतियों की आलोचना होती है, विशेष रूप से विभाजन की प्रक्रिया में जल्दबाजी और साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में असफलता के लिए, लेकिन उनकी कूटनीति ने भारत के नेताओं के साथ सकारात्मक संबंध बनाए। उनका कार्यकाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की परिणति और एक नए युग की शुरुआत का प्रतीक था।
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