Lord Wavell
jp Singh
2025-05-28 10:06:25
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लॉर्ड वावेल का शासन (1943-1947)
लॉर्ड वावेल का शासन (1943-1947)
लॉर्ड वावेल (आर्किबाल्ड परसिवल वावेल, प्रथम विस्काउंट वावेल) का भारत में वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में शासन 1943 से 1947 तक रहा। उनका कार्यकाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम और सबसे निर्णायक चरण में था, जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध का अंत, आजाद हिंद फौज के मुकदमे, कैबिनेट मिशन, और अंततः भारत की स्वतंत्रता और विभाजन जैसी ऐतिहासिक घटनाएँ शामिल थीं। लॉर्ड वावेल एक सैन्य पृष्ठभूमि के प्रशासक थे, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को बनाए रखने और स्वतंत्रता की ओर एक व्यवस्थित हस्तांतरण की कोशिश की, लेकिन साम्प्रदायिक तनाव और राष्ट्रीय आंदोलन की तीव्रता ने उनके प्रयासों को जटिल बना दिया।
1. पृष्ठभूमि
लॉर्ड वावेल को 1 अक्टूबर 1943 में भारत का वायसराय नियुक्त किया गया। वह लॉर्ड लिनलिथगो के बाद आए, जिनके शासनकाल में भारत छोड़ो आंदोलन (1942) और बंगाल अकाल (1943) जैसी घटनाओं ने ब्रिटिश शासन को गहरी चुनौती दी थी। वावेल का कार्यकाल द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के अंतिम वर्षों और युद्धोत्तर भारत के राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच तनाव चरम पर था, और स्वतंत्रता की माँग अब अपरिहार्य हो चुकी थी। वावेल एक कूटनीतिक और संतुलित दृष्टिकोण के साथ आए, लेकिन उनकी सैन्य पृष्ठभूमि और ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निष्ठा ने उनकी नीतियों को प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय नेताओं के साथ संवाद की कोशिश की, लेकिन साम्प्रदायिक विभाजन और ब्रिटिश सरकार की नीतियों ने उनके प्रयासों को सीमित कर दिया।
2. प्रमुख नीतियाँ और घटनाएँ
2.1 द्वितीय विश्व युद्ध का अंत (1945)
वावेल का कार्यकाल शुरू होने के समय द्वितीय विश्व युद्ध अपने अंतिम चरण में था। भारत ने युद्ध में सैनिकों, संसाधनों, और आर्थिक सहायता के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रभाव: युद्ध के कारण भारत में आर्थिक कठिनाइयाँ, जैसे महंगाई और खाद्य संकट, बनी रहीं। बंगाल अकाल (1943) के प्रभाव अभी भी मौजूद थे, जिसने ब्रिटिश शासन के प्रति जनता का असंतोष बढ़ाया। 1945 में युद्ध के समाप्त होने के बाद, ब्रिटिश सरकार को स्वतंत्रता की माँग को गंभीरता से लेना पड़ा, क्योंकि युद्ध ने ब्रिटेन की आर्थिक और सैन्य शक्ति को कमजोर कर दिया था।
वावेल की भूमिका: वावेल ने युद्ध प्रयासों को समर्थन देने के लिए भारतीय संसाधनों का उपयोग किया और भारतीय नेताओं से सहयोग की अपील की। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने युद्ध में सहयोग देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि उन्हें तत्काल स्वतंत्रता का आश्वासन नहीं मिला।
2.2 सिमला सम्मेलन (1945)
पृष्ठभूमि: युद्ध के अंत के बाद, वावेल ने भारत में एक अंतरिम सरकार स्थापित करने और संवैधानिक सुधारों की दिशा में काम करने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने 25 जून से 14 जुलाई 1945 तक सिमला सम्मेलन बुलाया। सम्मेलन का उद्देश्य एक कार्यकारी परिषद (Executive Council) का गठन करना था, जिसमें भारतीय नेताओं को शामिल किया जाए, और युद्धोत्तर संवैधानिक ढाँचे पर चर्चा करना था। प्रमुख बिंदु: वावेल ने प्रस्ताव रखा कि कार्यकारी परिषद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग, और अन्य समुदायों के प्रतिनिधि शामिल हों। मुस्लिम लीग ने माँग की कि सभी मुस्लिम सदस्य उनके द्वारा नामित किए जाएँ, जबकि कांग्रेस ने इसका विरोध किया, क्योंकि वह सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व करना चाहती थी। परिणाम: मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच मतभेद के कारण सिमला सम्मेलन विफल रहा। यह साम्प्रदायिक तनाव और विभाजन की ओर बढ़ते भारत का संकेत था।
प्रभाव: सिमला सम्मेलन की विफलता ने यह स्पष्ट कर दिया कि हिंदू-मुस्लिम एकता और संयुक्त सरकार का गठन अब मुश्किल था।
2.3 आजाद हिंद फौज (INA) के मुकदमे (1945-1946)
पृष्ठभूमि: सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित आजाद हिंद फौज (Indian National Army, INA) ने जापान की सहायता से ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया था। युद्ध के अंत में INA के कई सैनिकों को ब्रिटिश सरकार ने बंदी बना लिया। 1945 में दिल्ली के लाल किले में INA के अधिकारियों, जैसे शाहनवाज खान, प्रेम सहगल, और गुरबख्श सिंह ढिल्लों, पर राजद्रोह के मुकदमे चलाए गए। वावेल की भूमिका: वावेल ने इन मुकदमों को ब्रिटिश शासन की शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा, लेकिन यह निर्णय उल्टा पड़ा। भारतीय जनता और नेताओं ने INA सैनिकों को
प्रभाव: INA मुकदमों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को और जागृत किया। यह ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि इसने भारतीय सेना में भी असंतोष को बढ़ाया। ब्रिटिश सरकार को अंततः INA सैनिकों को रिहा करना पड़ा, जिसने स्वतंत्रता की माँग को और मजबूत किया।
2.4 1946 के प्रांतीय चुनाव
पृष्ठभूमि: 1945-46 में 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत प्रांतीय और केंद्रीय विधानसभाओं के लिए चुनाव हुए। यह स्वतंत्रता से पहले भारत में आखिरी बड़े चुनाव थे। परिणाम: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हिंदू-बहुल क्षेत्रों में शानदार जीत हासिल की और कई प्रांतों में सरकारें बनाईं। मुस्लिम लीग ने मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में मजबूत प्रदर्शन किया और पाकिस्तान की माँग को जन-समर्थन मिला। वावेल की भूमिका: वावेल ने इन चुनावों को निष्पक्ष रूप से आयोजित करने की कोशिश की, लेकिन साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने उनकी योजनाओं को जटिल बना दिया।
प्रभाव: चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग भारत की दो प्रमुख राजनीतिक शक्तियाँ थीं, और साम्प्रदायिक विभाजन अब अपरिहार्य था।
2.5 कैबिनेट मिशन (1946)
ष्ठभूमि: युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वतंत्रता देने की प्रक्रिया शुरू की। मार्च 1946 में कैबिनेट मिशन (पेथिक-लॉरेंस, स्टैफोर्ड क्रिप्स, और ए.वी. अलेक्जेंडर) भारत आया। मिशन का उद्देश्य भारत के लिए एक संवैधानिक ढाँचा तैयार करना और अंतरिम सरकार की स्थापना करना था। प्रमुख प्रस्ताव: एक अखंड भारत के लिए संघीय संविधान की सिफारिश, जिसमें प्रांतों को व्यापक स्वायत्तता दी जाए। एक संविधान सभा का गठन, जो भारत का संविधान बनाएगी। एक अंतरिम सरकार की स्थापना, जिसमें भारतीय नेताओं को शामिल किया जाए। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के लिए प्रांतों को तीन समूहों (हिंदू-बहुल, मुस्लिम-बहुल, और मिश्रित) में बाँटा गया।
प्रतिक्रिया: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन की योजना को आंशिक रूप से स्वीकार किया, लेकिन वह एक मजबूत केंद्रीय सरकार चाहती थी। मुस्लिम लीग ने शुरू में योजना को स्वीकार किया, लेकिन बाद में इसे अस्वीकार कर दिया, क्योंकि यह उनकी पाकिस्तान की माँग को पूरी तरह पूरा नहीं करती थी। वावेल की भूमिका: वावेल ने मिशन के साथ मिलकर काम किया और भारतीय नेताओं के साथ संवाद बनाए रखा। उन्होंने अंतरिम सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रभाव: कैबिनेट मिशन की विफलता ने भारत के विभाजन को अपरिहार्य बना दिया।
2.6 अंतरिम सरकार का गठन (1946):
कैबिनेट मिशन की सिफारिशों के आधार पर, 2 सितंबर 1946 को एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ, जिसमें जवाहरलाल नेहरू को उप-राष्ट्रपति (वस्तुतः प्रधानमंत्री) नियुक्त किया गया। शुरू में मुस्लिम लीग ने इसका बहिष्कार किया, लेकिन बाद में अक्टूबर 1946 में शामिल हो गई। लियाकत अली खान और अन्य लीग नेता सरकार में शामिल हुए। वावेल की भूमिका: वावेल ने अंतरिम सरकार के गठन में मध्यस्थता की, लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच तनाव के कारण सरकार प्रभावी रूप से काम नहीं कर सकी। प्रभाव: अंतरिम सरकार ने स्वतंत्रता की ओर एक कदम को दर्शाया, लेकिन साम्प्रदायिक तनाव ने इसके कामकाज को बाधित किया।
2.7 साम्प्रदायिक दंगे और विभाजन की ओर
1946 में साम्प्रदायिक दंगों की लहर ने भारत को हिलाकर रख दिया: 16 अगस्त 1946: मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस (Direct Action Day) का आह्वान किया, जिसके परिणामस्वरूप कोलकाता में महान दंगा हुआ। हजारों लोग मारे गए। इसके बाद बिहार, नोआखाली, और पंजाब में बड़े पैमाने पर दंगे हुए। वावेल की भूमिका: वावेल ने दंगों को नियंत्रित करने की कोशिश की, लेकिन उनकी नीतियाँ अपर्याप्त थीं। साम्प्रदायिक तनाव अब नियंत्रण से बाहर हो चुका था। प्रभाव: दंगों ने भारत के विभाजन को अपरिहार्य बना दिया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने अंततः विभाजन को स्वीकार कर लिया।
2.8 स्वतंत्रता और विभाजन की ओर
1947 की शुरुआत में, ब्रिटिश सरकार ने यह स्वीकार कर लिया कि भारत को स्वतंत्रता देना अपरिहार्य है। 20 फरवरी 1947 को, ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने घोषणा की कि जून 1948 तक भारत से ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। वावेल ने इस हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन साम्प्रदायिक तनाव और कांग्रेस-लीग के बीच असहमति ने उनके प्रयासों को जटिल बना दिया। वावेल ने ब्रेकडाउन प्लान प्रस्तावित किया, जिसमें ब्रिटिश प्रांतों को धीरे-धीरे खाली करने और सत्ता हस्तांतरण की योजना थी, लेकिन इसे ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिया।
3. कार्यकाल का अंत
लॉर्ड वावेल को 21 फरवरी 1947 को उनके पद से हटा लिया गया, और उनके स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटन भारत के अंतिम वायसराय बने। वावेल के हटने का कारण उनकी धीमी और सतर्क नीतियाँ थीं, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता की तेज प्रक्रिया के लिए उपयुक्त नहीं माना। वावेल ब्रिटेन लौट गए और बाद में ब्रिटिश प्रशासन में अन्य भूमिकाएँ निभाईं।
4. महत्व और प्रभाव
स्वतंत्रता की ओर प्रगति: वावेल का शासनकाल भारत की स्वतंत्रता और विभाजन की ओर अंतिम चरण था। उनके कार्यकाल में कैबिनेट मिशन और अंतरिम सरकार ने स्वतंत्रता की प्रक्रिया को औपचारिक रूप दिया। INA मुकदमे: इन मुकदमों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को और जागृत किया और ब्रिटिश शासन की सैन्य और नैतिक नींव को कमजोर किया।
साम्प्रदायिक तनाव और विभाजन: वावेल के शासनकाल में हिंदू-मुस्लिम तनाव चरम पर पहुँचा, और दंगों ने भारत के विभाजन को अपरिहार्य बना दिया। कैबिनेट मिशन: यह मिशन भारत के लिए एक अखंड संविधान बनाने में विफल रहा, लेकिन इसने संविधान सभा की नींव रखी, जो स्वतंत्र भारत के संविधान का आधार बनी। आर्थिक और सामाजिक चुनौतियाँ: युद्ध और बंगाल अकाल के प्रभाव ने भारत में आर्थिक और सामाजिक संकट को बढ़ाया, जिसने स्वतंत्रता की माँग को और तीव्र किया।
5. विरासत
लॉर्ड वावेल का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक जटिल और महत्वपूर्ण दौर था। वह स्वतंत्रता की ओर भारत के अंतिम चरण के गवाह बने, लेकिन उनकी सतर्क और रूढ़िगत नीतियों ने भारतीय नेताओं के साथ संवाद को सीमित कर दिया। सिमला सम्मेलन और कैबिनेट मिशन की विफलता ने साम्प्रदायिक विभाजन को गहरा किया, जो अंततः भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन का कारण बना। INA मुकदमों और साम्प्रदायिक दंगों ने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया और स्वतंत्रता को अपरिहार्य बना दिया। वावेल की नीतियाँ स्वतंत्रता की प्रक्रिया को तेज करने में पूरी तरह सफल नहीं रहीं, लेकिन उन्होंने सत्ता हस्तांतरण की नींव रखी।
Conclusion
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