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Lord Linlithgow
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लॉर्ड लिनलिथगो का शासन (1936-1943)

लॉर्ड लिनलिथगो का शासन (1936-1943)
लॉर्ड लिनलिथगो (विक्टर अलेक्जेंडर जॉन होप, दूसरा मार्क्वेस ऑफ लिनलिथगो) का भारत में वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में शासन 1936 से 1943 तक रहा। यह ब्रिटिश भारत के इतिहास में सबसे लंबे समय तक वायसराय के रूप में कार्य करने वाला कार्यकाल था। उनका शासनकाल द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945), भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उग्र होने, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का दौर था। लॉर्ड लिनलिथगो एक सतर्क और रूढ़िगत प्रशासक थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के हितों को प्राथमिकता दी, लेकिन उनकी नीतियाँ भारतीय नेताओं और जनता के बीच अलोकप्रिय रहीं।
1. पृष्ठभूमि
लॉर्ड लिनलिथगो को 18 अप्रैल 1936 में भारत का वायसराय नियुक्त किया गया। वह लॉर्ड विलिंगडन के बाद आए, जिनके शासनकाल में 1935 का भारत सरकार अधिनियम लागू हुआ था। उनका कार्यकाल द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच बढ़ते तनाव, और स्वतंत्रता की माँग के चरम पर होने का समय था। लिनलिथगो का दृष्टिकोण रूढ़िगत और ब्रिटिश हितों को प्राथमिकता देने वाला था। उन्होंने भारतीय नेताओं के साथ सीमित संवाद बनाए रखा और राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने के लिए सख्त नीतियाँ अपनाईं।
2. प्रमुख नीतियाँ और घटनाएँ
2.1 1935 के भारत सरकार अधिनियम का कार्यान्वयन
पृष्ठभूमि: लॉर्ड विलिंगडन के शासनकाल में पारित 1935 का भारत सरकार अधिनियम लिनलिथगो के समय लागू हुआ। इसके तहत 1937 में प्रांतीय चुनाव हुए। प्रांतीय चुनाव (1937): इन चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया और 11 में से 7 प्रांतों (मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत, बंगाल, उड़ीसा, और बॉम्बे) में सरकारें बनाईं। मुस्लिम लीग का प्रदर्शन कमजोर रहा, जिसने मुहम्मद अली जिन्ना को साम्प्रदायिक आधार पर अपनी रणनीति को और मजबूत करने के लिए प्रेरित किया। लिनलिथगो की भूमिका: लिनलिथगो ने प्रांतीय स्वायत्तता को लागू करने में सहयोग किया, लेकिन केंद्रीय स्तर पर ब्रिटिश नियंत्रण को बनाए रखा। गवर्नर-जनरल और प्रांतीय गवर्नरों को व्यापक अधिकार दिए गए, जिससे कांग्रेस की सरकारें सीमित शक्ति के साथ काम कर रही थीं।
प्रभाव: कांग्रेस की सरकारों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, और भूमि सुधार जैसे क्षेत्रों में काम किया, लेकिन ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण उनकी स्वायत्तता सीमित रही। कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच तनाव बढ़ा, क्योंकि कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग कर रही थी।
2.2 द्वितीय विश्व युद्ध और भारत (1939-1945)
युद्ध की घोषणा (1939): सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने पर लॉर्ड लिनलिथगो ने बिना भारतीय नेताओं से परामर्श किए भारत को युद्ध में शामिल घोषित कर दिया। इस निर्णय का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीव्र विरोध किया, क्योंकि इसे भारतीयों की सहमति के बिना लिया गया था। मुस्लिम लीग ने युद्ध में ब्रिटिश समर्थन की पेशकश की, लेकिन बदले में विशेष साम्प्रदायिक अधिकार माँगे। कांग्रेस का इस्तीफा (1939): युद्ध में भारत को शामिल करने के विरोध में कांग्रेस ने अक्टूबर 1939 में सभी प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया। इससे प्रांतीय स्वायत्तता का प्रयोग रुक गया, और लिनलिथगो ने प्रांतों में ब्रिटिश गवर्नरों के माध्यम से शासन चलाया।
प्रभाव: भारत ने युद्ध में सैनिकों, संसाधनों, और आर्थिक सहायता के रूप में बड़ा योगदान दिया। लगभग 25 लाख भारतीय सैनिकों ने युद्ध में हिस्सा लिया। युद्ध के कारण भारत में आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ीं, जैसे महंगाई, खाद्य संकट, और करों में वृद्धि, जिसने जनता में असंतोष को बढ़ाया।
2.3 अगस्त प्रस्ताव (1940)
युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समर्थन हासिल करने की कोशिश की। लॉर्ड लिनलिथगो ने 8 अगस्त 1940 को अगस्त प्रस्ताव की घोषणा की, जिसमें निम्नलिखित बिंदु थे: युद्ध के बाद भारत को डोमिनियन स्टेटस देने का वादा। युद्ध के दौरान एक सलाहकार परिषद में भारतीयों को शामिल करना। एक संविधान सभा के गठन की बात, जिसमें भारतीय प्रतिनिधि शामिल होंगे। प्रतिक्रिया: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे अपर्याप्त माना, क्योंकि इसमें पूर्ण स्वराज और तत्काल स्वतंत्रता की कोई गारंटी नहीं थी। मुस्लिम लीग ने भी इसका विरोध किया, क्योंकि इसमें उनकी साम्प्रदायिक माँगों को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया गया। प्रभाव: अगस्त प्रस्ताव विफल रहा और भारतीय नेताओं के साथ ब्रिटिश सरकार का तनाव बढ़ा।
2.4 लाहौर प्रस्ताव और मुस्लिम लीग (1940)
मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर अधिवेशन में लाहौर प्रस्ताव पारित किया, जिसमें मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों के लिए अलग राष्ट्र (पाकिस्तान) की माँग उठाई। लिनलिथगो ने इस प्रस्ताव को गंभीरता से लिया और मुस्लिम लीग के साथ संवाद बनाए रखा, जिसे कुछ इतिहासकारों ने
2.5 भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
पृष्ठभूमि: द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की बढ़ती ताकत और भारत पर संभावित आक्रमण के खतरे ने ब्रिटिश सरकार को भारतीय समर्थन की आवश्यकता को उजागर किया। 1942 में क्रिप्स मिशन (Sir Stafford Cripps) भारत आया, जिसने युद्ध के बाद डोमिनियन स्टेटस और संविधान सभा का प्रस्ताव दिया। हालांकि, इसमें तत्काल स्वतंत्रता की कोई गारंटी नहीं थी, इसलिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने इसे अस्वीकार कर दिया। भारत छोड़ो आंदोलन: क्रिप्स मिशन की विफलता और ब्रिटिश सरकार की उदासीनता के जवाब में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 8 अगस्त 1942 को बॉम्बे में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया। महात्मा गांधी ने इसे
लिनलिथगो की प्रतिक्रिया: लिनलिथगो ने इस आंदोलन को दबाने के लिए अत्यंत सख्त नीतियाँ अपनाईं: 9 अगस्त 1942 को गांधी, नेहरू, पटेल, और अन्य कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस को फिर से गैर-कानूनी घोषित किया गया, और प्रेस पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई। पुलिस और सैन्य बलों का व्यापक उपयोग किया गया, जिसमें कई स्थानों पर गोलीबारी हुई। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, हजारों लोग मारे गए और लाखों गिरफ्तार हुए। प्रभाव: भारत छोड़ो आंदोलन ने ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया और स्वतंत्रता की माँग को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले गया। हालांकि आंदोलन को दबा दिया गया, इसने भारतीय जनता में स्वतंत्रता की भावना को और मजबूत किया।
2.6 बंगाल अकाल (1943)
1943 में बंगाल में एक भीषण अकाल पड़ा, जिसमें लाखों लोग मारे गए (अनुमानित 20-30 लाख मृत्यु)। इसके कारण थे: युद्ध के दौरान खाद्य आपूर्ति में कमी। ब्रिटिश सरकार की नीतियाँ, जैसे खाद्य निर्यात और सैन्य जरूरतों को प्राथमिकता। प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे चक्रवात और बाढ़। लिनलिथगो की भूमिका: लिनलिथगो की सरकार पर अकाल के प्रबंधन में लापरवाही और देरी का आरोप लगा। राहत कार्य धीमे और अपर्याप्त थे। उनकी नीतियों को भारतीय जनता और नेताओं ने क्रूर और असंवेदनशील माना। प्रभाव: बंगाल अकाल ने ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीयों का विश्वास और कम कर दिया और स्वतंत्रता की माँग को और मजबूत किया।
2.7 क्रांतिकारी गतिविधियाँ
लिनलिथगो के शासनकाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ जारी रहीं। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और अन्य संगठनों ने ब्रिटिश अधिकारियों और संपत्तियों पर हमले किए। आजाद हिंद फौज (1942-1943): सुभाष चंद्र बोस ने 1942 में आजाद हिंद फौज (Indian National Army, INA) का पुनर्गठन किया और जापान की सहायता से ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया। INA ने पूर्वोत्तर भारत में कुछ क्षेत्रों पर हमला किया, लेकिन ब्रिटिश सेना ने इसे दबा दिया। लिनलिथगो ने क्रांतिकारियों और INA पर सख्त कार्रवाई की, लेकिन सुभाष चंद्र बोस की गतिविधियों ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को और प्रेरित किया।
2.8 साम्प्रदायिक तनाव
लिनलिथगो के शासनकाल में हिंदू-मुस्लिम तनाव चरम पर था। मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग और कांग्रेस की एकता की नीति ने साम्प्रदायिक विभाजन को और गहरा किया। लिनलिथगो ने मुस्लिम लीग के साथ संवाद बनाए रखा, जिसे कुछ इतिहासकारों ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने की नीति माना।
2.9 प्रशासनिक और आर्थिक नीतियाँ
.9 प्रशासनिक और आर्थिक नीतियाँ: आर्थिक स्थिति: द्वितीय विश्व युद्ध और वैश्विक मंदी के कारण भारत में आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ीं। महंगाई, खाद्य संकट, और करों में वृद्धि ने जनता में असंतोष को बढ़ाया। प्रशासनिक सुधार: लिनलिथगो ने रेलवे, सिंचाई, और युद्ध-संबंधी बुनियादी ढांचे को बढ़ावा दिया। नई दिल्ली को पूरी तरह कार्यात्मक राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। शिक्षा और सामाजिक सुधार: लिनलिथगो ने शिक्षा और सामाजिक सुधारों में सीमित रुचि दिखाई, क्योंकि उनका ध्यान युद्ध और राष्ट्रीय आंदोलन को नियंत्रित करने पर था।
3. महत्व और प्रभाव
भारत छोड़ो आंदोलन: यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा जन-आंदोलन था, जिसने ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया। इसने स्वतंत्रता की माँग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया। 1935 का भारत सरकार अधिनियम: इस अधिनियम का कार्यान्वयन और प्रांतीय स्वायत्तता ने भारतीयों को शासन में भागीदारी का अनुभव दिया, लेकिन यह पूर्ण स्वराज से बहुत दूर था। बंगाल अकाल: इस अकाल ने ब्रिटिश शासन की असंवेदनशीलता को उजागर किया और स्वतंत्रता की माँग को और मजबूत किया। साम्प्रदायिकता: लाहौर प्रस्ताव और मुस्लिम लीग की बढ़ती माँगों ने भारत के विभाजन की नींव रखी। क्रांतिकारी आंदोलन और INA: सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज ने सशस्त्र संघर्ष को नई दिशा दी, जिसने ब्रिटिश शासन को कमजोर किया।
4. कार्यकाल का अंत
लॉर्ड लिनलिथगो ने 1 अक्टूबर 1943 में अपना कार्यकाल पूरा किया, और उनके बाद लॉर्ड वावेल भारत के वायसराय बने। लिनलिथगो ब्रिटेन लौट गए और बाद में ब्रिटिश प्रशासन में अन्य भूमिकाएँ निभाईं।
5. विरासत
लॉर्ड लिनलिथगो का शासनकाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे तनावपूर्ण दौरों में से एक था। उनकी सख्त और रूढ़िगत नीतियों ने भारत छोड़ो आंदोलन और क्रांतिकारी गतिविधियों को दबाने की कोशिश की, लेकिन ये प्रयास स्वतंत्रता की लहर को रोक नहीं सके। बंगाल अकाल ने उनकी प्रशासनिक विफलता को उजागर किया और ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीयों का विश्वास पूरी तरह खत्म कर दिया। 1935 के अधिनियम का कार्यान्वयन और प्रांतीय स्वायत्तता ने संवैधानिक विकास को आगे बढ़ाया, लेकिन यह भारतीयों की स्वतंत्रता की माँग को पूरा नहीं कर सका। लिनलिथगो का कार्यकाल साम्प्रदायिक तनावों और विभाजन की नींव के लिए भी याद किया जाता है।
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