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Lord Irwin
jp Singh 2025-05-28 09:48:05
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लॉर्ड इरविन का शासन (1926-1931)

लॉर्ड इरविन का शासन (1926-1931)
लॉर्ड इरविन (एडवर्ड फ्रेडरिक लिंडले वुड, प्रथम बैरन इरविन, बाद में विस्काउंट हैलिफैक्स) का भारत में वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में शासन 1926 से 1931 तक रहा। उनका कार्यकाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण दौर में था, जिसमें महात्मा गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, और प्रथम गोलमेज सम्मेलन जैसी घटनाएँ शामिल थीं। लॉर्ड इरविन एक उदारवादी और कूटनीतिक प्रशासक थे, जिन्होंने भारतीय नेताओं के साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन उनकी नीतियाँ ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों और भारतीय स्वराज की माँगों के बीच संतुलन बनाने में पूरी तरह सफल नहीं हुईं।
1. पृष्ठभूमि
लॉर्ड इरविन को 3 अप्रैल 1926 में भारत का वायसराय नियुक्त किया गया। वह लॉर्ड रीडिंग के बाद आए, जिनके शासनकाल में असहयोग आंदोलन और स्वराज पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन को गति दी थी। इरविन एक धार्मिक और उदारवादी व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीयों की स्वशासन की माँगों को समझने की कोशिश की। उनका दृष्टिकोण कूटनीतिक और संवाद-आधारित था, लेकिन वह ब्रिटिश साम्राज्य की सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थे। उनके शासनकाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और महात्मा गांधी का प्रभाव बढ़ रहा था, और क्रांतिकारी गतिविधियाँ (जैसे भगत सिंह के नेतृत्व में) भी तेज हो रही थीं। साथ ही, साम्प्रदायिक तनाव और आर्थिक कठिनाइयाँ भी चुनौतियाँ थीं।
2. प्रमुख नीतियाँ और घटनाएँ
2.1 साइमन कमीशन (1927-1930)
ष्ठभूमि: 1919 के भारत सरकार अधिनियम (मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) में यह प्रावधान था कि 10 वर्ष बाद भारत में संवैधानिक सुधारों की प्रगति की समीक्षा की जाएगी। इसके लिए 1927 में ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन (Sir John Simon के नेतृत्व में) नियुक्त किया। विरोध: कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था, जिसके कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग, और अन्य संगठनों ने इसका तीव्र विरोध किया।
2.2 नेहरू रिपोर्ट (1928)
साइमन कमीशन के विरोध के जवाब में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया, जिसके परिणामस्वरूप मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू रिपोर्ट तैयार की गई। प्रमुख बिंदु: भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस (स्वशासन) की माँग। साम्प्रदायिक निर्वाचन (पृथक निर्वाचन) को समाप्त करने और संयुक्त निर्वाचन की सिफारिश। एक संविधान का मसौदा, जिसमें मौलिक अधिकार और संघीय ढाँचा शामिल था। प्रभाव: नेहरू रिपोर्ट को कांग्रेस के उदारवादी धड़े ने समर्थन दिया, लेकिन मुस्लिम लीग (मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में) ने इसका विरोध किया, क्योंकि इसमें पृथक निर्वाचन को समाप्त करने की बात थी। इससे हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ा। लॉर्ड इरविन ने नेहरू रिपोर्ट को गंभीरता से लिया और भारतीयों के साथ संवाद की कोशिश की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया।
2.3 पूर्ण स्वराज की माँग (1929)
नेहरू रिपोर्ट पर सहमति न बनने और साइमन कमीशन के प्रति असंतोष के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) की माँग को स्वीकार किया। जवाहरलाल नेहरू इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। कांग्रेस ने 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया, जिसे पूरे भारत में उत्साह के साथ मनाया गया। लॉर्ड इरविन ने इस माँग को गंभीरता से लिया और भारतीय नेताओं के साथ बातचीत शुरू करने की कोशिश की।
2.4 नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930)
नमक सत्याग्रह: 12 मार्च 1930 को, महात्मा गांधी ने दांडी नमक सत्याग्रह शुरू किया, जिसमें वे 240 मील की यात्रा करके दांडी (गुजरात) पहुँचे और 6 अप्रैल 1930 को समुद्र तट पर नमक बनाकर ब्रिटिश नमक कानून को तोड़ा। यह सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश कानूनों का अहिंसक तरीके से उल्लंघन करना था। सविनय अवज्ञा आंदोलन: नमक सत्याग्रह ने पूरे भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रेरित किया। लाखों भारतीयों ने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया, करों का भुगतान रोक दिया, और सभाएँ आयोजित कीं। सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिए सख्त कदम उठाए। हजारों प्रदर्शनकारी, जिनमें गांधी, जवाहरलाल नेहरू, और सरदार पटेल जैसे नेता शामिल थे, गिरफ्तार किए गए।
2.4 नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930)
प्रभाव: नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले गया। नमक सत्याग्रह की सादगी और अहिंसक प्रकृति ने इसे जन-आंदोलन में बदल दिया, जिसमें महिलाएँ, किसान, और विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हुए। इस आंदोलन ने ब्रिटिश शासन को आर्थिक और नैतिक रूप से चुनौती दी। विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों का बहिष्कार, साथ ही नमक कर का उल्लंघन, ब्रिटिश राजस्व को प्रभावित करने वाला था। लॉर्ड इरविन ने इस आंदोलन को दबाने के लिए सख्ती बरती, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी समझा कि भारतीयों की माँगों को पूरी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता।
2.5 गांधी-इरविन समझौता (1931)
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दबाव और भारतीय नेताओं के साथ संवाद की आवश्यकता को देखते हुए, लॉर्ड इरविन ने महात्मा गांधी के साथ बातचीत शुरू की। 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता (Gandhi-Irwin Pact) पर हस्ताक्षर किए गए। इसके प्रमुख बिंदु थे: सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करना। राजनीतिक कैदियों (क्रांतिकारियों को छोड़कर) की रिहाई। तटीय क्षेत्रों में नमक बनाने की अनुमति। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने की अनुमति। प्रभाव: इस समझौते ने ब्रिटिश सरकार और भारतीय नेताओं के बीच संवाद का एक नया चरण शुरू किया। यह पहली बार था जब ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के साथ औपचारिक समझौता किया, जिसने गांधी और कांग्रेस की राजनीतिक ताकत को मान्यता दी। हालांकि, कई भारतीय नेताओं (विशेष रूप से जवाहरलाल नेहरू और युवा कार्यकर्ताओं) ने इस समझौते को अपर्याप्त माना, क्योंकि यह पूर्ण स्वराज की माँग को पूरा नहीं करता था।
समझौता अस्थायी था, और सविनय अवज्ञा आंदोलन बाद में फिर से शुरू हुआ।
2.6 गोलमेज सम्मेलन (1930-1931)
प्रथम गोलमेज सम्मेलन (1930): साइमन कमीशन की सिफारिशों के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के भविष्य के संवैधानिक ढाँचे पर चर्चा के लिए लंदन में गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया। प्रथम सम्मेलन 12 नवंबर 1930 से जनवरी 1931 तक चला। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया, क्योंकि गांधी और अन्य नेता जेल में थे। सम्मेलन में मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, रियासतों के प्रतिनिधि, और अन्य समूहों ने भाग लिया। इसने संघीय ढाँचे और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व पर चर्चा की, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। लॉर्ड इरविन की भूमिका: इरविन ने इस सम्मेलन को भारतीयों की माँगों को समझने का अवसर माना। उन्होंने गांधी के साथ समझौता करके कांग्रेस को दूसरे सम्मेलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। प्रभाव: प्रथम गोलमेज सम्मेलन ने भारत के लिए एक संघीय संविधान की रूपरेखा तैयार करने की दिशा में काम शुरू किया, जो बाद में 1935 के भारत सरकार अधिनियम का आधार बना।
2.7 क्रांतिकारी गतिविधियाँ और भगत सिंह
इरविन के शासनकाल में क्रांतिकारी आंदोलनों ने नई ऊँचाइयाँ छुईं। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के नेतृत्व में भगत सिंह, सुखदेव, और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों ने सशस्त्र संघर्ष को तेज किया। लाहौर षड्यंत्र केस (1929-1930): 1928 में साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय की मृत्यु के बाद, भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या की। 8 अप्रैल 1929 को, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बम फेंका, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ प्रतीकात्मक विरोध था। उन्होंने नारे लगाए:
प्रभाव: भगत सिंह की फाँसी ने पूरे भारत में आक्रोश पैदा किया और क्रांतिकारी आंदोलन को प्रेरित किया। उनकी शहादत ने युवाओं में राष्ट्रीय चेतना को और जागृत किया। इरविन पर इस फाँसी को रोकने का दबाव था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे साम्राज्यवादी शक्ति के प्रदर्शन के रूप में देखा।
2.8 साम्प्रदायिक तनाव
इरविन के शासनकाल में हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ा। नेहरू रिपोर्ट (1928) और पृथक निर्वाचन की माँग पर मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच मतभेद गहरे हो गए। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1929 में अपनी 14 सूत्री माँगें प्रस्तुत कीं, जिनमें मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक निर्वाचन और विशेष अधिकारों की माँग शामिल थी। इरविन ने साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने की कोशिश की, लेकिन उनकी नीतियाँ इस समस्या को पूरी तरह हल नहीं कर सकीं।
2.9 प्रशासनिक और आर्थिक नीतियाँ
इरविन ने रेलवे और सिंचाई परियोजनाओं को बढ़ावा दिया, और नई दिल्ली के निर्माण कार्य को गति दी। आर्थिक कठिनाइयाँ: वैश्विक आर्थिक मंदी (1929) ने भारत की अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। ग्रामीण क्षेत्रों में करों और कर्ज के बोझ ने किसानों में असंतोष बढ़ाया। इरविन ने कुछ आर्थिक सुधारों की कोशिश की, जैसे कर प्रणाली में सुधार और सहकारी समितियों को बढ़ावा देना, लेकिन ये अपर्याप्त थे।
2.10 इरविन की घोषणा (1929)
31 अक्टूबर 1929 को, लॉर्ड इरविन ने
3. महत्व और प्रभाव
सविनय अवज्ञा आंदोलन: नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक वैश्विक जन आंदोलन में बदल दिया। इसने ब्रिटिश शासन की नैतिक और आर्थिक नींव को हिलाकर रख दिया। गांधी-इरविन समझौता: यह समझौता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच पहला औपचारिक संवाद था, जिसने कांग्रेस की राजनीतिक ताकत को मान्यता दी। क्रांतिकारी आंदोलन: भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत ने सशस्त्र संघर्ष को प्रेरित किया और युवाओं में राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया। संवैधानिक विकास: साइमन कमीशन, इरविन घोषणा, और गोलमेज सम्मेलन ने भारत के लिए संवैधानिक सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाया, जो बाद में 1935 के भारत सरकार अधिनियम का आधार बना। साम्प्रदायिकता: हिंदू-मुस्लिम तनाव और मुस्लिम लीग की बढ़ती माँगों ने साम्प्रदायिक विभाजन को गहरा किया, जो बाद में भारत के विभाजन का कारण बना।
4. कार्यकाल का अंत
लॉर्ड इरविन ने 18 अप्रैल 1931 में अपना कार्यकाल पूरा किया, और उनके बाद लॉर्ड विलिंगडन भारत के वायसराय बने। इरविन ब्रिटेन लौट गए और बाद में ब्रिटिश कूटनीति में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं, विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान। 5. विरासत: लॉर्ड इरविन का शासनकाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने महात्मा गांधी को विश्व स्तर पर एक नेता के रूप में स्थापित किया। उनकी उदारवादी और कूटनीतिक नीतियों, जैसे गांधी-इरविन समझौता और इरविन घोषणा, ने ब्रिटिश शासन और भारतीय नेताओं के बीच संवाद की शुरुआत की, लेकिन पूर्ण स्वराज की माँग को पूरा करने में असफल रहीं। साइमन कमीशन और गोलमेज सम्मेलन ने भारत के संवैधानिक भविष्य पर चर्चा शुरू की, लेकिन भारतीयों की अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सके। भगत सिंह की शहादत और क्रांतिकारी गतिविधियों ने स्वतंत्रता संग्राम में सशस्त्र संघर्ष की भूमिका को उजागर किया।
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