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Lord Minto's rule (1905-1910)
jp Singh 2025-05-27 17:09:23
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लॉर्ड मिंटो का शासन (1905-1910)

लॉर्ड मिंटो का शासन (1905-1910)
लॉर्ड मिंटो (गिल्बर्ट इलियट-मरे-किनिनमौंड, चौथा अर्ल ऑफ मिंटो) का भारत में वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में शासन 1905 से 1910 तक रहा। उनका कार्यकाल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास और ब्रिटिश शासन के लिए एक महत्वपूर्ण दौर था। लॉर्ड मिंटो ने अपने पूर्ववर्ती लॉर्ड कर्जन की विवादास्पद नीतियों, विशेष रूप से बंगाल विभाजन, के बाद उत्पन्न तनाव को कम करने की कोशिश की और भारतीयों को सीमित राजनीतिक सुधार प्रदान किए। उनके शासनकाल में मॉर्ले-मिंटो सुधार सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। नीचे उनके शासन का संक्षिप्त और व्यापक विवरण दिया गया है
1. पृष्ठभूमि
लॉर्ड मिंटो को 1905 में भारत का वायसराय नियुक्त किया गया, जब लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन (1905) के कारण भारत में व्यापक असंतोष और स्वदेशी आंदोलन चरम पर था। उनका कार्यकाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी और उग्रवादी धड़ों के बीच बढ़ते तनाव और ब्रिटिश शासन के खिलाफ बढ़ती राष्ट्रीय चेतना का दौर था। मिंटो का दृष्टिकोण अपने पूर्ववर्ती कर्जन की तुलना में अधिक सुलझा हुआ और भारतीय भावनाओं के प्रति संवेदनशील था।
2. प्रमुख नीतियाँ और घटनाएँ
मॉर्ले-मिंटो सुधार (1909): लॉर्ड मिंटो और ब्रिटिश सरकार में भारत सचिव जॉन मॉर्ले के सहयोग से 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम (Indian Councils Act, 1909) लागू किया गया, जिसे मॉर्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है। मुख्य प्रावधान: केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में भारतीयों की भागीदारी बढ़ाई गई। पहली बार भारतीयों को परिषदों में निर्वाचित प्रतिनिधित्व की अनुमति दी गई। पृथक निर्वाचन (Separate Electorate): मुस्लिम समुदाय के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई, जिससे मुस्लिमों को अपनी अलग पहचान के आधार पर प्रतिनिधित्व मिला। यह नीति बाद में हिंदू-मुस्लिम विभाजन को बढ़ाने का कारण बनी। गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों को बजट पर चर्चा करने और प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया, लेकिन वास्तविक शक्ति ब्रिटिश अधिकारियों के पास ही रही।
प्रभाव: इन सुधारों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी धड़े ने स्वागत किया, लेकिन उग्रवादी नेताओं (जैसे बाल गंगाधर तिलक) ने इसे अपर्याप्त माना। पृथक निर्वाचन की नीति ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव भारत के विभाजन के रूप में देखा गया। यह सुधार भारतीयों को सीमित राजनीतिक भागीदारी प्रदान करने वाला पहला कदम था, जो बाद के सुधारों (जैसे 1919 और 1935 के अधिनियम) का आधार बना। बंगाल विभाजन और स्वदेशी आंदोलन: लॉर्ड मिंटो को लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन (1905) से उत्पन्न असंतोष का सामना करना पड़ा। स्वदेशी आंदोलन और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार ने ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। मिंटो ने इस आंदोलन को दबाने के लिए सख्त कदम उठाए, जैसे कि सेडिशन एक्ट के तहत कई राष्ट्रवादी नेताओं (जैसे बाल गंगाधर तिलक) को गिरफ्तार किया गया और प्रेस पर नियंत्रण बढ़ाया गया।
हालांकि, उन्होंने भारतीय जनता की भावनाओं को समझने की कोशिश की और ब्रिटिश सरकार को अधिक उदार नीतियों की सलाह दी। मुस्लिम लीग की स्थापना (1906): लॉर्ड मिंटो के शासनकाल में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में ढाका में हुई। इसका नेतृत्व आगा खान और नवाब सलीमुल्लाह जैसे नेताओं ने किया। मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार से मुस्लिम समुदाय के लिए विशेष अधिकारों की माँग की, जिसे मॉर्ले-मिंटो सुधारों में पृथक निर्वाचन के रूप में स्वीकार किया गया। मिंटो ने मुस्लिम नेताओं के साथ संवाद बनाए रखा, जिसे कुछ इतिहासकारों ने
प्रशासनिक और आर्थिक नीतियाँ: मिंटो ने प्रशासनिक सुधारों पर ध्यान दिया और लॉर्ड कर्जन द्वारा शुरू की गई रेलवे, सिंचाई, और कृषि परियोजनाओं को आगे बढ़ाया। उन्होंने ब्रिटिश भारत में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस और सैन्य संगठन को मजबूत किया। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में कबायली विद्रोहों को नियंत्रित करने के लिए सैन्य अभियान चलाए गए।
प्रेस और राष्ट्रवादी आंदोलन पर नियंत्रण: स्वदेशी आंदोलन और उग्र राष्ट्रवाद के उदय के कारण मिंटो ने प्रेस पर सख्ती बढ़ाई। 1908 का समाचार पत्र अधिनियम (Newspapers Act) लागू किया गया, जिसने समाचार पत्रों पर सेंसरशिप को और सख्त किया। कई राष्ट्रवादी नेताओं को गिरफ्तार किया गया, और क्रांतिकारी गतिविधियों (जैसे बम विस्फोट और हत्याएँ) को दबाने के लिए कठोर कदम उठाए गए।
3. महत्व और प्रभाव
मॉर्ले-मिंटो सुधार: यह भारत में संवैधानिक सुधारों की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम था। हालाँकि यह सुधार सीमित था, लेकिन इसने भारतीयों को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर दिया और बाद के सुधारों का आधार तैयार किया। साम्प्रदायिकता का उदय: पृथक निर्वाचन की नीति ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहरा किया, जो बाद में भारत के विभाजन का एक कारण बना। राष्ट्रीय आंदोलन का विकास: मिंटो के शासनकाल में स्वदेशी आंदोलन और उग्र राष्ट्रवाद ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा दी। यह दौर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी और उग्रवादी धड़ों के बीच विभाजन (1907 का सूरत अधिवेशन) का भी गवाह बना।
ब्रिटिश नीतियों में संतुलन: मिंटो ने कठोर और उदार नीतियों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की। उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों को दबाया, लेकिन साथ ही भारतीयों को सीमित राजनीतिक अधिकार भी दिए।
4. कार्यकाल का अंत
लॉर्ड मिंटो ने 1910 में अपना कार्यकाल पूरा किया और उनके बाद लॉर्ड हार्डिंग भारत के वायसराय बने। मिंटो ब्रिटेन लौट गए और बाद में ब्रिटिश राजनीति में सक्रिय रहे।5. विरासत: लॉर्ड मिंटो का शासनकाल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास और ब्रिटिश शासन की चुनौतियों के लिए महत्वपूर्ण था। मॉर्ले-मिंटो सुधारों ने भारतीयों को पहली बार विधायी परिषदों में प्रतिनिधित्व दिया, लेकिन पृथक निर्वाचन की नीति ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल ने स्वदेशी आंदोलन को मजबूत किया, जिसने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को और जागृत किया।
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