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Robert Bulwer-Lytton, 1st Earl of Lytton, 1831-1891
jp Singh 2025-05-27 16:51:15
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लॉर्ड लिटन का शासनकाल (1876-1880)

लॉर्ड लिटन का शासनकाल (1876-1880)
लॉर्ड लिटन (रॉबर्ट बुल्वर-लिटन, प्रथम अर्ल ऑफ लिटन, Robert Bulwer-Lytton, 1st Earl of Lytton, 1831-1891) भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में मई 1876 से जून 1880 तक कार्यरत रहे। वे लॉर्ड नॉर्थब्रूक के उत्तराधिकारी थे और उनके शासनकाल में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों को आक्रामक रूप से लागू किया गया। लॉर्ड लिटन का कार्यकाल उनकी साम्राज्यवादी नीतियों, विशेष रूप से अफगान नीति, 1877 के दिल्ली दरबार, और विवादास्पद प्रेस कानून के लिए जाना जाता है। हालांकि, उनके शासनकाल में भारत में अकाल और आर्थिक कठिनाइयों ने उनकी नीतियों को अलोकप्रिय बनाया।
1. पृष्ठभूमि और नियुक्ति
पृष्ठभूमि: रॉबर्ट बुल्वर-लिटन एक ब्रिटिश कवि, लेखक, और राजनयिक थे। वे एक साहित्यकार (उनके उपन्यास और कविताएं प्रसिद्ध थीं) होने के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार के लिए राजनयिक के रूप में कार्य कर चुके थे। भारत आने से पहले, वे पुर्तगाल और फ्रांस में ब्रिटिश राजनयिक मिशनों में कार्यरत थे। उनकी नियुक्ति ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजरायली की साम्राज्यवादी नीतियों का हिस्सा थी, जो भारत में ब्रिटिश प्रभाव को और बढ़ाना चाहते थे।
नियुक्ति: लॉर्ड नॉर्थब्रूक के मई 1876 में इस्तीफे के बाद, लॉर्ड लिटन को भारत का वायसराय और गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। उनका कार्यकाल जून 1880 तक चला।
उद्देश्य: लॉर्ड लिटन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति और वैभव को प्रदर्शित करना, रूस के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए अफगान नीति को लागू करना, और भारत में ब्रिटिश प्रशासन को और मजबूत करना था।
2. शासनकाल की प्रमुख विशेषताएं
लॉर्ड लिटन का शासनकाल ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों, सांस्कृतिक प्रदर्शन, और विवादास्पद निर्णयों के लिए जाना जाता है। उनके कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण घटनाएं और नीतियां लागू हुईं।
2.1. 1877 का दिल्ली दरबार
दिल्ली दरबार: 1 जनवरी 1877 को लॉर्ड लिटन ने दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन किया, जिसमें रानी विक्टोरिया को
इस दरबार में भारतीय रियासतों के शासकों, कुलीनों, और ब्रिटिश अधिकारियों को आमंत्रित किया गया। यह आयोजन दिल्ली में रिज क्षेत्र में हुआ और इसे भव्य रूप से आयोजित किया गया।
दिल्ली दरबार ने दिल्ली को ब्रिटिश भारत के एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में पुनर्जनन किया, जो बाद में 1911 में इसे राजधानी बनाने का आधार बना।
प्रभाव: इस आयोजन ने ब्रिटिश शासन की भव्यता को प्रदर्शित किया, लेकिन यह भारतीय जनता में अलोकप्रिय था, क्योंकि यह उस समय हुआ जब दक्षिण भारत में भयंकर अकाल (1876-78) था।
2.2. अफगान नीति और द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध
आक्रामक विदेश नीति: लॉर्ड लिटन ने रूस के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए अफगानिस्तान के प्रति आक्रामक नीति अपनाई, जो
द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध (1878-1880): लॉर्ड लिटन ने अफगान अमीर शेर अली खान पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश मिशन को काबुल में स्वीकार करे। जब शेर अली ने रूसी मिशन को स्वीकार किया और ब्रिटिश मिशन को अस्वीकार कर दिया, तो लिटन ने युद्ध की घोषणा कर दी। 1878 में ब्रिटिश सेना ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। युद्ध के शुरुआती चरण में ब्रिटिश सेना ने कई जीत हासिल की, और शेर अली की मृत्यु के बाद उनके बेटे याकूब खान ने 1879 में गंडमक संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के तहत अफगानिस्तान ने ब्रिटिश नियंत्रण में अपनी विदेश नीति सौंप दी, और ब्रिटिश मिशन को काबुल में स्थापित किया गया। हालांकि, 1879 में काबुल में ब्रिटिश मिशन पर हमला हुआ, जिसके बाद युद्ध फिर से शुरू हुआ।
लिटन के कार्यकाल के अंत तक युद्ध जारी रहा, और यह उनके उत्तराधिकारी लॉर्ड रिपन के समय में समाप्त हुआ। प्रभाव: इस युद्ध ने ब्रिटिश संसाधनों पर भारी दबाव डाला और भारत में करों को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी, जिसने भारतीय जनता में असंतोष को बढ़ाया।
2.3. वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878)
प्रेस पर नियंत्रण: लॉर्ड लिटन ने 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट लागू किया, जिसके तहत भारतीय भाषाओं (वर्नाक्यूलर) में प्रकाशित समाचार पत्रों पर सख्त सेंसरशिप लगाई गई। इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ बढ़ते असंतोष और राष्ट्रीय चेतना को दबाना था। विवाद: यह कानून भारतीय प्रेस और बुद्धिजीवियों में अत्यंत अलोकप्रिय था। इसे भारतीयों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना गया और इसने राष्ट्रीय आंदोलन को और प्रेरित किया। प्रभाव: इस कानून ने भारतीय प्रेस को दबाने की कोशिश की, लेकिन इसने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुटता को बढ़ाया। बाद में लॉर्ड रिपन ने 1882 में इस कानून को रद्द कर दिया।
2.4. 1876-78 का अकाल
दक्षिण भारत में अकाल: लॉर्ड लिटन के शासनकाल में दक्षिण भारत (विशेष रूप से मद्रास प्रेसीडेंसी) में 1876-78 का भयंकर अकाल पड़ा, जिसे
विकास रेलवे और टेलीग्राफ: लिटन के शासनकाल में रेलवे और टेलीग्राफ नेटवर्क का विस्तार जारी रहा। दिल्ली को रेलवे के माध्यम से ब्रिटिश भारत के अन्य हिस्सों से और बेहतर ढंग से जोड़ा गया, जिसने शहर का व्यापारिक और प्रशासनिक महत्व बढ़ाया। सिंचाई: नॉर्थब्रूक की तरह, लिटन ने भी सिंचाई परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिया। पंजाब और उत्तर भारत में नहरों का विकास हुआ, जिसने दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा दिया। आर्थिक नीतियां: लिटन ने अफगान युद्ध और दिल्ली दरबार जैसे खर्चों को पूरा करने के लिए करों में वृद्धि की, जिसने भारतीय जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ाया। उनकी आर्थिक नीतियां अलोकप्रिय थीं, विशेष रूप से अकाल के दौरान।
2.6. प्रशासनिक सुधार
स्थानीय प्रशासन: दिल्ली पंजाब प्रांत के अधीन एक जिला बनी रही। लिटन ने स्थानीय प्रशासन को और व्यवस्थित करने के लिए अधिकारियों की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया। भारतीयों को निम्न-स्तरीय प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया गया, लेकिन उच्च पद ब्रिटिश अधिकारियों के पास रहे। सैन्य नियंत्रण: लाल किला और अन्य रणनीतिक स्थल ब्रिटिश सेना के नियंत्रण में रहे। दिल्ली को एक महत्वपूर्ण सैन्य केंद्र बनाए रखा गया, ताकि 1857 जैसे विद्रोह की पुनरावृत्ति न हो।
2.7. दिल्ली में प्रभाव
877 का दिल्ली दरबार: दिल्ली में आयोजित दरबार ने शहर को ब्रिटिश भारत के एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में पुनर्जनन किया। यह आयोजन ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति का प्रतीक था, लेकिन अकाल के दौरान इसकी भव्यता ने जनता में असंतोष पैदा किया। प्रशासनिक ढांचा: दिल्ली में ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर और अन्य अधिकारियों ने स्थानीय प्रशासन, राजस्व संग्रह, और कानून-व्यवस्था को संभाला। लिटन की नीतियों ने दिल्ली में प्रशासन को और मजबूत किया। सांस्कृतिक परिवर्तन: दिल्ली की मुगलकालीन सांस्कृतिक पहचान, जैसे उर्दू साहित्य और मुशायरे, कमजोर पड़ रही थी। लिटन के शासनकाल में अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया, और दिल्ली में अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना को प्रोत्साहन मिला।
आर्थिक विकास: दिल्ली में रेलवे और सड़क नेटवर्क का विकास हुआ, जिसने शहर को ब्रिटिश भारत के अन्य हिस्सों से जोड़ा। चांदनी चौक जैसे बाजार व्यापारिक केंद्र बने रहे। हालांकि, लिटन की कर वृद्धि और अकाल के दौरान अपर्याप्त राहत ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में आर्थिक कठिनाइयों को बढ़ाया।
3. कार्यकाल का अंत और इस्तीफा
इस्तीफा: लॉर्ड लिटन ने जून 1880 में वायसराय के पद से इस्तीफा दे दिया। उनका इस्तीफा ब्रिटिश सरकार के साथ नीतिगत मतभेदों और उनकी अलोकप्रिय नीतियों (विशेष रूप से वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और अकाल राहत की विफलता) के कारण था। इसके अलावा, द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध की जटिलताओं ने उनके शासन को विवादास्पद बनाया।
उत्तराधिकारी: उनके बाद लॉर्ड रिपन (जॉर्ज रॉबिन्सन, मार्क्वेस ऑफ रिपन) जून 1880 में भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल बने। मृत्यु: लॉर्ड लिटन की मृत्यु 24 नवंबर 1891 को पेरिस में हुई।
4. ऐतिहासिक महत्व
साम्राज्यवादी नीतियां: लॉर्ड लिटन का शासनकाल ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों का प्रतीक था। 1877 का दिल्ली दरबार और अफगान युद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को प्रदर्शित किया, लेकिन इन नीतियों ने भारतीय जनता में असंतोष को बढ़ाया।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट: इस कानून ने भारतीय प्रेस को दबाने की कोशिश की, लेकिन इसने राष्ट्रीय चेतना को और प्रेरित किया, जो बाद में स्वतंत्रता आंदोलनों का आधार बना। अकाल की विफलता: 1876-78 के अकाल के दौरान लिटन की अपर्याप्त राहत नीतियों ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया और ब्रिटिश शासन की आलोचना को बढ़ाया। दिल्ली का महत्व: 1877 के दिल्ली दरबार ने दिल्ली को ब्रिटिश भारत के एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में पुनर्जनन किया। यह बाद में 1911 में दिल्ली को राजधानी बनाने का आधार बना। स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि: लिटन की अलोकप्रिय नीतियों, जैसे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और कर वृद्धि, ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष को बढ़ाया, जो राष्ट्रीय आंदोलनों की नींव बना।5. विरासत लॉर्ड लिटन को एक साम्राज्यवादी वायसराय के रूप में याद किया जाता है, जिनकी नीतियां ब्रिटिश शासन की शक्ति को प्रदर्शित करने के लिए थीं, लेकिन भारतीय जनता में अलोकप्रिय थीं।
1877 का दिल्ली दरबार उनकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि थी, जिसने दिल्ली को ब्रिटिश भारत के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में स्थापित किया। उनकी वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और अकाल राहत की विफलता ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) और स्वतंत्रता आंदोलनों का आधार बना। दिल्ली में उनके शासनकाल ने शहर का प्रशासनिक और सैन्य महत्व बढ़ाया, और रेलवे-सड़क नेटवर्क के विकास ने शहर को आर्थिक रूप से मजबूत किया।
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