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Thomas George Baring, 1st Earl of Northbrook, 1826-1904
jp Singh 2025-05-27 16:48:14
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लॉर्ड नॉर्थब्रूक का शासनकाल (1872-1876)

लॉर्ड नॉर्थब्रूक का शासनकाल (1872-1876)
लॉर्ड नॉर्थब्रूक (थॉमस जॉर्ज बारिंग, प्रथम अर्ल ऑफ नॉर्थब्रूक, Thomas George Baring, 1st Earl of Northbrook, 1826-1904) भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल के रूप में मई 1872 से मई 1876 तक कार्यरत रहे। वे लॉर्ड मेयो के उत्तराधिकारी थे, जिनकी 1872 में हत्या के बाद सर जॉन स्ट्रेची ने अंतरिम रूप से कार्यवाहक गवर्नर-जनरल के रूप में जिम्मेदारी संभाली थी। लॉर्ड नॉर्थब्रूक का शासनकाल भारत में ब्रिटिश प्रशासन को स्थिर करने, वित्तीय सुधारों को लागू करने, और सामाजिक-आर्थिक विकास पर ध्यान देने के लिए जाना जाता है। उनका दृष्टिकोण उदारवादी और संयमपूर्ण था, और उन्होंने भारतीयों के साथ सहानुभूतिपूर्ण संबंध बनाने की कोशिश की।
1. पृष्ठभूमि और नियुक्ति
पृष्ठभूमि: थॉमस जॉर्ज बारिंग एक प्रमुख ब्रिटिश राजनेता और प्रशासक थे। वे बारिंग बैंकिंग परिवार से थे और ब्रिटिश संसद में लिबरल पार्टी के सदस्य थे। भारत आने से पहले, उन्होंने ब्रिटिश सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, जिसमें नौसेना मंत्रालय में संसदीय सचिव (1857-1858) और भारत मंत्रालय में अवर सचिव (1859-1861) शामिल थे। उनकी वित्तीय विशेषज्ञता और प्रशासनिक अनुभव ने उन्हें भारत के लिए उपयुक्त वायसराय बनाया।
नियुक्ति: लॉर्ड मेयो की 8 फरवरी 1872 को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में हत्या के बाद, सर जॉन स्ट्रेची ने अंतरिम रूप से कार्यवाहक गवर्नर-जनरल की जिम्मेदारी संभाली। लॉर्ड नॉर्थब्रूक को मई 1872 में भारत का वायसराय और गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया, और वे मई 1876 तक इस पद पर रहे।
उद्देश्य: नॉर्थब्रूक का मुख्य उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन को और स्थिर करना, वित्तीय प्रबंधन को बेहतर करना, और भारतीय रियासतों और जनता के साथ सहानुभूतिपूर्ण संबंध बनाए रखना था।
2. शासनकाल की प्रमुख विशेषताएं
लॉर्ड नॉर्थब्रूक का शासनकाल भारत में वित्तीय सुधारों, सामाजिक स्थिरता, और विदेश नीति में संयम के लिए जाना जाता है। उनके कार्यकाल में कोई बड़ा सैन्य अभियान नहीं हुआ, और उन्होंने शांतिपूर्ण प्रशासन पर ध्यान दिया।
2.1. वित्तीय सुधार
वित्तीय प्रबंधन: नॉर्थब्रूक ने भारत की वित्तीय स्थिति को मजबूत करने पर विशेष ध्यान दिया। लॉर्ड मेयो की वित्तीय विकेंद्रीकरण नीति (1870) को और प्रभावी बनाया गया, जिसके तहत प्रांतीय सरकारों को राजस्व और व्यय में अधिक स्वायत्तता दी गई थी। उन्होंने भारत में कर प्रणाली को सुव्यवस्थित किया। 1873 में आयकर को अस्थायी रूप से हटाया गया, क्योंकि यह भारतीय जनता में अलोकप्रिय था। नॉर्थब्रूक ने सरकारी खर्चों को नियंत्रित करने और वित्तीय घाटे को कम करने की कोशिश की। उनकी नीतियों ने भारत में आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा दिया। दिल्ली में प्रभाव: दिल्ली, जो पंजाब प्रांत के अधीन एक जिला थी, में स्थानीय राजस्व संग्रह को और व्यवस्थित किया गया। नॉर्थब्रूक की वित्तीय नीतियों ने दिल्ली के स्थानीय प्रशासन को अधिक कुशल बनाया।
2.2. प्रशासनिक सुधार
स्थानीय प्रशासन: नॉर्थब्रूक ने स्थानीय प्रशासन को और मजबूत करने के लिए प्रांतीय और जिला स्तर पर अधिकारियों की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया। दिल्ली में ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर और अन्य अधिकारियों ने राजस्व संग्रह, कानून-व्यवस्था, और स्थानीय प्रशासन को संभाला। भारतीयों को निम्न-स्तरीय प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया गया, जिससे स्थानीय भागीदारी बढ़ी। न्यायिक सुधार: नॉर्थब्रूक ने भारत में न्यायिक प्रणाली को और सुचारु बनाने की कोशिश की। उन्होंने स्थानीय स्तर पर न्यायिक प्रक्रियाओं को सरल किया, ताकि जनता को त्वरित और निष्पक्ष न्याय मिल सके। दिल्ली में स्थानीय अदालतों को और व्यवस्थित किया गया, जिससे कानून-व्यवस्था में सुधार हुआ।
2.3. भारतीय रियासतों के साथ संबंध
नॉर्थब्रूक ने लॉर्ड मेयो की नीति को जारी रखते हुए भारतीय रियासतों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे। उन्होंने रियासतों को उनके स्वायत्त अधिकारों का सम्मान करने का आश्वासन दिया और उन्हें ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार बनाए रखा। उन्होंने कई रियासतों के शासकों के साथ मुलाकातें कीं और उन्हें पुरस्कार और सम्मान देकर उनकी निष्ठा सुनिश्चित की। उदाहरण के लिए, राजपूताना और मध्य भारत की रियासतों के साथ उनके संबंध मजबूत रहे। दिल्ली में, जो पहले मुगल साम्राज्य की राजधानी थी, नॉर्थब्रूक ने स्थानीय नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों के साथ सहयोग बनाए रखा।
2.4. सामाजिक और शैक्षिक सुधार
शिक्षा: नॉर्थब्रूक ने भारत में पश्चिमी शिक्षा को बढ़ावा देने की नीति को जारी रखा। उनके शासनकाल में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों की संख्या बढ़ी। दिल्ली में अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना को प्रोत्साहन मिला, जिसने स्थानीय आबादी की शैक्षिक संरचना को बदलना शुरू किया। हालांकि, मुगलकालीन उर्दू और फारसी शिक्षा प्रणाली कमजोर पड़ रही थी। नॉर्थब्रूक ने मेयो कॉलेज (अजमेर) के विकास को समर्थन दिया, जो भारतीय रियासतों के युवा राजकुमारों के लिए स्थापित किया गया था। सामाजिक नीतियां: नॉर्थब्रूक ने धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों में हस्तक्षेप से बचने की नीति अपनाई, जैसा कि रानी विक्टोरिया की 1858 की घोषणा में वादा किया गया था। यह नीति भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति विश्वास बढ़ाने में सहायक थी।
1873-74 में बिहार और उड़ीसा में अकाल पड़ा, जिसके दौरान नॉर्थब्रूक ने राहत कार्यों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया। उन्होंने अकाल प्रभावित क्षेत्रों में अनाज वितरण और राहत शिविरों की व्यवस्था की, जिसने उनकी सहानुभूतिपूर्ण छवि को मजबूत किया।2.5. बुनियादी ढांचा विकास रेलवे और टेलीग्राफ: नॉर्थब्रूक के शासनकाल में रेलवे और टेलीग्राफ नेटवर्क का विस्तार जारी रहा। दिल्ली को रेलवे के माध्यम से ब्रिटिश भारत के अन्य हिस्सों, जैसे कलकत्ता, बंबई, और लाहौर, से और बेहतर ढंग से जोड़ा गया। इससे दिल्ली का व्यापारिक और प्रशासनिक महत्व बढ़ा।
सिंचाई: नॉर्थब्रूक ने सिंचाई परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिया, विशेष रूप से पंजाब और उत्तर भारत में। गंगा नहर और अन्य परियोजनाओं का विस्तार हुआ, जिसने दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन को बढ़ाया। दिल्ली में विकास: दिल्ली में सड़क नेटवर्क और स्थानीय बुनियादी ढांचे का विकास हुआ। चांदनी चौक जैसे बाजार व्यापारिक केंद्र बने रहे, लेकिन स्थानीय कारीगरों और व्यापारियों पर ब्रिटिश नीतियों का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था।
2.6. विदेश नीति
उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति: नॉर्थब्रूक ने लॉर्ड जॉन लॉरेंस और मेयो की
2.7. दिल्ली में प्रभाव
प्रशासनिक ढांचा: दिल्ली पंजाब प्रांत के अधीन एक जिला बनी रही। नॉर्थब्रूक की वित्तीय और प्रशासनिक नीतियों ने दिल्ली में स्थानीय प्रशासन को और कुशल बनाया। डिप्टी कमिश्नर और अन्य अधिकारियों ने राजस्व संग्रह, कानून-व्यवस्था, और स्थानीय प्रशासन को संभाला। सैन्य नियंत्रण: लाल किला और अन्य रणनीतिक स्थल ब्रिटिश सेना के नियंत्रण में रहे। दिल्ली को एक महत्वपूर्ण सैन्य केंद्र बनाए रखा गया, ताकि 1857 जैसे विद्रोह की पुनरावृत्ति न हो।
सांस्कृतिक परिवर्तन: दिल्ली की मुगलकालीन सांस्कृतिक पहचान, जैसे उर्दू साहित्य और मुशायरे, कमजोर पड़ रही थी। नॉर्थब्रूक के शासनकाल में अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा दिया गया, और दिल्ली में अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना को प्रोत्साहन मिला। आर्थिक विकास: दिल्ली में रेलवे और सड़क नेटवर्क का विकास हुआ, जिसने शहर को ब्रिटिश भारत के अन्य हिस्सों से जोड़ा। चांदनी चौक जैसे बाजार व्यापारिक केंद्र बने रहे। नॉर्थब्रूक की सिंचाई परियोजनाओं ने दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा दिया।
3. कार्यकाल का अंत और इस्तीफा
इस्तीफा: लॉर्ड नॉर्थब्रूक ने मई 1876 में वायसराय के पद से इस्तीफा दे दिया। उनका इस्तीफा ब्रिटिश सरकार के साथ नीतिगत मतभेदों के कारण था, विशेष रूप से अफगान नीति और भारत में सैन्य खर्च को लेकर। नॉर्थब्रूक शांतिपूर्ण और संयमपूर्ण नीतियों के पक्षधर थे, जबकि ब्रिटिश सरकार (विशेष रूप से डिजरायली सरकार) अधिक आक्रामक नीतियों की मांग कर रही थी। उत्तराधिकारी: उनके बाद लॉर्ड लिटन (रॉबर्ट बुल्वर-लिटन) मई 1876 में भारत के वायसराय और गवर्नर-जनरल बने। मृत्यु: नॉर्थब्रूक की मृत्यु 15 नवंबर 1904 को इंग्लैंड में हुई।
4. ऐतिहासिक महत्व
उदारवादी शासन: लॉर्ड नॉर्थब्रूक का शासनकाल उनके उदारवादी और संयमपूर्ण दृष्टिकोण के लिए जाना जाता है। उन्होंने भारतीय जनता और रियासतों के साथ सहानुभूतिपूर्ण संबंध बनाए, जिसने ब्रिटिश शासन को स्थिरता प्रदान की। वित्तीय सुधार: उनकी वित्तीय नीतियों ने भारत में आर्थिक स्थिरता को बढ़ाया और प्रांतीय सरकारों को अधिक स्वायत्तता दी, जिसने स्थानीय प्रशासन को और प्रभावी बनाया। अकाल राहत: 1873-74 के बिहार अकाल के दौरान उनके राहत कार्यों ने उनकी सहानुभूतिपूर्ण छवि को मजबूत किया। दिल्ली का विकास: दिल्ली में उनके शासनकाल में प्रशासनिक और आर्थिक ढांचा मजबूत हुआ। रेलवे और सड़क नेटवर्क के विकास ने शहर का महत्व बढ़ाया, जो बाद में 1911 में ब्रिटिश भारत की राजधानी बनने का आधार बना।
स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि: नॉर्थब्रूक की उदार नीतियों ने भारतीयों में ब्रिटिश शासन के प्रति कुछ विश्वास पैदा किया, लेकिन उनकी औपनिवेशिक नीतियों ने दीर्घकाल में असंतोष को भी बढ़ाया, जो बाद में राष्ट्रीय आंदोलनों के रूप में सामने आया।5. विरासत लॉर्ड नॉर्थब्रूक को भारत में एक उदारवादी और सहानुभूतिपूर्ण वायसराय के रूप में याद किया जाता है। उनकी वित्तीय और प्रशासनिक नीतियों ने ब्रिटिश शासन को और कुशल बनाया। उनकी अकाल राहत नीतियों और रियासतों के साथ संबंधों ने भारतीय जनता और शासकों में ब्रिटिश शासन के प्रति विश्वास बढ़ाया। दिल्ली में उनके कार्यकाल ने शहर को एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक और सैन्य केंद्र के रूप में स्थापित करने में मदद की। उनके शासनकाल में शुरू हुए रेलवे और सिंचाई विकास ने दिल्ली की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया। उनकी संयमपूर्ण विदेश नीति ने भारत को बड़े सैन्य अभियानों से बचाए रखा, हालांकि उनके इस्तीफे के बाद लॉर्ड लिटन की आक्रामक नीतियों ने इस दृष्टिकोण को बदल दिया।
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