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Detailed description of saluv vansh
jp Singh 2025-05-26 17:19:02
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सालुव वंश का विस्तार से विस्तार

सालुव वंश का विस्तार से विस्तार
सालुव वंश विजयनगर साम्राज्य का दूसरा शासक वंश था, जिसने 1485 से 1505 ई. तक शासन किया। यह वंश संगम राजवंश के पतन के बाद सत्ता में आया और विजयनगर साम्राज्य को स्थिर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, हालांकि इसका शासनकाल अपेक्षाकृत छोटा रहा। सालुव वंश ने साम्राज्य को आंतरिक अस्थिरता और बाहरी आक्रमणों से बचाने का प्रयास किया, लेकिन आंतरिक विद्रोह और उत्तराधिकार विवादों के कारण इसका अंत हुआ, जिसके बाद तुलुव वंश ने सत्ता संभाली। नीचे सालुव वंश का विस्तृत विवरण दिया गया है, जिसमें ऐतिहासिक संदर्भ, शासक, प्रशासन, सांस्कृतिक योगदान, और अन्य पहलू शामिल हैं।
1. ऐतिहासिक संदर्भ
उदय: सालुव वंश की स्थापना 1485 ई. में सलुवा नरसिंह ने की, जो विजयनगर साम्राज्य के संगम वंश के अंतिम शासक विरुपाक्ष राय द्वितीय के समय एक शक्तिशाली सेनापति और नायक (प्रांतीय शासक) थे। संगम वंश के अंतिम वर्षों में आंतरिक विद्रोह और बाहरी दबाव (बहमनी सल्तनत और गजपति शासकों) के कारण साम्राज्य अस्थिर हो गया था। सलुवा नरसिंह ने इस अवसर का लाभ उठाकर सत्ता पर कब्जा किया।
पृष्ठभूमि: सालुवा नरसिंह संभवतः तेलुगु मूल के थे और विजयनगर साम्राज्य के चंद्रगिरि क्षेत्र के नायक थे। उनके उदय ने संगम वंश की कमजोरियों को समाप्त कर साम्राज्य को एक नई दिशा दी।
उद्देश्य: सालुव वंश का मुख्य उद्देश्य विजयनगर साम्राज्य को स्थिर करना, बहमनी सल्तनत और अन्य शत्रुओं के खिलाफ रक्षा करना, और हिंदू धर्म व संस्कृति को संरक्षित करना था।
राजधानी: सालुव वंश ने हम्पी को ही राजधानी बनाए रखा, जो संगम वंश द्वारा स्थापित थी।
अवधि: सालुव वंश का शासन 1485 से 1505 तक रहा, जो केवल दो दशकों तक सीमित था। इसके बाद तुलुव वंश के वीर नरसिंह ने सत्ता हथिया ली।
2. प्रमुख शासक
सालुव वंश का शासनकाल छोटा था, और इसमें केवल दो प्रमुख शासक थे: सलुवा नरसिंह और उनके पुत्र इम्मडि नरसिंह।
(i) सलुवा नरसिंह (1485-1491)
उदय: सलुवा नरसिंह एक शक्तिशाली सेनापति और चंद्रगिरि के नायक थे। उन्होंने संगम वंश के अंतिम शासक विरुपाक्ष राय द्वितीय को अपदस्थ कर सत्ता हथिया ली। उनका उदय आंतरिक अस्थिरता और सामंतों के विद्रोह के कारण संभव हुआ। सैन्य उपलब्धियाँ: आंतरिक स्थिरता: सलुवा नरसिंह ने सामंतों और नायकों के विद्रोहों को दबाया, विशेष रूप से तमिल क्षेत्रों में पांड्य और चोल अवशेषों को नियंत्रित किया। बहमनी सल्तनत के खिलाफ: उन्होंने बहमनी सल्तनत के साथ युद्ध लड़े, विशेष रूप से रायचूर दोआब के लिए, जो एक रणनीतिक और उपजाऊ क्षेत्र था। गजपति शासकों के खिलाफ: ओडिशा के गजपति शासकों के हमलों को रोकने में सफलता प्राप्त की।
प्रशासनिक सुधार: सलुवा नरसिंह ने नायंक व्यवस्था को और मजबूत किया, लेकिन नायकों की स्वायत्तता को सीमित करने का प्रयास किया। कर प्रणाली को पुनर्गठित किया और साम्राज्य की आर्थिक स्थिति को स्थिर किया। सांस्कृतिक योगदान: वैष्णव और शैव मंदिरों को संरक्षण दिया। हम्पी में मंदिरों और जल प्रणालियों का रखरखाव किया। तेलुगु और कन्नड़ साहित्य को प्रोत्साहन दिया, हालांकि उनका शासनकाल सांस्कृतिक दृष्टि से संगम वंश जितना समृद्ध नहीं था। चुनौतियाँ: सलुवा नरसिंह को निरंतर आंतरिक विद्रोह और बाहरी आक्रमणों का सामना करना पड़ा, जिसने उनके शासन को चुनौतीपूर्ण बनाया।
(ii) इम्मडि नरसिंह (1491-1505)
उत्तराधिकार: सलुवा नरसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र इम्मडि नरसिंह (या नरसिंह द्वितीय) ने सत्ता संभाली। उनका शासनकाल अस्थिर और कमजोर था। सैन्य और प्रशासनिक कमजोरियाँ: इम्मडि नरसिंह एक कमजोर शासक थे और नायकों के विद्रोहों को नियंत्रित नहीं कर सके। बहमनी सल्तनत के विघटन के बाद उभरी दक्कनी सल्तनतों (अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा) का दबाव बढ़ा। गजपति शासकों ने पूर्वी क्षेत्रों पर हमले किए, जिससे साम्राज्य का कुछ हिस्सा खो गया। पतन: इम्मडि नरसिंह के शासनकाल में तुलुव वंश के सेनापति वीर नरसिंह ने सत्ता हथिया ली। वीर नरसिंह ने इम्मडि नरसिंह को अपदस्थ कर 1505 में तुलुव वंश की स्थापना की, जो विजयनगर के स्वर्ण युग का प्रारंभ था।
3. प्रशासन और शासन व्यवस्था
केंद्रीकृत प्रशासन: सालुव वंश ने संगम वंश की केंद्रीकृत शासन व्यवस्था को बनाए रखा, लेकिन नायकों की स्वायत्तता के कारण केंद्रीय नियंत्रण कमजोर हुआ। नायंक व्यवस्था: साम्राज्य को प्रांतों में बांटा गया था, जिन्हें नायकों द्वारा शासित किया जाता था। सलुवा नरसिंह ने नायकों की निष्ठा सुनिश्चित करने की कोशिश की, लेकिन इम्मडि नरसिंह के समय नायकों ने स्वतंत्रता की मांग शुरू कर दी। प्रमुख नायक्क क्षेत्रों में मधुरै, तंजावुर, और चंद्रगिरि शामिल थे, जो बाद में स्वतंत्र नायक्क राजवंश बने। न्याय व्यवस्था: स्थानीय पंचायतें और धर्मशास्त्रों के आधार पर न्याय प्रदान किया जाता था। सलुवा नरसिंह ने निष्पक्षता बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन कमजोर उत्तराधिकारियों के कारण यह व्यवस्था कमजोर हुई।
सैन्य संगठन: सालुव वंश की सेना में घुड़सवार, पैदल सैनिक, और हाथी शामिल थे। पुर्तगालियों से घोड़ों का आयात जारी रहा। सलुवा नरसिंह ने सैन्य सुधार किए, लेकिन इम्मडि नरसिंह के समय सैन्य शक्ति कमजोर हुई। धार्मिक नीति: सालुव वंश ने हिंदू धर्म (वैष्णव और शैव संप्रदायों) को संरक्षण दिया। जैन और बौद्ध समुदायों के प्रति भी सहिष्णुता बरती गई।
4. आर्थिक समृद्धि
कृषि: तुंगभद्रा और कावेरी नदियों पर आधारित सिंचाई व्यवस्था ने कृषि को समर्थन दिया। चावल, गन्ना, और कपास प्रमुख फसलें थीं। सलुवा नरसिंह ने संगम वंश की नहर और तालाब प्रणालियों का रखरखाव किया। व्यापार: विजयनगर साम्राज्य सालुव काल में भी समुद्री व्यापार का केंद्र रहा। मंगलोर, भटकल, और कालीकट जैसे बंदरगाहों के माध्यम से अरब, फारस, और पुर्तगाल के साथ व्यापार होता था। निर्यात: मसाले (काली मिर्च, इलायची), कपड़ा, और रत्न। आयात: घोड़े, सोना, और मोती।
हस्तशिल्प: कपड़ा बुनाई, मूर्तिकला, और आभूषण निर्माण जारी रहा। हम्पी के बाजार हस्तशिल्प और विलासिता की वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध थे। मुद्रा: सोने (वराह), चांदी, और तांबे के सिक्के प्रचलन में थे। सिक्कों पर धार्मिक प्रतीक, जैसे विष्णु या शिव, अंकित होते थे।
5. सांस्कृतिक योगदान
सालुव वंश का सांस्कृतिक योगदान संगम वंश की तुलना में सीमित था, क्योंकि उनका शासनकाल अस्थिरता से भरा था। फिर भी, कुछ महत्वपूर्ण योगदान हैं:
(i) स्थापत्य
द्रविड़ शैली का निरंतरता: सालुव वंश ने संगम वंश की द्रविड़ स्थापत्य शैली को बनाए रखा, जिसमें गोपुरम, मंडप, और जटिल नक्काशी शामिल थी।
प्रमुख स्मारक: विरुपाक्ष मंदिर का रखरखाव: सलुवा नरसिंह ने हम्पी के विरुपाक्ष मंदिर का संरक्षण और विस्तार किया। हम्पी की जल प्रणालियाँ: तालाबों और नहरों का रखरखाव और विस्तार किया गया, जो कृषि और शहर के लिए महत्वपूर्ण थे।
सालुव काल में नए मंदिरों का निर्माण सीमित था, लेकिन मौजूदा संरचनाओं का संरक्षण किया गया। विशेषताएँ: सालुव वंश ने हम्पी के किलेबंदी और नगर नियोजन को मजबूत किया, जो बाद में तुलुव वंश में और विकसित हुआ।
(ii) साहित्य
सालुव काल में साहित्यिक विकास संगम वंश की तुलना में कम था, लेकिन तेलुगु, कन्नड़, और संस्कृत साहित्य को संरक्षण मिला। प्रमुख रचनाएँ: सलुवा नरसिंह के समय कुछ संस्कृत ग्रंथ और कन्नड़ काव्य लिखे गए, लेकिन कोई विशेष रचना प्रसिद्ध नहीं हुई। तेलुगु साहित्य में स्थानीय कवियों को प्रोत्साहन मिला, जो बाद में तुलुव वंश के अष्टदिग्गजों में परिलक्षित हुआ। विद्वान: सलुवा नरसिंह ने ब्राह्मण विद्वानों और वैष्णव संतों को संरक्षण दिया, जो धार्मिक और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय थे।
(iii) संगीत और नृत्य
सालुव वंश ने मंदिर-केंद्रित संगीत और नृत्य परंपराओं को बनाए रखा। कर्नाटक संगीत: मंदिरों में भक्ति संगीत का प्रचलन था, जो बाद में तुलुव वंश में पुरंदरदास के साथ विकसित हुआ। भरतनाट्यम: देवदासियों द्वारा मंदिरों में नृत्य प्रदर्शन आम थे, जो धार्मिक उत्सवों का हिस्सा थे।
(iv) धार्मिक सहिष्णुता
सालुव वंश ने वैष्णव और शैव संप्रदायों को प्राथमिकता दी, लेकिन जैन और बौद्ध समुदायों के प्रति सहिष्णुता बरती। सलुवा नरसिंह ने हम्पी के मंदिरों और जैन तीर्थ स्थलों (जैसे चंद्रगिरि) को संरक्षण दिया।
6. सामाजिक ढांचा
जाति व्यवस्था: सालुव काल में समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। ब्राह्मण विद्वानों और पुजारियों को उच्च स्थान प्राप्त था, जबकि क्षत्रिय (नायक और योद्धा), वैश्य (व्यापारी), और शूद्र (कृषक और कारीगर) समाज के अन्य वर्ग थे। महिलाओं की स्थिति: महिलाएँ मंदिर नृत्य और धार्मिक गतिविधियों में सक्रिय थीं। हालांकि, सामंती समाज में उनकी स्थिति सामान्यतः पुरुषों के अधीन थी। शिक्षा: संस्कृत और स्थानीय भाषाओं में शिक्षा मंदिरों और मठों के माध्यम से दी जाती थी। सलुवा नरसिंह ने विद्वानों को प्रोत्साहन दिया।
7. बाहरी संबंध और युद्ध
बहमनी सल्तनत और दक्कनी सल्तनतें: सलुवा नरसिंह ने बहमनी सल्तनत के खिलाफ युद्ध लड़े, विशेष रूप से रायचूर दोआब के नियंत्रण के लिए। बहमनी सल्तनत के विघटन के बाद (1527 तक), अहमदनगर, बीजापुर, और गोलकुंडा जैसी दक्कनी सल्तनतों का दबाव बढ़ा। गजपति शासक: ओडिशा के गजपति शासकों ने पूर्वी क्षेत्रों पर हमले किए, जिन्हें सलुवा नरसिंह ने रोकने की कोशिश की। पुर्तगाली: सलुव वंश ने पुर्तगालियों के साथ व्यापारिक संबंध बनाए रखे, विशेष रूप से घोड़ों और हथियारों के आयात के लिए। यह संबंध बाद में तुलुव वंश में और मजबूत हुए।
स्थानीय शासक: सलुवा नरसिंह ने तमिल क्षेत्रों में पांड्य और चोल अवशेषों को अपने अधीन करने की कोशिश की, लेकिन नायकों की स्वायत्तता ने इसे जटिल बनाया।
8. पतन
आंतरिक कमजोरियाँ: इम्मडि नरसिंह का शासन कमजोर था, और नायकों के बीच विद्रोह बढ़े। चंद्रगिरि, मधुरै, और तंजावुर के नायकों ने स्वतंत्रता की मांग शुरू की। तुलुव वंश का उदय: 1505 में तुलुव वंश के सेनापति वीर नरसिंह ने इम्मडि नरसिंह को अपदस्थ कर सत्ता हथिया ली, जिससे सालुव वंश का अंत हुआ और तुलुव वंश की शुरुआत हुई। बाहरी दबाव: दक्कनी सल्तनतों (अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा) और गजपति शासकों के हमलों ने साम्राज्य को कमजोर किया।
9. महत्व और विरासत
साम्राज्य की स्थिरता: सलुवा नरसिंह ने संगम वंश की अस्थिरता को समाप्त कर विजयनगर साम्राज्य को एक नया जीवन दिया। उनके शासन ने तुलुव वंश के स्वर्ण युग (कृष्णदेव राय) की नींव रखी। प्रशासनिक सुधार: सलुव वंश ने नायंक व्यवस्था को मजबूत किया, हालांकि नायकों की स्वायत्तता बाद में चुनौती बनी। सांस्कृतिक निरंतरता: सालुव वंश ने संगम वंश की सांस्कृतिक परंपराओं, जैसे द्रविड़ स्थापत्य और तेलुगु-कन्नड़ साहित्य, को बनाए रखा। आर्थिक आधार: व्यापार और कृषि की नींव को बनाए रखा, जिसने विजयनगर को वैश्विक व्यापार का केंद्र बनाए रखा।
विरासत: सालुव वंश का सबसे बड़ा योगदान विजयनगर साम्राज्य को पतन से बचाना और तुलुव वंश के लिए एक स्थिर मंच प्रदान करना था। हम्पी के मंदिर और जल प्रणालियाँ उनकी विरासत का हिस्सा हैं। 10. विदेशी यात्रियों के विवरण सालुव वंश के समय में विदेशी यात्रियों के दस्तावेज़ सीमित हैं, क्योंकि यह काल संगम और तुलुव वंश की तुलना में कम समृद्ध था। फिर भी, पुर्तगाली व्यापारियों ने विजयनगर के बंदरगाहों और व्यापारिक समृद्धि का उल्लेख किया।
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