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Muhammad bin Tughlaq
jp Singh 2025-05-23 17:13:28
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मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ईस्वी)

मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ईस्वी)
मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ईस्वी) दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश का सबसे चर्चित और विवादास्पद शासक था। उसका मूल नाम जौना खान (या उलूग खान) था, और वह गयासुद्दीन तुगलक का पुत्र था। वह एक विद्वान, बुद्धिजीवी, और महत्वाकांक्षी शासक था, जिसे कुरान, फिक्ह, कविता, तर्कशास्त्र, और दर्शन का गहरा ज्ञान था। वह अरबी, फारसी, और संस्कृत में निपुण था। हालाँकि, उसकी सनकी और अव्यवहारिक नीतियों के कारण उसे इतिहासकारों ने
प्रारंभिक जीवन और सत्ता प्राप्ति
जन्म और पृष्ठभूमि: मुहम्मद बिन तुगलक का जन्म 1290 के आसपास माना जाता है। वह गयासुद्दीन तुगलक का पुत्र था, जो तुगलक वंश का संस्थापक था। गयासुद्दीन के शासनकाल में जौना खान के रूप में उन्होंने कई सैन्य अभियानों में भाग लिया, विशेष रूप से वारंगल के काकतीय वंश के खिलाफ अभियान में।
सत्ता प्राप्ति: 1325 ईस्वी में गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु तुगलकाबाद के पास अफगानपुर में एक लकड़ी के महल के ढहने से हो गई। इतिहासकार इब्न बतूता और बरनी के अनुसार, इस घटना में जौना खान का हाथ होने का संदेह था, क्योंकि वह अपने पिता के कठोर शासन से असंतुष्ट था। इसके बाद, जौना खान ने मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली की गद्दी संभाली।
शासनकाल और नीतियाँ
मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल (1325-1351 ईस्वी) उनकी महत्वाकांक्षी लेकिन अव्यवहारिक नीतियों के लिए जाना जाता है। उनकी चार प्रमुख नीतियाँ—राजधानी परिवर्तन, सांकेतिक मुद्रा, कर वृद्धि, और सैन्य अभियान—उनके शासन की विशेषता थीं।
1. राजधानी का परिवर्तन (दिल्ली से दौलताबाद)
निर्णय: 1326-27 ईस्वी में, मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली से दौलताबाद (देवगिरी, वर्तमान महाराष्ट्र) को अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया। इसके पीछे दो मुख्य कारण थे:
सामरिक कारण: दौलताबाद दक्षिण भारत में स्थित था, जिससे दक्कन क्षेत्र पर नियंत्रण आसान हो सकता था।
सुरक्षा: दिल्ली मंगोल आक्रमणों के खतरे में थी, और दौलताबाद को सुरक्षित माना गया।
अमल: इस योजना के तहत, दिल्ली की जनता, जिसमें अमीर, विद्वान, और आम लोग शामिल थे, को जबरन दौलताबाद स्थानांतरित किया गया। यह यात्रा लंबी और कठिन थी, जिसके दौरान कई लोगों की मृत्यु हो गई।
परिणाम: यह योजना पूरी तरह असफल रही। दिल्ली खाली होने से सल्तनत की प्रशासनिक और आर्थिक स्थिति कमजोर हुई। दौलताबाद में संसाधनों की कमी और स्थानीय लोगों के विरोध ने स्थिति को और जटिल किया। 1335 ईस्वी में मुहम्मद बिन तुगलक को राजधानी पुनः दिल्ली लौटानी पड़ी।
आलोचना: इतिहासकार बरनी और इब्न बतूता ने इस नीति को अव्यवहारिक और जनता के लिए कष्टकारी बताया। इसने मुहम्मद की लोकप्रियता को गहरा आघात पहुँचाया।
2. सांकेतिक मुद्रा (टोकन करेंसी)
निर्णय: 1329-30 ईस्वी में, मुहम्मद बिन तुगलक ने चांदी की कमी को दूर करने के लिए पीतल और तांबे के सिक्कों को चांदी के सिक्कों के समान मूल्य पर प्रचलन में लाने की योजना बनाई। यह विचार चीन के युआन वंश और मंगोल शासकों से प्रेरित था।
अमल: पीतल और तांबे के सिक्कों को
परिणाम: यह योजना भी विफल रही। लोग नकली सिक्के बनाने लगे, जिससे बाजार में अराजकता फैल गई। व्यापारियों ने इन सिक्कों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, और आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई। अंततः, मुहम्मद को यह योजना वापस लेनी पड़ी, और उसने नकली सिक्कों को चांदी के सिक्कों से बदलवाया, जिससे खजाने को भारी नुकसान हुआ।
आलोचना: इतिहासकारों ने इसे मुहम्मद की सबसे बड़ी भूल माना, क्योंकि इसने उनकी आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाए।
3. कर वृद्धि और दोआब क्षेत्र
निर्णय: मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी सैन्य और प्रशासनिक योजनाओं को वित्तपोषित करने के लिए दोआब क्षेत्र (गंगा-यमुना के बीच का उपजाऊ क्षेत्र) में भू-राजस्व में 10% की वृद्धि की।
अमल: यह कर वृद्धि उस समय लागू की गई जब क्षेत्र में अकाल और सूखे की स्थिति थी। किसानों से सख्ती से कर वसूला गया, जिसके लिए
परिणाम: कर वृद्धि ने किसानों में असंतोष पैदा किया, और कई क्षेत्रों में विद्रोह शुरू हो गए। दोआब क्षेत्र में विद्रोह इतना व्यापक हुआ कि मुहम्मद को इसे दबाने के लिए सैन्य बल भेजना पड़ा। बाद में उसे कर वृद्धि वापस लेनी पड़ी।
कृषि सुधार: इस असफलता के बाद, मुहम्मद ने कृषि विकास के लिए
4. सैन्य अभियान
विस्तारवादी नीति: मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली सल्तनत के विस्तार के लिए कई सैन्य अभियान चलाए। उनके शासनकाल में सल्तनत का क्षेत्र मालवा, गुजरात, लखनौती, तिरहुत, तेलंगाना, और दक्कन तक फैला।
प्रमुख अभियान:
खुरासान अभियान: मुहम्मद ने खुरासान (आधुनिक अफगानिस्तान और ईरान का हिस्सा) पर आक्रमण की योजना बनाई और इसके लिए 4 लाख सैनिकों की सेना तैयार की। यह अभियान पूरी तरह असफल रहा, और खजाने को भारी नुकसान हुआ।
करचिल अभियान: हिमालय क्षेत्र में करचिल (संभवतः कांगड़ा या कुल्लू) पर अभियान भी विफल रहा, क्योंकि सेना को भारी नुकसान हुआ और पहाड़ी क्षेत्रों में रसद की कमी हुई।
दक्कन और बंगाल: दक्कन और बंगाल में कुछ अभियान शुरू में सफल रहे, लेकिन स्थानीय विद्रोहों और प्रशासनिक कमजोरियों के कारण ये क्षेत्र जल्द ही सल्तनत के नियंत्रण से बाहर हो गए।
परिणाम: इन अभियानों ने सल्तनत के खजाने को खाली कर दिया और सैन्य शक्ति को कमजोर किया। बार-बार की असफलताओं ने मुहम्मद की साख को और कम किया।
व्यक्तित्व और शासन शैली
बुद्धिजीवी और विद्वान: मुहम्मद बिन तुगलक को एक विद्वान शासक माना जाता था। वह सूफी संतों और विद्वानों का संरक्षण करता था और उनके साथ दार्शनिक चर्चाएँ करता था। उसने विदेशी यात्रियों जैसे इब्न बतूता को अपने दरबार में आमंत्रित किया।
सनकी और क्रूर: वह अपने विरोधियों और रिश्तेदारों पर संदेह करता था और उन्हें कठोर सजा देता था। इतिहासकार बरनी ने उसे
नवाचार की चाह: मुहम्मद की नीतियाँ जैसे सांकेतिक मुद्रा और राजधानी परिवर्तन उसकी नवाचार की चाह को दर्शाती हैं, लेकिन इनके अमल में व्यावहारिकता की कमी थी।
उपलब्धियाँ
भौगोलिक विस्तार: उनके शासनकाल में दिल्ली सल्तनत का क्षेत्रीय विस्तार अपने चरम पर था, जो मालवा, गुजरात, और दक्कन तक फैला।
प्रशासनिक प्रयोग: उनकी नीतियाँ जैसे दीवान-ए-कोही और सांकेतिक मुद्रा, हालांकि असफल रहीं, लेकिन प्रशासनिक नवाचार के उदाहरण हैं।
सांस्कृतिक योगदान: उन्होंने विद्वानों और सूफी संतों को प्रोत्साहित किया। उनके दरबार में इब्न बतूता जैसे विदेशी यात्रियों ने भारत की संस्कृति और प्रशासन का वर्णन किया।
असफलताएँ और पतन
आर्थिक अस्थिरता: सांकेतिक मुद्रा और असफल सैन्य अभियानों ने सल्तनत के खजाने को खाली कर दिया।
विद्रोह: उनके शासनकाल में कई विद्रोह हुए, जैसे मालवा, गुजरात, और बंगाल में। दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि के कारण भी विद्रोह हुए।
लोकप्रियता में कमी: उनकी सनकी नीतियों और कठोर सजा देने की प्रवृत्ति ने अमीरों, विद्वानों, और आम जनता में असंतोष पैदा किया।
मृत्यु: 1351 ईस्वी में, मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु सिंध में एक अभियान के दौरान हो गई। उनकी मृत्यु के बाद फिरोज शाह तुगलक ने सत्ता संभाली।
ऐतिहासिक मूल्यांकन
मुहम्मद बिन तुगलक को इतिहासकारों ने एक विरोधाभासी व्यक्तित्व माना है। कुछ इतिहासकार, जैसे बरनी और इब्न बतूता, ने उनकी नीतियों की आलोचना की और उन्हें अव्यवहारिक बताया। वहीं, आधुनिक इतिहासकारों जैसे के.एस. लाल और सतीश चंद्रा ने उनकी महत्वाकांक्षा और नवाचार की प्रशंसा की, लेकिन यह भी माना कि उनकी योजनाओं में व्यावहारिकता की कमी थी। उनकी नीतियाँ सैद्धांतिक रूप से अच्छी थीं, लेकिन खराब योजना और अमल के कारण असफल रहीं।
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