Lohara Vansh
jp Singh
2025-05-23 11:20:16
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लोहार वंश 11वीं से 14वीं शताब्दी
लोहार वंश 11वीं से 14वीं शताब्दी
लोहारा वंश: उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास
लोहारा वंश (Lohara Dynasty) एक खासा (Khasa) राजवंश था, जो कश्मीर और इसके आसपास के क्षेत्रों (वर्तमान जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से) में शासन करता था। इस वंश का नाम लोहारकोट (Loharkot), एक पहाड़ी किले, से लिया गया है, जो इसका केंद्र था। लोहारकोट का सटीक स्थान आज भी अस्पष्ट है, लेकिन इसे वर्तमान जम्मू-कश्मीर या हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में माना जाता है। लोहारा वंश की स्थापना कार्कोट वंश के पतन और उत्पल वंश के कमजोर होने के बाद हुई। यह वंश वैवाहिक संबंधों के माध्यम से कश्मीर के शाही परिवारों से जुड़ा था। राजतरंगिणी (कल्हण द्वारा लिखित) के अनुसार, लोहारा वंश खासा जनजाति से संबंधित था और कश्मीर के शासकों के साथ इसका घनिष्ठ संबंध था।
प्रारंभिक केंद्र: लोहारा वंश की राजधानी श्रीनगर (कश्मीर) थी, लेकिन लोहारकोट उनका प्रारंभिक केंद्र था। उनका शासन क्षेत्र कश्मीर घाटी, जम्मू के कुछ हिस्सों, और उत्तरी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों तक विस्तृत था।
संस्थापक: संग्रामराज (Sangramaraja) को लोहारा वंश का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने 1003 ई. में कश्मीर के सिंहासन पर अधिकार किया।
काल: लोहारा वंश ने लगभग 1003 ई. से 1320 ई. तक कश्मीर पर शासन किया। इस अवधि में वंश ने कश्मीर को सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र के रूप में बनाए रखा, लेकिन बाद में इसे विदेशी आक्रमणों और आंतरिक अस्थिरता का सामना करना पड़ा।
प्रमुख शासक और उनके योगदान
लोहारा वंश के कई शासकों ने कश्मीर की सत्ता को बनाए रखने और विदेशी आक्रमणों का सामना करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ प्रमुख शासकों का विस्तृत विवरण है:
1. संग्रामराज (1003–1028 ई.)
शासन: संग्रामराज लोहारा वंश के संस्थापक थे। उन्होंने कश्मीर की रानी दीदा (उत्पल वंश की अंतिम शासिका) के भतीजे के रूप में सिंहासन प्राप्त किया।
विजय और प्रशासन: संग्रामराज ने कश्मीर में आंतरिक विद्रोहों को दबाया और शासन को स्थिर किया। उन्होंने गजनवी आक्रमणकारियों (महमूद गजनवी और उनके उत्तराधिकारियों) के खिलाफ कश्मीर की रक्षा की कोशिश की।
सांस्कृतिक योगदान: संग्रामराज ने हिंदू धर्म और संस्कृत साहित्य को संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में कश्मीर एक धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र बना रहा।
महत्व: संग्रामराज ने लोहारा वंश को कश्मीर में एक शक्तिशाली शासक वंश के रूप में स्थापित किया।
2. अनंतदेव (1028–1063 ई.)
शासन: अनंतदेव, संग्रामराज के उत्तराधिकारी थे, और उनके शासनकाल में लोहारा वंश ने अपनी शक्ति को और मजबूत किया।
विजय और प्रशासन: अनंतदेव ने अपने शासनकाल में सामंतों के विद्रोहों को कुचला, जिसमें उनकी पत्नी रानी सूर्यमती ने महत्वपूर्ण सहयोग दिया। उन्होंने पड़ोसी क्षेत्रों में लोहारा प्रभाव को बनाए रखा और गजनवी आक्रमणों का सामना किया।
सांस्कृतिक योगदान: रानी सूर्यमती ने प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभाई और कश्मीर में धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया। उनके समय में कई मंदिरों और धार्मिक संस्थानों का निर्माण हुआ।
महत्व: अनंतदेव और रानी सूर्यमती के सहयोग ने लोहारा वंश को स्थिरता प्रदान की।
3. कल्याणचंद्र (1063–1081 ई.)
शासन: कल्याणचंद्र अनंतदेव के पुत्र थे और उनके शासनकाल में कश्मीर में कुछ अस्थिरता आई।
विजय और प्रशासन: कल्याणचंद्र ने आंतरिक विद्रोहों और बाहरी आक्रमणों का सामना किया। उनके शासनकाल में लोहारा वंश की शक्ति धीरे-धीरे कमजोर होने लगी।
महत्व: कल्याणचंद्र के समय लोहारा वंश का प्रभाव स्थिर रहा, लेकिन आंतरिक समस्याएँ बढ़ने लगीं।
4. सुस्सल (1112–1128 ई.)
शासन: सुस्सल लोहारा वंश के एक अन्य महत्वपूर्ण शासक थे, जिन्होंने कश्मीर में सत्ता को पुनर्जनन करने की कोशिश की।
विजय और प्रशासन: सुस्सल ने कई विद्रोहों का सामना किया और कश्मीर में अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए युद्ध लड़े। उनके शासनकाल में कश्मीर में बाहरी आक्रमणों, विशेष रूप से तुर्क और अन्य मध्य एशियाई शक्तियों, का दबाव बढ़ा।
महत्व: सुस्सल ने लोहारा वंश की सत्ता को बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन उनके बाद वंश की शक्ति कमजोर हुई।
5. जयसिंह (1128–1155 ई.)
शासन: जयसिंह लोहारा वंश के अंतिम प्रमुख शासकों में से एक थे।
विजय और प्रशासन: जयसिंह ने कश्मीर में आंतरिक स्थिरता लाने की कोशिश की और कई विद्रोहों को दबाया। उनके शासनकाल में कश्मीर सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रहा, लेकिन सैन्य शक्ति कमजोर हो गई।
सांस्कृतिक योगदान: जयसिंह के समय में राजतरंगिणी (कल्हण द्वारा) लिखी गई, जो कश्मीर के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उन्होंने हिंदू और बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया।
महत्व: जयसिंह के शासनकाल में कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत चरम पर थी, लेकिन वंश की सैन्य शक्ति कमजोर हो चुकी थी।
लोहारा वंश और अन्य वंशों का संबंध
चूंकि आपने पहले चौहान, चंदेल, परमार, कालचुरि, सिसोदिया, हिंदुशाही, सोलंकी, और कार्कोट वंशों के बारे में पूछा था, यहाँ लोहारा वंश का इन वंशों के साथ संबंध का विवरण है:
चौहान वंश: लोहारा वंश (11वीं-14वीं शताब्दी) का शासन चौहान वंश (10वीं-12वीं शताब्दी) के समकालीन था। दोनों वंशों ने विदेशी आक्रमणकारियों (जैसे गजनवी और गोरी) के खिलाफ प्रतिरोध किया, लेकिन उनके बीच प्रत्यक्ष युद्ध का उल्लेख कम है।
चंदेल वंश: लोहारा और चंदेल वंशों के बीच प्रत्यक्ष संबंध सीमित थे, लेकिन दोनों ने गजनवी आक्रमणों का सामना किया। चंदेल शासक विद्याधर और लोहारा शासक संग्रामराज समकालीन थे।
परमार वंश: लोहारा और परमार वंशों के बीच मालवा और उत्तरी भारत में प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा थी। दोनों ने गजनवी आक्रमणों का प्रतिरोध किया।
कालचुरि वंश: लोहारा और कालचुरियों के बीच मध्य भारत में कुछ क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा थी, लेकिन कश्मीर और मध्य भारत की दूरी के कारण प्रत्यक्ष युद्ध कम हुए।
सिसोदिया वंश: सिसोदिया वंश का उदय (13वीं शताब्दी) लोहारा वंश के पतन के समय हुआ, इसलिए उनके बीच कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था
हिंदुशाही वंश: लोहारा और हिंदुशाही वंश समकालीन थे और दोनों ने गजनवी आक्रमणों (महमूद गजनवी) का सामना किया। हिंदुशाही का पतन (1026 ई.) लोहारा वंश के उदय (1003 ई.) के बाद हुआ।
सोलंकी (चालुक्य) वंश: लोहारा और सोलंकी वंशों के बीच प्रत्यक्ष युद्ध का उल्लेख कम है, लेकिन दोनों ने गजनवी आक्रमणों का प्रतिरोध किया। सोलंकी शासक भीम I और लोहारा शासक संग्रामराज समकालीन थे।
कार्कोट वंश: लोहारा वंश कार्कोट वंश (625–855 ई.) और उत्पल वंश (855–1003 ई.) के पतन के बाद उभरा। लोहारा शासक रानी दीदा के माध्यम से कार्कोट और उत्पल वंशों से वैवाहिक रूप से जुड़े थे।
सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान
लोहारा वंश ने कश्मीर की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को समृद्ध किया:
स्थापत्य: लोहारा शासकों ने कश्मीर में कई मंदिरों और धार्मिक संरचनाओं का निर्माण और जीर्णोद्धार करवाया। मार्तंड सूर्य मंदिर (कार्कोट काल में निर्मित) का रखरखाव और संरक्षण लोहारा शासकों ने किया। उनके समय में श्रीनगर और लोहारकोट में कई किलों और मंदिरों का निर्माण हुआ।
साहित्य: लोहारा शासक जयसिंह के समय में राजतरंगिणी (कल्हण द्वारा) लिखी गई, जो कश्मीर के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ लोहारा वंश के शासन और कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत का विस्तृत विवरण देता है। उनके दरबार में संस्कृत साहित्य और विद्वानों को संरक्षण मिला।
धर्म: लोहारा शासक हिंदू धर्म (विशेष रूप से शैव और वैष्णव) और बौद्ध धर्म के संरक्षक थे। रानी सूर्यमती ने धार्मिक और प्रशासनिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान दिया
प्रशासन: लोहारा शासकों ने कश्मीर में एक सुगठित प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखी, जिसमें रानी सूर्यमती जैसे सह-शासकों की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
पतन लोहारा वंश का पतन निम्नलिखित कारणों से हुआ: आंतरिक अस्थिरता: उत्तराधिकार विवाद और सामंतों के विद्रोह ने लोहारा वंश को कमजोर किया।
बाहरी आक्रमण: 12वीं और 13वीं शताब्दी में तुर्क और अन्य मध्य एशियाई शक्तियों के आक्रमणों ने कश्मीर पर दबाव डाला। 1320 ई. के आसपास सुहदेव लोहारा वंश के अंतिम शासक थे। उनके बाद कश्मीर में तुर्क और मुस्लिम शासकों का प्रभाव बढ़ा।
कश्मीर सल्तनत का उदय: 1339 ई. में शाहमीर वंश ने कश्मीर में सत्ता हथिया ली, जिसने लोहारा वंश को पूरी तरह समाप्त कर दिया।
परिणाम: लोहारा वंश के पतन के बाद कश्मीर में इस्लामी शासन की शुरुआत हुई।
आधुनिक संदर्भ
वंशज: लोहारा वंश के प्रत्यक्ष वंशजों का कोई स्पष्ट अवशेष नहीं बचा, लेकिन कश्मीर और जम्मू के कुछ खासा और राजपूत समुदाय अपने को लोहारा वंश से जोड़ते हैं।
सांस्कृतिक धरोहर: राजतरंगिणी लोहारा वंश की सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विरासत है, जो कश्मीर के इतिहास को समझने का प्रमुख स्रोत है। लोहारा काल के मंदिर और किले कश्मीर की पुरातात्विक धरोहर का हिस्सा हैं।
लोककथाएँ: लोहारा शासकों की कहानियाँ और रानी सूर्यमती की प्रशासनिक भूमिका कश्मीर की लोक संस्कृति में जीवित हैं।
महत्वपूर्ण तथ्य
सैन्य शक्ति: लोहारा शासकों ने गजनवी और तुर्क आक्रमणों का सामना किया और कश्मीर की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश की।
स्थापत्य: उनके समय में मंदिरों और किलों का निर्माण और संरक्षण हुआ।
साहित्य: राजतरंगिणी लोहारा वंश की सबसे बड़ी सांस्कृतिक उपलब्धि है।
प्रशासन: रानी सूर्यमती जैसे सह-शासकों ने लोहारा शासन को मजबूती प्रदान की।
लोहारा वंश और अन्य पूछे गए वंशों की तुलना
चौहान वंश: लोहारा और चौहान दोनों ने विदेशी आक्रमणों (गजनवी और गोरी) का सामना किया, लेकिन लोहारा का केंद्र कश्मीर और चौहानों का अजमेर-दिल्ली था।
चंदेल वंश: दोनों वंश समकालीन थे और गजनवी आक्रमणों का सामना किया। चंदेलों का स्थापत्य (खजुराहो) लोहारा से अधिक प्रसिद्ध है।
परमार वंश: लोहारा और परमारों ने गजनवी आक्रमणों का प्रतिरोध किया, लेकिन उनके बीच प्रत्यक्ष युद्ध का उल्लेख कम है।
कालचुरि वंश: लोहारा और कालचुरियों के बीच मध्य भारत में प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा थी।
सिसोदिया वंश: सिसोदियाओं का उदय लोहारा के पतन के समय हुआ, इसलिए कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था।
हिंदुशाही वंश: लोहारा और हिंदुशाही दोनों ने गजनवी आक्रमणों का सामना किया और समकालीन थे।
सोलंकी (चालुक्य) वंश: दोनों वंशों ने गजनवी आक्रमणों का प्रतिरोध किया और सांस्कृतिक योगदान दिया।
कार्कोट वंश: लोहारा वंश कार्कोट और उत्पल वंशों के पतन के बाद उभरा और वैवाहिक रूप से उनसे जुड़ा था।
Conclusion
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