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kaalachuri vansh
jp Singh 2025-05-23 10:25:36
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कालचुरि वंश लगभग 6ठी से 8वीं शताब्दी तक।

कालचुरि वंश लगभग 6ठी से 8वीं शताब्दी तक।
कालचुरि वंश, जिसे चेदि वंश या हैहय वंश के नाम से भी जाना जाता है, मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण राजवंश था, जो मुख्य रूप से मध्य भारत, विशेष रूप से वर्तमान मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के कुछ हिस्सों में शासन करता था। कालचुरि वंश की दो प्रमुख शाखाएँ थीं: त्रिपुरी के कालचुरि (मध्य प्रदेश) और रतनपुर के कालचुरि (छत्तीसगढ़)। यह वंश अपनी सैन्य शक्ति, स्थापत्य और सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रसिद्ध है। नीचे कालचुरि वंश और इसके शासकों का विस्तृत विवरण दिया गया है।
1. कालचुरि वंश: उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास
उत्पत्ति: कालचुरि वंश की उत्पत्ति के बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ स्रोत उन्हें हैहय वंश से जोड़ते हैं, जो पौराणिक कथाओं में चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार, कालचुरि अग्निकुल राजपूतों का हिस्सा थे, जो माउंट आबू में अग्नि यज्ञ से उत्पन्न हुए। कुछ इतिहासकार उन्हें स्थानीय जनजातियों से जोड़ते हैं, जो बाद में राजपूत संस्कृति में समाहित हो गए।
प्रारंभिक केंद्र: त्रिपुरी (वर्तमान मध्य प्रदेश में जबलपुर के पास तेवर) कालचुरियों की प्रारंभिक राजधानी थी। बाद में, रतनपुर (छत्तीसगढ़) उनकी दूसरी प्रमुख राजधानी बनी।
काल: कालचुरि वंश का शासन 6वीं से 13वीं शताब्दी तक रहा, जिसमें त्रिपुरी और रतनपुर शाखाओं का अलग-अलग समय में प्रभाव रहा।
संस्थापक: कालचुरियों का प्रारंभिक इतिहास अस्पष्ट है, लेकिन कोक्कल I (9वीं शताब्दी) को त्रिपुरी शाखा का संस्थापक माना जाता है।
2. कालचुरि वंश की शाखाएँ
कालचुरि वंश की दो प्रमुख शाखाएँ थीं
त्रिपुरी के कालचुरि (मध्य प्रदेश)
राजधानी: त्रिपुरी (जबलपुर के पास तेवर)।
काल: 9वीं से 13वीं शताब्दी तक।
क्षेत्र: मालवा, बुंदेलखंड, और नर्मदा घाटी के क्षेत्र।
प्रमुख शासक: कोक्कल I, गंगेयदेव, लक्ष्मीकर्ण, यशःकर्ण।
पतन: 13वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण इस शाखा का पतन हुआ।
रतनपुर के कालचुरि (छत्तीसगढ़)
राजधानी: रतनपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़)।
काल: 10वीं से 18वीं शताब्दी तक।
क्षेत्र: छत्तीसगढ़, ओडिशा, और मध्य भारत के कुछ हिस्से।
प्रमुख शासक: रत्नदेव I, पृथ्वीदेव I, जाजल्लदेव I, रत्नदेव II।
पतन: 18वीं शताब्दी में मराठों और अन्य स्थानीय शक्तियों के उदय के कारण इस शाखा का प्रभाव कम हुआ।
3. प्रमुख शासक और उनके योगदान
कालचुरि वंश के कई शासकों ने अपनी सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक योगदान से इतिहास में नाम कमाया। यहाँ प्रमुख शासकों का विस्तृत विवरण है:
त्रिपुरी के कालचुरि के शासक
1. कोक्कल I (850–890)
शासन: कोक्कल I ने त्रिपुरी में कालचुरि वंश की नींव रखी।
विजय: उन्होंने राष्टकूटों और प्रतिहारों के खिलाफ युद्ध लड़े और त्रिपुरी को एक शक्तिशाली केंद्र बनाया। पड़ोसी क्षेत्रों में कालचुरि प्रभाव का विस्तार किया।
सांस्कृतिक योगदान: कोक्कल I ने मंदिर निर्माण और साहित्य को संरक्षण दिया।
महत्व: कोक्कल I ने कालचुरि वंश को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया।
2. गंगेयदेव (1015–1041)
शासन: गंगेयदेव त्रिपुरी के कालचुरियों के सबसे शक्तिशाली शासक थे।
विजय: गंगेयदेव ने चंदेलों, परमारों और चालुक्यों के खिलाफ युद्ध लड़े। उन्होंने पूर्वी भारत (उड़ीसा और बंगाल) तक अपने अभियानों का विस्तार किया और
सांस्कृतिक योगदान:- गंगेयदेव ने त्रिपुरी में मंदिरों और जल संरचनाओं का निर्माण करवाया। उनके शासनकाल में कालचुरि कला और स्थापत्य का विकास हुआ। महत्व: गंगेयदेव ने कालचुरि वंश को अपने चरम पर पहुँचाया।
3. लक्ष्मीकर्ण (1041–1073)
शासन: लक्ष्मीकर्ण गंगेयदेव के पुत्र थे और उनकी सैन्य विजयों के लिए प्रसिद्ध थे।
विजय: उन्होंने चालुक्य, चंदेल और परमार राज्यों पर आक्रमण किए। लक्ष्मीकर्ण ने उत्तरी और पूर्वी भारत में कई अभियान चलाए और काशी (वाराणसी) तक अपने प्रभाव का विस्तार किया।
पतन: उनके शासनकाल के अंत में कालचुरि शक्ति कमजोर होने लगी, क्योंकि पड़ोसी राज्यों ने उनके खिलाफ गठबंधन बनाया।
महत्व: लक्ष्मीकर्ण ने कालचुरि वंश की सैन्य शक्ति को बनाए रखा, लेकिन उनके बाद वंश की शक्ति कमजोर हुई।
4. यशःकर्ण (1073–1120)
शासन: यशःकर्ण ने कालचुरि शक्ति को बनाए रखने की कोशिश की।
विजय: उन्होंने चालुक्यों और चंदेलों के खिलाफ युद्ध लड़े, लेकिन उनकी शक्ति पहले जितनी प्रभावशाली नहीं रही।
महत्व: यशःकर्ण के बाद त्रिपुरी के कालचुरियों का प्रभाव कम होने लगा।
रतनपुर के कालचुरि के शासक
1. रत्नदेव I (10वीं शताब्दी)
शासन: रत्नदेव I ने रतनपुर में कालचुरि शाखा की स्थापना की।
विजय: उन्होंने छत्तीसगढ़ और ओडिशा के कुछ हिस्सों में अपने प्रभाव का विस्तार किया।
महत्व: रत्नदेव I ने रतनपुर शाखा को एक स्वतंत्र और शक्तिशाली इकाई बनाया।
2. जाजल्लदेव I (1090–1120)
शासन: जाजल्लदेव I रतनपुर के कालचुरियों के प्रमुख शासक थे।
विजय: उन्होंने पड़ोसी गोंड और अन्य स्थानीय शासकों के खिलाफ युद्ध लड़े।
सांस्कृतिक योगदान: जाजल्लदेव ने रतनपुर में मंदिरों और जल संरचनाओं का निर्माण करवाया। उनके शासनकाल में रतनपुर एक सांस्कृतिक केंद्र बन गया।
3. रत्नदेव II (1120–1135)
शासन: रत्नदेव II ने रतनपुर शाखा की शक्ति को और बढ़ाया।
विजय: उन्होंने ओडिशा और छत्तीसगढ़ के पड़ोसी क्षेत्रों में अभियान चलाए।
सांस्कृतिक योगदान: उनके समय में कई मंदिर और स्थापत्य संरचनाएँ बनीं।
महत्व: रत्नदेव II ने रतनपुर को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया।
4. सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान
कालचुरि वंश ने कला, स्थापत्य और साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया:
स्थापत्य
त्रिपुरी: त्रिपुरी में कई मंदिर और किलों का निर्माण हुआ, जैसे नर्मदा नदी के किनारे के मंदिर।
रतनपुर: रतनपुर में भोरमदेव मंदिर (छत्तीसगढ़) कालचुरि स्थापत्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसे
अमरकंटक: कालचुरियों ने अमरकंटक में नर्मदा मंदिरों का निर्माण करवाया।
साहित्य: कालचुरि शासकों ने संस्कृत साहित्य और कवियों को संरक्षण दिया। उनके शिलालेख, जैसे बिल्हारी और बाणपुर शिलालेख, उनकी सैन्य विजय और धार्मिक गतिविधियों का विवरण देते हैं।
धर्म: कालचुरि शासक मुख्य रूप से शैव (शिव भक्त) थे, लेकिन उन्होंने वैष्णव और जैन धर्म को भी संरक्षण दिया। भोरमदेव मंदिर (शिव को समर्पित) और अमरकंटक के नर्मदा मंदिर उनके धार्मिक योगदान को दर्शाते हैं।
जल संरचनाएँ: कालचुरियों ने कई तालाबों और जलाशयों का निर्माण करवाया, जो उनके जल प्रबंधन कौशल को दर्शाता है।
5. कालचुरि और अन्य वंशों का संबंध
चूंकि आपने पहले चौहान, चंदेल और परमार वंशों के बारे में पूछा था, यहाँ कालचुरियों का इन वंशों के साथ संबंध का विवरण है:
चौहान वंश: कालचुरियों और चौहानों के बीच कई बार युद्ध हुए। पृथ्वीराज चौहान ने त्रिपुरी के कालचुरियों के खिलाफ अभियान चलाए। दोनों वंशों ने मुहम्मद गोरी जैसे विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ कभी-कभी गठबंधन भी किया।
चंदेल वंश: कालचुरियों और चंदेलों के बीच मालवा और बुंदेलखंड के लिए प्रतिस्पर्धा थी। गंगेयदेव और लक्ष्मीकर्ण ने चंदेलों के खिलाफ कई युद्ध लड़े, विशेष रूप से कालिंजर क्षेत्र के लिए।
परमार वंश: कालचुरियों और परमारों के बीच मालवा के नियंत्रण के लिए लगातार युद्ध हुए। राजा भोज और गंगेयदेव के बीच कई युद्ध हुए। दोनों वंशों ने कभी-कभी गठबंधन भी बनाए, विशेष रूप से चालुक्यों के खिलाफ
6. पतन
कालचुरि वंश का पतन निम्नलिखित कारणों से हुआ: त्रिपुरी के कालचुरि: 13वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत (विशेष रूप से इल्तुतमिश और उनके उत्तराधिकारियों) के आक्रमणों ने त्रिपुरी के कालचुरियों को कमजोर कर दिया। चंदेलों और परमारों जैसे पड़ोसी राज्यों के साथ युद्धों ने उनकी शक्ति को और कम किया।
रतनपुर के कालचुरि: रतनपुर शाखा 18वीं शताब्दी तक बनी रही, लेकिन मराठों और अन्य स्थानीय शक्तियों के उदय ने उनकी शक्ति को समाप्त कर दिया। रतनपुर के कालचुरियों ने छोटे सामंती शासकों के रूप में शासन जारी रखा, लेकिन उनका प्रभाव सीमित हो गया।
आंतरिक कमजोरी: उत्तराधिकार विवाद और आंतरिक कलह ने दोनों शाखाओं को कमजोर किया।
7. आधुनिक संदर्भ
वंशज: कालचुरि वंश के वंशज आज भी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में राजपूत और अन्य समुदायों के रूप में मौजूद हैं।
सांस्कृतिक धरोहर: भोरमदेव मंदिर और अमरकंटक के मंदिर कालचुरि स्थापत्य के जीवंत उदाहरण हैं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं।
लोककथाएँ: कालचुरि शासकों की वीरता और उनके मंदिरों की कहानियाँ छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की लोक संस्कृति में जीवित हैं।
8. महत्वपूर्ण तथ्य
सैन्य शक्ति: कालचुरियों ने महमूद गजनवी, चंदेलों, परमारों और चालुक्यों जैसे शक्तिशाली शत्रुओं का सामना किया।
स्थापत्य: भोरमदेव मंदिर और अमरकंटक के मंदिर कालचुरि कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
धार्मिक सहिष्णुता: कालचुरियों ने शैव, वैष्णव और जैन धर्म को संरक्षण दिया।
क्षेत्रीय प्रभाव: त्रिपुरी और रतनपुर शाखाओं ने मध्य भारत में लंबे समय तक प्रभाव बनाए रखा।
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