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Chamar Regiment
jp Singh 2025-05-23 06:43:37
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चमार रेजिमेंट (Chamar Regiment)

चमार रेजिमेंट (Chamar Regiment)
चमार रेजिमेंट (Chamar Regiment)
चमार रेजिमेंट (Chamar Regiment) भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण सैन्य इकाई थी, जिसका गठन ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान किया था। यह रेजिमेंट मुख्य रूप से चमार समुदाय के लोगों से बनी थी, जो अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) का हिस्सा है और परंपरागत रूप से चमड़े के काम से जुड़ा रहा है। चमार रेजिमेंट का गठन और उसका इतिहास सामाजिक, सैन्य और राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चमार समुदाय की सैन्य योग्यता और सामाजिक सशक्तिकरण का प्रतीक था। नीचे चमार रेजिमेंट के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है:
1. चमार रेजिमेंट का गठन
पृष्ठभूमि:
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार को भारतीय सैनिकों की भारी आवश्यकता थी, क्योंकि युद्ध वैश्विक स्तर पर फैल चुका था। भारत में विभिन्न समुदायों से सैनिक भर्ती किए जा रहे थे। चमार समुदाय, जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर था, ने युद्ध में भाग लेने की इच्छा दिखाई। यह समुदाय पहले से ही कृषि और अन्य व्यवसायों में सक्रिय था, और कई लोग शारीरिक रूप से मजबूत और युद्ध के लिए उपयुक्त थे। 1943 में, ब्रिटिश सरकार ने चमार समुदाय के लोगों को सैन्य सेवा में शामिल करने के लिए चमार रेजिमेंट का गठन किया। यह रेजिमेंट भारतीय सेना की एक पैदल सेना (infantry) इकाई थी।
गठन का उद्देश्य:
ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य युद्ध के लिए अधिक से अधिक सैनिकों की भर्ती करना था। चमार समुदाय के लिए यह एक अवसर था, जिसके माध्यम से वे अपनी सैन्य क्षमता साबित कर सकते थे और सामाजिक भेदभाव को कम करने की दिशा में कदम उठा सकते थे।
भर्ती और प्रशिक्षण:
चमार रेजिमेंट में मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा के चमार समुदाय के युवाओं को भर्ती किया गया। प्रशिक्षण केंद्र उत्तर प्रदेश के झाँसी और कानपुर जैसे शहरों में स्थापित किए गए। रेजिमेंट में सैनिकों को आधुनिक युद्ध तकनीकों, हथियारों के उपयोग और रणनीति में प्रशिक्षित किया गया।
2. चमार रेजिमेंट की संरचना और संगठन
बटालियन:
चमार रेजिमेंट में कई बटालियन थीं, जैसे 1st Chamar Regiment और 2nd Chamar Regiment। प्रत्येक बटालियन में सैकड़ों सैनिक शामिल थे। रेजिमेंट का नेतृत्व ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों द्वारा किया जाता था, लेकिन चमार समुदाय के सैनिक इसकी रीढ़ थे।
सैन्य भूमिका:
चमार रेजिमेंट को पैदल सेना के रूप में तैनात किया गया, जिसका कार्य युद्ध के मैदान में लड़ना, रसद आपूर्ति (logistics) और रक्षा कार्यों में सहायता करना था। यह रेजिमेंट मुख्य रूप से बर्मा (वर्तमान म्यांमार) मोर्चे पर तैनात थी, जहाँ जापानी सेना के खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा था।
3. युद्ध में योगदान
बर्मा मोर्चा (1944-1945):
चमार रेजिमेंट ने द्वितीय विश्व युद्ध के दक्षिण-पूर्व एशियाई मोर्चे, विशेष रूप से बर्मा अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बर्मा में जापानी सेना के खिलाफ कठिन परिस्थितियों (जैसे जंगल, बारिश और बीमारियाँ) में चमार रेजिमेंट के सैनिकों ने वीरता और अनुशासन का परिचय दिया। रेजिमेंट ने कोहिमा और इम्फाल की लड़ाइयों में हिस्सा लिया, जो मित्र देशों (Allied Forces) की जीत के लिए महत्वपूर्ण थीं।
वीरता और सम्मान:
चमार रेजिमेंट के सैनिकों ने युद्ध में असाधारण साहस दिखाया। कई सैनिकों को उनकी वीरता के लिए पुरस्कार और प्रशस्ति-पत्र प्राप्त हुए। रेजिमेंट ने यह साबित किया कि चमार समुदाय, जिसे सामाजिक रूप से निम्न माना जाता था, युद्ध के मैदान में उतना ही सक्षम था जितना अन्य सैन्य समूह।
4. रेजिमेंट का विघटन
1946 में भंग:
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति (1945) के बाद, ब्रिटिश सरकार ने कई भारतीय सैन्य इकाइयों को भंग कर दिया, जिनमें चमार रेजिमेंट भी शामिल थी। 1946 में चमार रेजिमेंट को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया। इसके पीछे कई कारण थे:
ब्रिटिश नीति: युद्ध समाप्त होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने सैन्य खर्च को कम करने और सेना को पुनर्गठित करने का निर्णय लिया।
जातिगत भेदभाव: कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चमार रेजिमेंट को भंग करने में औपनिवेशिक प्रशासन की जातिगत पूर्वाग्रह भी एक कारक थे। चमार समुदाय को सामाजिक रूप से निम्न माना जाता था, और ब्रिटिश सरकार ने इसे एक स्थायी सैन्य इकाई के रूप में बनाए रखने में रुचि नहीं दिखाई।
राजनीतिक दबाव: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बढ़ते प्रभाव और राष्ट्रीय नेताओं के दबाव ने भी ब्रिटिश नीतियों को प्रभावित किया।
सैनिकों का भविष्य:
रेजिमेंट भंग होने के बाद, कई सैनिक अपने गाँवों में लौट गए, जहाँ उन्हें फिर से सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ा। कुछ सैनिकों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया, जबकि अन्य ने चमड़े के व्यापार और अन्य व्यवसायों में योगदान दिया।
5. सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
सामाजिक सशक्तिकरण:
चमार रेजिमेंट का गठन चमार समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक अवसर था, जिसने उनकी सैन्य क्षमता और सामाजिक गौरव को प्रदर्शित किया। रेजिमेंट ने यह साबित किया कि चमार समुदाय को केवल चमड़े के काम तक सीमित करना गलत था, और वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योगदान दे सकते थे।
दलित आंदोलन:
चमार रेजिमेंट के विघटन ने दलित समुदाय में असंतोष पैदा किया, जिसने बाद में दलित आंदोलनों को बल दिया। डॉ. बी. आर. अंबेडकर और अन्य दलित नेताओं ने इस भेदभाव को राष्ट्रीय मंच पर उठाया। चमार रेजिमेंट की विरासत ने दलित समुदाय को सैन्य और सामाजिक पहचान के लिए प्रेरित किया।
आधुनिक माँग:
हाल के दशकों में, कुछ दलित संगठनों और नेताओं ने चमार रेजिमेंट को पुनर्जनन करने की माँग की है, ताकि समुदाय की सैन्य विरासत को मान्यता मिले। उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने इस मुद्दे को समय-समय पर उठाया है।
6. सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
संत रविदास की प्रेरणा: चमार रेजिमेंट के सैनिकों ने संत रविदास की शिक्षाओं से प्रेरणा ली, जो सामाजिक समानता और आत्म-सम्मान पर जोर देते थे। रविदास चमार समुदाय के सबसे सम्मानित संत हैं।
सामाजिक धारणा में बदलाव: रेजिमेंट ने चमार समुदाय को केवल निम्न व्यवसाय से जोड़ने की रूढ़िगत धारणा को तोड़ने में मदद की। यह समुदाय की बहुमुखी प्रतिभा और योगदान को दर्शाता है।
ऐतिहासिक स्मृति: चमार रेजिमेंट को आज भी दलित समुदाय में गर्व का प्रतीक माना जाता है। यह उन कुछ अवसरों में से एक था जब चमार समुदाय को राष्ट्रीय मंच पर अपनी क्षमता दिखाने का मौका मिला।
7. विवाद और आलोचनाएँ
जातिगत आधार पर रेजिमेंट का नाम: कुछ विद्वानों का मानना है कि
विघटन का कारण: रेजिमेंट के भंग होने को लेकर कई सिद्धांत हैं। कुछ इसे ब्रिटिश सरकार की रणनीति का हिस्सा मानते हैं, जो दलित समुदायों को स्थायी सैन्य शक्ति बनने से रोकना चाहती थी।
आधुनिक संदर्भ: चमार शब्द का उपयोग आज भारत में संवेदनशील माना जाता है, और इसे SC/ST (Prevention of Atrocities) Act, 1989 के तहत अपमानजनक माना गया है। इसलिए, रेजिमेंट के नाम को लेकर भी कुछ विवाद हैं।
चमार रेजिमेंट (1943-1946) के सैनिकों के नाम
चमार रेजिमेंट (1943-1946) के सैनिकों के नाम और उनकी व्यक्तिगत कहानियों के बारे में ऐतिहासिक साक्ष्य सीमित हैं, क्योंकि इस रेजिमेंट का इतिहास व्यापक रूप से प्रलेखित नहीं किया गया और इसे 1946 में भंग कर दिया गया। हालाँकि, कुछ शोधकर्ताओं, विशेष रूप से सतनाम सिंह और हवलदार सुलतान सिंह, ने इस रेजिमेंट पर किताबें लिखी हैं, जिनमें कुछ सैनिकों के नाम और उनकी वीरता की कहानियाँ उल्लिखित हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ समकालीन स्रोत और सोशल मीडिया पोस्ट (जैसे X) ने इस रेजिमेंट के सैनिकों की शौर्यगाथाओं को उजागर किया है। नीचे चमार रेजिमेंट के कुछ उल्लेखनीय सैनिकों के नाम और उनकी कहानियों का उपलब्ध जानकारी के आधार पर विस्तृत विवरण दिया गया है।
1. प्रमुख सैनिकों के नाम और उनकी कहानियाँ
(i) हवलदार चुन्नी लाल
पृष्ठभूमि: हवलदार चुन्नी लाल हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के निवासी थे। वे चमार रेजिमेंट के अंतिम जीवित सैनिकों में से एक थे, जिनका निधन 106 वर्ष की आयु में 2022 में हुआ।
कहानी:
चुन्नी लाल ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा (वर्तमान म्यांमार) मोर्चे पर कोहिमा और इम्फाल की लड़ाइयों में भाग लिया। उनकी वीरता और अनुशासन के लिए उन्हें सम्मानित किया गया। सतनाम सिंह के शोध के अनुसार, चुन्नी लाल उन सैनिकों में से थे जिन्होंने रेजिमेंट के भंग होने के बाद भी अपनी सैन्य गौरव की यादों को संजोए रखा। उनके साक्षात्कारों ने रेजिमेंट की कहानियों को जीवित रखने में मदद की। चुन्नी लाल ने बताया कि चमार रेजिमेंट के सैनिकों ने जापानी सेना के खिलाफ कठिन परिस्थितियों में लड़ाई लड़ी, और उनकी रेजिमेंट ने 43 शौर्य मेडल जीते, जिनमें ब्रिटिश साम्राज्य पदक, सैन्य पदक, और मिलिट्री क्रॉस शामिल थे। महत्व: चुन्नी लाल की मृत्यु की खबर से हरियाणा में शोक की लहर दौड़ गई, और उनकी कहानी दलित समुदाय के लिए गर्व का प्रतीक बनी।
(ii) मेजर जोगीराम पृष्ठभूमि: मेजर जोगीराम हरियाणा के भिवानी जिले के निवासी थे और चमार रेजिमेंट के एक प्रमुख सैनिक थे।
कहानी: जोगीराम ने चमार रेजिमेंट के विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1946 में जब रेजिमेंट को भंग किया गया, तो उन्होंने इसके खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया। इस विद्रोह के कारण उन्हें और 45 अन्य सैनिकों को जेल की सजा हुई। सतनाम सिंह के साक्षात्कारों के अनुसार, जोगीराम ने बर्मा मोर्चे पर जापानी सेना के खिलाफ युद्ध में हिस्सा लिया और अपनी रणनीतिक कुशलता के लिए पहचाने गए। उनके पास सरकारी और निजी दस्तावेज़ थे, जो रेजिमेंट की उपलब्धियों को दर्शाते थे। जोगीराम ने रेजिमेंट के भंग होने के बाद भी इसकी बहाली के लिए आवाज़ उठाई और दलित समुदाय के सैन्य योगदान को राष्ट्रीय मंच पर लाने का प्रयास किया।
महत्व: जोगीराम की कहानी चमार रेजिमेंट के सैनिकों के साहस और उनके सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का प्रतीक है।
(iii) धर्मसिंह
पृष्ठभूमि: धर्मसिंह हरियाणा के सोनीपत जिले के निवासी थे और चमार रेजिमेंट के एक और महत्वपूर्ण सैनिक थे।
कहानी: धर्मसिंह ने भी बर्मा अभियान में भाग लिया और कोहिमा, इम्फाल, और रंगून की लड़ाइयों में अपनी वीरता दिखाई। सतनाम सिंह के शोध में उनके साक्षात्कार शामिल हैं, जिनमें उन्होंने युद्ध के दौरान की कठिनाइयों और रेजिमेंट के अनुशासन का वर्णन किया। धर्मसिंह ने बताया कि चमार रेजिमेंट के सैनिकों ने न केवल जापानी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि आज़ाद हिंद फौज (INA) के सैनिकों के साथ भी युद्ध किया। जब उन्हें अपने ही देशवासियों (INA) के खिलाफ लड़ने को कहा गया, तो कई सैनिकों ने विद्रोह कर दिया, क्योंकि वे सुभाष चंद्र बोस के स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन करते थे।
महत्व: धर्मसिंह की कहानी रेजिमेंट के नैतिक और देशभक्ति के पहलुओं को उजागर करती है।
(iv) अन्य शहीद सैनिक
शहीदों की संख्या: चमार रेजिमेंट के 42 सैनिक द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद हुए, जिनके नाम दिल्ली, इम्फाल, कोहिमा, और रंगून के युद्ध स्मारकों में दर्ज हैं। उदाहरण: कुछ स्रोतों में उल्लेख है कि रेजिमेंट के सात सैनिकों को विभिन्न वीरता पुरस्कार प्राप्त हुए, जिनमें 5 ब्रिटिश साम्राज्य पदक, 3 सैन्य पदक, 3 मिलिट्री क्रॉस, और 4 पेसिफिक स्टार शामिल थे।
कहानियाँ: इन शहीदों की व्यक्तिगत कहानियाँ कम प्रलेखित हैं, लेकिन सतनाम सिंह की पुस्तक चमार रेजिमेंट और उसके बहादुर सैनिकों के विद्रोह की कहानी उन्‍हीं की जुबानी में कुछ सैनिकों के युद्ध अनुभवों का वर्णन है। उदाहरण के लिए, सैनिकों ने बर्मा के जंगलों में मलेरिया, बारिश, और जापानी सेना की गुरिल्ला रणनीतियों का सामना किया।
2. चमार रेजिमेंट की प्रमुख लड़ाइयाँ और सैनिकों की भूमिका
कोहिमा और इम्फाल की लड़ाइयाँ (1944): चमार रेजिमेंट की पहली बटालियन को असम के बाद कोहिमा और इम्फाल भेजा गया, जहाँ उन्होंने जापानी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इन लड़ाइयों में रेजिमेंट के सैनिकों ने असाधारण साहस दिखाया, और कई सैनिकों को उनकी वीरता के लिए पुरस्कृत किया गया।
बर्मा अभियान: रेजिमेंट ने बर्मा (म्यांमार) में रंगून और अन्य क्षेत्रों में जापानी सेना के खिलाफ युद्ध किया। सैनिकों ने कठिन परिस्थितियों में लड़ाई लड़ी, जिसमें जंगल, मलेरिया, और आपूर्ति की कमी शामिल थी।
सिंगापुर और टोक्यो: कुछ स्रोतों में दावा किया गया है कि रेजिमेंट ने सिंगापुर और टोक्यो की लड़ाइयों में भी हिस्सा लिया, हालाँकि इनका प्रलेखन सीमित है।
आज़ाद हिंद फौज के खिलाफ विद्रोह: जब चमार रेजिमेंट को सिंगापुर में सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज (INA) के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा गया, तो कई सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। वे अपने देशवासियों के खिलाफ लड़ना नहीं चाहते थे, जिसके कारण रेजिमेंट को 1946 में भंग कर दिया गया।
3. सैनिकों की कहानियों को प्रलेखित करने वाले स्रोत
सतनाम सिंह की पुस्तक: सतनाम सिंह ने चमार रेजिमेंट और उसके बहादुर सैनिकों के विद्रोह की कहानी उन्‍हीं की जुबानी (2014) में तीन जीवित सैनिकों—चुन्नी लाल, जोगीराम, और धर्मसिंह—के साक्षात्कारों के आधार पर रेजिमेंट की कहानी लिखी। उन्होंने कॉमनवेल्थ वॉर कमीशन के डेटा का उपयोग कर शहीदों और पुरस्कार विजेताओं की जानकारी संकलित की।
हवलदार सुलतान सिंह की पुस्तक: चमार रेजिमेंट और अनुसूचित जातियों की सेना में भागीदारी में सुलतान सिंह ने रेजिमेंट के इतिहास और सैनिकों के योगदान को विस्तार से वर्णित किया।
JNU में शोध: सतनाम सिंह ने JNU के मॉडर्न हिस्ट्री डिपार्टमेंट में
4. सैनिकों की कहानियों का महत्व
सामाजिक सशक्तिकरण: चमार रेजिमेंट के सैनिकों की कहानियाँ दलित समुदाय के लिए गर्व का स्रोत हैं। ये कहानियाँ यह साबित करती हैं कि चमार समुदाय, जिसे सामाजिक रूप से निम्न माना जाता था, ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ऐतिहासिक उपेक्षा: रेजिमेंट की कहानियों को लंबे समय तक दबाया गया, क्योंकि ब्रिटिश सरकार और बाद की भारतीय सरकारों ने इसे व्यापक प्रचार नहीं दिया। सतनाम सिंह जैसे शोधकर्ताओं ने इन कहानियों को सामने लाकर दलित इतिहास को पुनर्जनन किया।
पुनर्जनन की माँग: चमार रेजिमेंट के सैनिकों की वीरता को मान्यता देने के लिए कई संगठन, जैसे भीम आर्मी और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, ने रेजिमेंट की बहाली की माँग की है।
5. चुनौतियाँ और सीमाएँ
सीमित प्रलेखन: चमार रेजिमेंट के सैनिकों के व्यक्तिगत नाम और उनकी विस्तृत कहानियाँ बड़े पैमाने पर प्रलेखित नहीं हैं। केवल कुछ सैनिकों, जैसे चुन्नी लाल, जोगीराम, और धर्मसिंह, की कहानियाँ उपलब्ध हैं।
जातिगत भेदभाव: रेजिमेंट के भंग होने और इसके इतिहास की उपेक्षा को कुछ विद्वान ब्रिटिश सरकार की जातिगत नीतियों और दलित समुदाय के प्रति भेदभाव से जोड़ते हैं।
शहीदों के नाम: युद्ध स्मारकों में 42 शहीदों के नाम दर्ज हैं, लेकिन इनके व्यक्तिगत विवरण और कहानियाँ सार्वजनिक रूप से कम उपलब्ध हैं।
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