Pandya Dynasty
jp Singh
2025-05-22 21:58:03
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पांड्य वंश
पांड्य वंश
पांड्य वंश
पांड्य वंश दक्षिण भारत का एक प्राचीन और प्रभावशाली राजवंश था, जिसने संगम युग (लगभग 300 ई.पू. से 300 ई.) से लेकर मध्यकाल (13वीं-14वीं शताब्दी) तक शासन किया। उनका केंद्र मुख्य रूप से मदुरै में था, और वे तमिल संस्कृति, साहित्य, मंदिर निर्माण, और समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध थे। पांड्य वंश के शासकों को दो प्रमुख कालों में विभाजित किया जा सकता है: प्रथम पांड्य साम्राज्य (6वीं-10वीं शताब्दी) और द्वितीय पांड्य साम्राज्य (13वीं-14वीं शताब्दी)। नीचे पांड्य वंश के प्रमुख शासकों की सूची और उनके योगदानों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है।
1. संगम युग के पांड्य शासक (300 ई.पू.-300 ई.)
संगम युग के पांड्य शासकों के बारे में जानकारी मुख्य रूप से तमिल संगम साहित्य, जैसे पत्तुपट्टु और एट्टुत्तोकै, से प्राप्त होती है। इस काल के शासकों के नाम और शासनकाल स्पष्ट रूप से ऐतिहासिक स्रोतों में कम दर्ज हैं, लेकिन कुछ प्रमुख शासकों का उल्लेख मिलता है:
नेदुंजेलियन्:
संगम साहित्य में नेदुंजेलियन् (विशेष रूप से नेदुंजेलियन् I और II) को एक शक्तिशाली और उदार शासक के रूप में वर्णित किया गया है। मदुरैकांची और अगनानुरु जैसे ग्रंथों में उनकी वीरता और तमिल संगम को संरक्षण देने का उल्लेख है। नेदुंजेलियन् II ने चेर और चोल शासकों के गठबंधन को तलियालंगनम के युद्ध में हराया।
पलयमुदुक्कुदुमी:
इस शासक का उल्लेख संगम साहित्य में मिलता है। वे अपनी उदारता और युद्ध कौशल के लिए जाने जाते थे। उनके शासनकाल में पांड्य साम्राज्य का समुद्री व्यापार, विशेष रूप से मोती और रत्न, फला-फूला।
अन्य शासक: संगम युग में कई अन्य पांड्य शासकों का उल्लेख है, जैसे मुदुकुदुमी परावलुदि, जिन्हें साहित्य में संरक्षक और योद्धा के रूप में वर्णित किया गया है।
योगदान: इस काल में पांड्य शासकों ने तमिल संगम को संरक्षण दिया, जिसने तमिल साहित्य को समृद्ध किया। उनके शासन में कोरकई और मदुरै जैसे बंदरगाह समुद्री व्यापार के केंद्र थे।
2. प्रथम पांड्य साम्राज्य (6वीं-10वीं शताब्दी)
संगम युग के बाद, पांड्य वंश 6वीं शताब्दी में फिर से उभरा। इस काल में पांड्य शासकों ने कलभ्र शासकों को पराजित कर मदुरै पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं:
कदुंगोन (लगभग 590-620 ई.):
प्रथम पांड्य साम्राज्य के पुनर्जनन के लिए प्रसिद्ध। उन्होंने कलभ्र शासकों को हराकर पांड्य साम्राज्य की नींव मजबूत की। उनके शासनकाल में मंदिर निर्माण और धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला।
मारवरमन अवनिशुलमणि (620-645 ई.):
उन्होंने पांड्य क्षेत्र का विस्तार किया और पल्लवों के खिलाफ युद्ध लड़े। उनके शासनकाल में पांड्य साम्राज्य ने अपनी शक्ति को समेकित किया।
शेंडन (645-670 ई.):
शेंडन ने पांड्य साम्राज्य की सैन्य शक्ति को बढ़ाया और पल्लवों के साथ संघर्ष किया। उनके शासनकाल में समुद्री व्यापार और मंदिर निर्माण को प्रोत्साहन मिला।
वरगुण प्रथम (लगभग 800-830 ई.):
उन्होंने पांड्य साम्राज्य का पुनरुत्थान किया और चोल, चेर, और पल्लव शासकों के खिलाफ युद्ध लड़े। उनके शासनकाल में मीनाक्षी मंदिर का विस्तार हुआ।
श्रीमारा श्रीवल्लभ (815-862 ई.):
वे एक शक्तिशाली पांड्य शासक थे, जिन्होंने श्रीलंका पर अभियान चलाए और चोल-पल्लव गठबंधन के खिलाफ युद्ध लड़ा। उनकी पराजय पल्लव शासक नंदिवर्मन तृतीय के खिलाफ हुई, जिसने पांड्य शक्ति को प्रभावित किया।
वरगुण द्वितीय (862-885 ई.):
उन्होंने पांड्य साम्राज्य की शक्ति को बनाए रखने का प्रयास किया और पल्लवों के साथ युद्ध लड़े। उनके शासनकाल में पांड्य साम्राज्य ने कुछ समय के लिए स्थिरता हासिल की।
चुनौतियाँ: इस काल में पांड्य शासकों को पल्लव, चालुक्य, और बाद में चोल शासकों के साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ा। 9वीं शताब्दी के अंत में चोल शासक आदित्य प्रथम और परांतक प्रथम ने पांड्य क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, जिसके बाद पांड्य चोलों के अधीन हो गए।
योगदान: इस काल में पांड्य शासकों ने मंदिर निर्माण (विशेष रूप से मीनाक्षी मंदिर), शैव-वैष्णव परंपराओं, और समुद्री व्यापार को प्रोत्साहन दिया। उनके शिलालेख, जैसे वेलविकुडी और सिन्नमन्नूर शिलालेख, पांड्य इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
3. चोल आधिपत्य और विद्रोह (10वीं-12वीं शताब्दी)
10वीं शताब्दी में चोल वंश के उदय के साथ पांड्य शासक उनके अधीन हो गए। इस काल में पांड्य शासकों ने स्वतंत्रता के लिए बार-बार विद्रोह किए। कुछ प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं:
मारवरमन सुंदर पांड्य (लगभग 1100 ई.):
उन्होंने चोल शासकों (विशेष रूप से कुलोत्तुंग चोल प्रथम) के खिलाफ विद्रोह किया। उनके विद्रोह को दबा दिया गया, लेकिन इसने पांड्य स्वतंत्रता की भावना को जीवित रखा।
जटावरमन वीर पांड्य (लगभग 1120 ई.):
उन्होंने चोल शासक विक्रम चोल के खिलाफ विद्रोह किया, लेकिन पूर्ण स्वतंत्रता हासिल नहीं कर सके। अन्य शासक: इस काल में कई छोटे पांड्य सामंतों ने चोलों के अधीन शासन किया और समय-समय पर विद्रोह किए।
योगदान: इस काल में पांड्य शासकों का प्रभाव सीमित था, लेकिन उन्होंने मंदिरों और धार्मिक स्थलों के रखरखाव में योगदान दिया।
4. द्वितीय पांड्य साम्राज्य (13वीं-14वीं शताब्दी)
13वीं शताब्दी में चोल साम्राज्य के कमजोर होने के साथ पांड्य वंश ने अपना पुनरुत्थान किया। यह काल पांड्य वंश का स्वर्ण युग था, जिसमें उन्होंने दक्षिण भारत में प्रभुत्व स्थापित किया। प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं:
जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम (1251-1268 ई.):
द्वितीय पांड्य साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली शासक। उन्होंने चोल साम्राज्य को निर्णायक रूप से कमजोर किया और चोल राजधानी गंगैकोण्डचोलपुरम पर कब्जा किया। उन्होंने होयसाल, काकतिय, और श्रीलंका के सिंहली शासकों के खिलाफ युद्ध लड़े। उनके शासनकाल में पांड्य साम्राज्य दक्षिण भारत की सबसे शक्तिशाली शक्ति बन गया। उन्होंने मीनाक्षी मंदिर का विस्तार और जीर्णोद्धार करवाया।
मारवरमन कुलशेखर पांड्य प्रथम (1268-1308 ई.):
जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम के भाई और उत्तराधिकारी। उन्होंने चोल साम्राज्य को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लिया और चोल शासक राजेंद्र चोल तृतीय को सहायक शासक बनाया। उन्होंने श्रीलंका पर अभियान चलाए और समुद्री व्यापार को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल में दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश के सेनापति मलिक काफूर ने दक्षिण भारत पर आक्रमण (1311 ई.) किया, जिसने पांड्य साम्राज्य को कमजोर किया।
सुंदर पांड्य और वीर पांड्य (1308-1323 ई.):
मारवरमन कुलशेखर पांड्य प्रथम की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों सुंदर पांड्य और वीर पांड्य के बीच उत्तराधिकार का विवाद हुआ। इस विवाद ने पांड्य साम्राज्य को कमजोर किया, और दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों ने इसे और प्रभावित किया।
चुनौतियाँ: दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों (मलिक काफूर, 1311 ई.) और उत्तराधिकार विवादों ने पांड्य साम्राज्य को कमजोर किया। 1330 के दशक में दिल्ली सल्तनत ने मदुरै पर कब्जा कर लिया और मदुरै सल्तनत की स्थापना की।
योगदान: इस काल में पांड्य शासकों ने मीनाक्षी मंदिर और अन्य धार्मिक स्थलों का विस्तार किया। समुद्री व्यापार, विशेष रूप से मोती और रत्न, उनके शासनकाल में चरम पर था।
5. पांड्य साम्राज्य का पतन और बाद का इतिहास
मदुरै सल्तनत: 1330 के दशक में दिल्ली सल्तनत ने मदुरै पर कब्जा कर लिया और एक अल्पकालिक मदुरै सल्तनत की स्थापना की। इसने पांड्य शासन को समाप्त कर दिया।
विजयनगर और नायक शासक: 1370 के दशक में विजयनगर साम्राज्य ने मदुरै सल्तनत को समाप्त किया और पांड्य क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लिया। बाद में, विजयनगर के नायक शासकों ने मदुरै पर शासन किया, और कुछ छोटे पांड्य सामंत उनके अधीन बने रहे।
सांस्कृतिक विरासत: पांड्य वंश की सांस्कृतिक विरासत मीनाक्षी मंदिर, तमिल साहित्य, और समुद्री व्यापार के रूप में आज भी जीवित है।
6. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
मंदिर निर्माण: पांड्य शासकों ने मीनाक्षी मंदिर (मदुरै), नेल्लईअप्पर मंदिर (तिरुनेलवेली), और सुब्रह्मण्य मंदिर (तिरुचेंदूर) जैसे मंदिरों का निर्माण और विस्तार किया। उनके गोपुरम और मूर्तिकला पांड्य स्थापत्य की विशेषता हैं।
साहित्य: संगम युग में पांड्य शासकों ने तमिल संगम को संरक्षण दिया। द्वितीय पांड्य साम्राज्य में भी तमिल साहित्य को प्रोत्साहन मिला।
धार्मिक सहिष्णुता: पांड्य शासकों ने शैव और वैष्णव परंपराओं को समर्थन दिया। मीनाक्षी मंदिर शैव धर्म का प्रतीक है, जबकि वैष्णव मंदिरों को भी संरक्षण मिला।
7. आर्थिक योगदान
समुद्री व्यापार: पांड्य वंश कोरकई, कायल, और अन्य बंदरगाहों के माध्यम से दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, और मध्य पूर्व के साथ व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।
मोती और रत्न: पांड्य क्षेत्र मोती, रत्न, और मसालों के व्यापार के लिए जाना जाता था, जिसने उनकी आर्थिक समृद्धि को बढ़ाया।
कर व्यवस्था: पांड्य शासकों ने प्रभावी कर और भूमि प्रबंधन व्यवस्था बनाए रखी।
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