Rajendra Chola III 1246-1279 AD
jp Singh
2025-05-22 21:33:59
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राजेंद्र चोल तृतीय (1246-1279 ई.)
राजेंद्र चोल तृतीय (1246-1279 ई.)
राजेंद्र चोल तृतीय (1246-1279 ई.)
राजेंद्र चोल तृतीय (1246-1279 ई.) चोल वंश के अंतिम शासक थे, जो राजराज चोल तृतीय के उत्तराधिकारी थे। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य अपने पतन के अंतिम चरण में था, और पांड्य, होयसाल, और काकतिय जैसी क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने चोल प्रभुत्व को पूरी तरह समाप्त कर दिया। राजेंद्र चोल तृतीय ने चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन सैन्य और प्रशासनिक दृष्टि से उनका शासनकाल अत्यंत कमजोर रहा। नीचे उनके जीवन, शासनकाल, और योगदान को विस्तार से बताया गया है।
1. पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार
वंश: राजेंद्र चोल तृतीय, राजराज चोल तृतीय का पुत्र और कुलोत्तुंग चोल तृतीय का पौत्र था। वह चोल और पूर्वी चालुक्य वंशों के मिश्रित वंशज थे, क्योंकि उनके परदादा कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने चोल और चालुक्य वंशों का एकीकरण किया था।
उत्तराधिकार: राजेंद्र चोल तृतीय ने अपने पिता राजराज चोल तृतीय की मृत्यु (1256 ई.) के बाद चोल सिंहासन संभाला। कुछ साक्ष्य बताते हैं कि वे 1246 ई. से अपने पिता के साथ सह-शासक के रूप में कार्यरत थे। उनका शासनकाल 1246 से 1279 ई. तक रहा।
परिस्थितियाँ: राजेंद्र चोल तृतीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के अंतिम चरण में आया। इस समय तक चोल साम्राज्य एक क्षेत्रीय शक्ति बनकर रह गया था, और पांड्य, विशेष रूप से जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम और उनके उत्तराधिकारी मारवरमन कुलशेखर पांड्य प्रथम, ने चोल क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था, और चोल साम्राज्य की स्वतंत्रता लगभग नाममात्र की थी।
2. सैन्य उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ
राजेंद्र चोल तृतीय का शासनकाल सैन्य दृष्टि से अत्यंत कमजोर रहा, क्योंकि चोल साम्राज्य पांड्य और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के दबाव में था। उनकी प्रमुख सैन्य गतिविधियाँ और चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य प्रभुत्व और हार:
पांड्य शासक जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम और मारवरमन कुलशेखर पांड्य प्रथम ने चोल साम्राज्य पर निर्णायक प्रभुत्व स्थापित किया। 1250-1260 के दशक में पांड्य ने चोल राजधानी गंगैकोण्डचोलपुरम और अन्य प्रमुख क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। राजेंद्र चोल तृतीय ने पांड्य के खिलाफ प्रतिरोध करने का प्रयास किया, लेकिन वह उनकी शक्ति को नियंत्रित करने में असफल रहे। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य पांड्य के अधीन एक सहायक राज्य बन गया। 1279 ई. के आसपास पांड्य ने चोल साम्राज्य को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया, जिसके साथ चोल वंश का स्वतंत्र शासन समाप्त हो गया।
होयसाल और काकतिय हस्तक्षेप:
होयसाल शासकों ने कुछ समय के लिए चोल साम्राज्य का समर्थन किया, विशेष रूप से पांड्य के खिलाफ। होयसाल शासक नरसिंह तृतीय ने राजेंद्र चोल तृतीय को समर्थन दिया, लेकिन यह समर्थन चोल साम्राज्य की स्वतंत्रता को पुनर्जनन देने में असफल रहा। काकतिय, जो आंध्र क्षेत्र में शक्तिशाली हो रहे थे, ने भी चोल प्रभाव को कम करने की कोशिश की। राजेंद्र चोल तृतीय ने काकतिय के साथ कूटनीति के माध्यम से संबंध बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रभावी नहीं रहा।
श्रीलंका में स्थिति:
राजेंद्र चोल तृतीय के समय तक श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था। सिंहली शासकों ने स्वतंत्रता स्थापित कर ली थी, और राजेंद्र ने श्रीलंका पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया।
नौसैनिक शक्ति:
चोल साम्राज्य की नौसैनिक शक्ति उनके शासनकाल में लगभग समाप्त हो चुकी थी। समुद्री व्यापार भी न्यूनतम स्तर पर था, और चोल साम्राज्य का समुद्री प्रभाव पूरी तरह खत्म हो गया था।
3. प्रशासनिक नीतियाँ
प्रशासनिक ढांचा: राजेंद्र चोल तृतीय ने चोल प्रशासनिक ढांचे को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन पांड्य और अन्य शक्तियों के आक्रमणों ने उनके प्रशासन को कमजोर कर दिया। ग्राम सभाएँ (स्थानीय स्वशासन) अभी भी कुछ हद तक कार्यरत थीं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता बहुत कम थी।
कर और भूमि प्रबंधन: उन्होंने भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह की व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन पांड्य के कब्जे और क्षेत्रीय अस्थिरता ने आर्थिक संसाधनों को गंभीर रूप से प्रभावित किया।
न्याय व्यवस्था: राजेंद्र चोल तृतीय ने न्याय व्यवस्था को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन क्षेत्रीय अस्थिरता और बाहरी दबाव ने उनके प्रशासनिक प्रयासों को सीमित कर दिया।
4. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
राजेंद्र चोल तृतीय का शासनकाल सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से सीमित रहा, क्योंकि चोल साम्राज्य की शक्ति और संसाधन कमजोर हो चुके थे। फिर भी, उन्होंने चोल की सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखने का प्रयास किया।
चिदंबरम नटराज मंदिर:
चिदंबरम का नटराज मंदिर, जो चोल साम्राज्य का प्रमुख धार्मिक केंद्र था, राजेंद्र चोल तृतीय के शासनकाल में भी महत्वपूर्ण बना रहा। उन्होंने इस मंदिर के रखरखाव में कुछ योगदान दिया, लेकिन उनके संसाधन सीमित थे।
त्रिभुवनम का कांपहेश्वर मंदिर:
उनके दादा कुलोत्तुंग चोल तृतीय द्वारा निर्मित त्रिभुवनम का कांपहेश्वर मंदिर उनके शासनकाल में भी एक धार्मिक केंद्र बना रहा। राजेंद्र ने इस मंदिर के संरक्षण में सीमित योगदान दिया।
दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर:
उनके परदादा राजराज चोल द्वितीय द्वारा निर्मित दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर भी सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व का केंद्र बना रहा।
साहित्य और कला:
राजेंद्र चोल तृतीय के शासनकाल में तमिल साहित्य और कला की परंपराएँ जीवित रहीं, लेकिन नए साहित्यिक या स्थापत्य कार्यों का निर्माण नहीं हुआ। उनके दरबार में विद्वानों और कवियों को संरक्षण मिला, लेकिन यह सीमित था। चोल मंदिरों की मूर्तिकला और स्थापत्य कला उनके समय में भी सम्मानित थी, लेकिन कोई नया मंदिर निर्माण नहीं हुआ।
धार्मिक सहिष्णुता:
राजेंद्र चोल तृतीय ने शैव और वैष्णव परंपराओं को समर्थन दिया। उनके शासनकाल में धार्मिक सामंजस्य बना रहा, लेकिन शैव धर्म को विशेष महत्व प्राप्त था।
5. आर्थिक समृद्धि और व्यापार
समुद्री व्यापार: राजेंद्र चोल तृतीय के शासनकाल में चोल साम्राज्य का समुद्री व्यापार लगभग समाप्त हो चुका था। श्रीलंका पर नियंत्रण खोने और पांड्य के आधिपत्य ने व्यापारिक मार्गों को पूरी तरह प्रभावित किया।
बंदरगाह: नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाहों की महत्ता कम हो चुकी थी। राजेंद्र ने इन बंदरगाहों की सुरक्षा और प्रबंधन को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रभावी नहीं रहा।
आर्थिक नीतियाँ: उनकी आर्थिक नीतियाँ चोल साम्राज्य की समृद्धि को बनाए रखने के लिए थीं, लेकिन पांड्य और अन्य शक्तियों के आक्रमणों ने आर्थिक संसाधनों को नष्ट कर दिया।
6. चुनौतियाँ
पांड्य का आधिपत्य: पांड्य शासक जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम और मारवरमन कुलशेखर पांड्य प्रथम ने चोल साम्राज्य को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया। राजेंद्र चोल तृतीय पांड्य के अधीन एक सहायक शासक बन गए।
होयसाल और काकतिय का प्रभाव: होयसाल ने कुछ समय के लिए चोल साम्राज्य का समर्थन किया, लेकिन उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं। काकतिय ने भी चोल प्रभाव को कम करने की कोशिश की।
आंतरिक अस्थिरता: चोल साम्राज्य में आंतरिक अस्थिरता और सामंतों के बीच सत्ता संघर्ष ने राजेंद्र के शासन को और कमजोर किया।
7. उत्तराधिकार और मृत्यु
मृत्यु: राजेंद्र चोल तृतीय की मृत्यु 1279 ईस्वी के आसपास हुई। उनके शासनकाल के साथ चोल वंश का स्वतंत्र शासन समाप्त हो गया।
उत्तराधिकार: राजेंद्र चोल तृतीय के बाद चोल वंश का कोई स्वतंत्र शासक नहीं रहा। पांड्य ने चोल क्षेत्रों को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया, और चोल साम्राज्य का अंत हो गया। कुछ छोटे चोल सामंत पांड्य और बाद में विजयनगर साम्राज्य के अधीन बने रहे।
8. ऐतिहासिक महत्व
राजेंद्र चोल तृतीय का शासनकाल चोल वंश और साम्राज्य के अंत को चिह्नित करता है। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य एक क्षेत्रीय शक्ति बनकर रह गया था, और पांड्य ने दक्षिण भारत में प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उन्होंने चोल सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन सैन्य और प्रशासनिक दृष्टि से उनका शासन कमजोर रहा। चिदंबरम, त्रिभुवनम, और दारासुरम जैसे मंदिर उनके शासनकाल में सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र बने रहे, लेकिन कोई नया सांस्कृतिक योगदान नहीं हुआ।
9. उपाधियाँ और स्मृति
राजेंद्र चोल तृतीय ने कुछ उपाधियाँ धारण कीं, जैसे परकेशरी और शिवपदशेखर (शिव के चरणों का भक्त), लेकिन उनकी सैन्य और प्रशासनिक उपलब्धियाँ सीमित थीं। उनके शासनकाल के कुछ शिलालेख तमिलनाडु में पाए गए हैं, जो उनकी धार्मिक भक्ति और सीमित प्रशासनिक प्रयासों का विवरण देते हैं।
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