Rajaraja Chola III 1216-1256 AD
jp Singh
2025-05-22 21:26:33
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राजराज चोल तृतीय (1216-1256 ई.)
राजराज चोल तृतीय (1216-1256 ई.)
राजराज चोल तृतीय (1216-1256 ई.)
राजराज चोल तृतीय (1216-1256 ई.) चोल वंश के अंतिम शासकों में से एक थे, जो कुलोत्तुंग चोल तृतीय के उत्तराधिकारी थे। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य अपने पतन के चरम पर था, क्योंकि पांड्य, होयसाल, और काकतिय जैसी क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने चोल प्रभुत्व को गंभीर रूप से चुनौती दी। राजराज चोल तृतीय ने चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन सैन्य और प्रशासनिक दृष्टि से उनका शासनकाल कमजोर रहा। नीचे उनके जीवन, शासनकाल, और योगदान को विस्तार से बताया गया है।
1. पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार
वंश: राजराज चोल तृतीय, कुलोत्तुंग चोल तृतीय का पुत्र और राजाधिराज चोल द्वितीय का पौत्र था। वह चोल और पूर्वी चालुक्य वंशों के मिश्रित वंशज थे, क्योंकि उनके परदादा कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने चोल और चालुक्य वंशों का एकीकरण किया था।
उत्तराधिकार: राजराज चोल तृतीय ने अपने पिता कुलोत्तुंग चोल तृतीय की मृत्यु (1218 ई.) के बाद चोल सिंहासन संभाला। कुछ साक्ष्य बताते हैं कि वे 1216 ई. से अपने पिता के साथ सह-शासक के रूप में कार्यरत थे। उनका शासनकाल 1216 से 1256 ई. तक रहा।
परिस्थितियाँ: राजराज चोल तृतीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के पतन के अंतिम चरण में आया। श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था, और पांड्य, होयसाल, और काकतिय जैसी क्षेत्रीय शक्तियों ने चोल साम्राज्य की शक्ति को कमजोर कर दिया था। उनका शासनकाल क्षेत्रीय शक्तियों के साथ संघर्ष और आंतरिक अस्थिरता से चिह्नित रहा।
2. सैन्य उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ
राजराज चोल तृतीय का शासनकाल सैन्य दृष्टि से कमजोर रहा, क्योंकि चोल साम्राज्य क्षेत्रीय शक्तियों के दबाव में था। उनकी प्रमुख सैन्य गतिविधियाँ और चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य युद्ध और हार:
पांड्य शासक, विशेष रूप से जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम, ने चोल साम्राज्य के लिए गंभीर चुनौती पेश की। 1230 के दशक में पांड्य ने चोल क्षेत्रों पर आक्रमण किया और कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। राजराज चोल तृतीय ने पांड्य के खिलाफ युद्ध लड़े, लेकिन वह उनकी शक्ति को नियंत्रित करने में असफल रहे। पांड्य ने चोल राजधानी गंगैकोण्डचोलपुरम पर भी कब्जा कर लिया, जिसने चोल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया। कुछ समय के लिए राजराज चोल तृतीय को पांड्य के अधीन रहना पड़ा, और उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य एक सहायक राज्य की स्थिति में आ गया।
होयसाल हस्तक्षेप:
होयसाल शासक नरसिंह द्वितीय ने चोल-पांड्य संघर्ष में हस्तक्षेप किया और राजराज चोल तृतीय को पांड्य के खिलाफ समर्थन दिया। होयसाल की सहायता से राजराज ने कुछ समय के लिए चोल क्षेत्रों को पुनः प्राप्त किया, लेकिन यह अस्थायी था। होयसाल का समर्थन चोल साम्राज्य की स्वतंत्रता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण था, लेकिन यह चोल की कमजोरी को भी दर्शाता था।
काकतिय और अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ:
काकतिय, जो आंध्र क्षेत्र में शक्तिशाली हो रहे थे, ने भी चोल प्रभाव को कम करने की कोशिश की। राजराज चोल तृतीय ने काकतिय के साथ कूटनीति और सैन्य शक्ति के माध्यम से संबंध बनाए रखने का प्रयास किया। अन्य छोटी क्षेत्रीय शक्तियों ने भी चोल साम्राज्य के लिए चुनौतियाँ पेश कीं।
श्रीलंका में स्थिति:
राजराज चोल तृतीय के समय तक श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था। सिंहली शासकों ने स्वतंत्रता स्थापित कर ली थी, और राजराज ने श्रीलंका पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया।
नौसैनिक शक्ति:
चोल साम्राज्य की नौसैनिक शक्ति उनके शासनकाल में लगभग समाप्त हो चुकी थी। समुद्री व्यापार अभी भी कुछ हद तक जारी था, लेकिन यह अपने चरम से बहुत नीचे था।
3. प्रशासनिक नीतियाँ
प्रशासनिक ढांचा: राजराज चोल तृतीय ने चोल प्रशासनिक ढांचे को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन क्षेत्रीय शक्तियों के दबाव और आंतरिक अस्थिरता ने उनके प्रशासन को कमजोर कर दिया। ग्राम सभाएँ (स्थानीय स्वशासन) अभी भी कार्यरत थीं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता कम हो रही थी।
कर और भूमि प्रबंधन: उन्होंने भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह की व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन पांड्य और अन्य शक्तियों के आक्रमणों ने आर्थिक संसाधनों को प्रभावित किया। उनके शिलालेखों में भूमि अनुदान के कुछ उदाहरण मिलते हैं।
न्याय व्यवस्था: राजराज चोल तृतीय ने न्याय व्यवस्था को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन क्षेत्रीय अस्थिरता ने उनके प्रशासनिक प्रयासों को सीमित कर दिया।
4. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
राजराज चोल तृतीय का शासनकाल सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से अभी भी महत्वपूर्ण था, हालांकि उनके पूर्वजों की तुलना में उनके योगदान सीमित थे।
चिदंबरम नटराज मंदिर:
चिदंबरम का नटराज मंदिर, जो उनके पूर्वज कुलोत्तुंग चोल द्वितीय ने प्रमुख धार्मिक केंद्र बनाया था, राजराज चोल तृतीय के शासनकाल में भी धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बना रहा। उन्होंने इस मंदिर के रखरखाव में योगदान दिया।
त्रिभुवनम का कांपहेश्वर मंदिर:
उनके पिता कुलोत्तुंग चोल तृतीय द्वारा निर्मित त्रिभुवनम का कांपहेश्वर मंदिर उनके शासनकाल में भी एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र रहा। राजराज ने इस मंदिर के संरक्षण में योगदान दिया।
दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर:
उनके दादा राजराज चोल द्वितीय द्वारा निर्मित दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर उनके शासनकाल में भी सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व का केंद्र बना रहा।
साहित्य और कला:
राजराज चोल तृतीय के शासनकाल में तमिल साहित्य और कला की परंपराएँ जीवित रहीं, लेकिन नए साहित्यिक या स्थापत्य कार्यों का निर्माण सीमित था। उनके दरबार में विद्वानों और कवियों को संरक्षण मिला। चोल मंदिरों की मूर्तिकला और स्थापत्य कला उनके समय में भी सम्मानित थी, हालांकि नए मंदिरों का निर्माण नहीं हुआ।
धार्मिक सहिष्णुता:
राजराज चोल तृतीय ने शैव और वैष्णव परंपराओं को समर्थन दिया। उनके शासनकाल में धार्मिक सामंजस्य बना रहा, लेकिन शैव धर्म को विशेष महत्व प्राप्त था।
5. आर्थिक समृद्धि और व्यापार
समुद्री व्यापार: राजराज चोल तृतीय के शासनकाल में चोल साम्राज्य का समुद्री व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, और मध्य पूर्व के साथ बना रहा, लेकिन यह अपने चरम से बहुत नीचे था। श्रीलंका पर नियंत्रण खोने और क्षेत्रीय अस्थिरता ने व्यापारिक मार्गों को प्रभावित किया।
बंदरगाह: नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाह व्यापार के केंद्र बने रहे, लेकिन उनकी महत्ता कम हो रही थी। राजराज ने इन बंदरगाहों की सुरक्षा और प्रबंधन को बनाए रखने का प्रयास किया।
आर्थिक नीतियाँ: उनकी आर्थिक नीतियाँ चोल साम्राज्य की समृद्धि को बनाए रखने के लिए थीं, लेकिन पांड्य और होयसाल के आक्रमणों ने आर्थिक संसाधनों पर दबाव डाला।
6. चुनौतियाँ
पांड्य का उदय: पांड्य शासक जटावरमन सुंदर पांड्य प्रथम ने चोल साम्राज्य को गंभीर रूप से कमजोर किया। उनके आक्रमणों ने चोल क्षेत्रों को छीन लिया और चोल राजधानी पर कब्जा कर लिया।
होयसाल और काकतिय का प्रभाव: होयसाल ने कुछ समय के लिए चोल साम्राज्य का समर्थन किया, लेकिन उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं। काकतिय ने भी चोल प्रभाव को कम करने की कोशिश की।
आंतरिक अस्थिरता: चोल साम्राज्य में आंतरिक अस्थिरता और सामंतों के बीच सत्ता संघर्ष ने राजराज के शासन को कमजोर किया।
7. उत्तराधिकार और मृत्यु
मृत्यु: राजराज चोल तृतीय की मृत्यु 1256 ईस्वी में हुई। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य का पतन तेज हो गया।
उत्तराधिकारी: उनके बाद राजेंद्र चोल तृतीय (1246-1279 ई.) ने सिंहासन संभाला। राजेंद्र चोल तृतीय चोल वंश के अंतिम शासक थे, जिनके शासनकाल में चोल साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया।
8. ऐतिहासिक महत्व
राजराज चोल तृतीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के पतन का अंतिम चरण था। उन्होंने चोल सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन सैन्य और प्रशासनिक दृष्टि से उनका शासन कमजोर रहा। पांड्य और होयसाल जैसे क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने चोल प्रभुत्व को समाप्त कर दिया, और राजराज चोल तृतीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के अंत की शुरुआत को चिह्नित करता है। उनके शासनकाल में चिदंबरम, त्रिभुवनम, और दारासुरम जैसे मंदिर सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र बने रहे।
9. उपाधियाँ और स्मृति
राजराज चोल तृतीय ने कई उपाधियाँ धारण कीं, जैसे परकेशरी और शिवपदशेखर (शिव के चरणों का भक्त)। ये उपाधियाँ उनकी धार्मिक भक्ति को दर्शाती हैं। उनके शासनकाल के शिलालेख तमिलनाडु और दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में पाए गए हैं, जो उनकी प्रशासनिक नीतियों और धार्मिक योगदानों का विवरण देते हैं।
Conclusion
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