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Kulottunga Chola III 1178-1218 AD
jp Singh 2025-05-22 21:19:22
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कुलोत्तुंग चोल तृतीय (1178-1218 ई.)

कुलोत्तुंग चोल तृतीय (1178-1218 ई.)
कुलोत्तुंग चोल तृतीय (1178-1218 ई.)
कुलोत्तुंग चोल तृतीय (1178-1218 ई.) चोल वंश के अंतिम महान शासकों में से एक थे, जो राजाधिराज चोल द्वितीय के उत्तराधिकारी थे। उनके शासनकाल ने चोल साम्राज्य को पुनर्जनन प्रदान किया और सांस्कृतिक, धार्मिक, और सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान दिया। विशेष रूप से, उन्होंने त्रिभुवनम में कांपहेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया, जो चोल स्थापत्य कला का एक और उत्कृष्ट उदाहरण है। यद्यपि उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य क्षेत्रीय शक्तियों जैसे पांड्य और होयसाल की चुनौतियों का सामना कर रहा था, कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने चोल प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए। नीचे उनके जीवन, शासनकाल, और योगदान को विस्तार से बताया गया है।
1. पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार
वंश: कुलोत्तुंग चोल तृतीय, राजाधिराज चोल द्वितीय का उत्तराधिकारी था और राजराज चोल द्वितीय का पौत्र था। वह चोल और पूर्वी चालुक्य वंशों के मिश्रित वंशज थे, क्योंकि उनके पूर्वज कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने चोल और चालुक्य वंशों का एकीकरण किया था।
उत्तराधिकार: कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने राजाधिराज चोल द्वितीय की मृत्यु (1178 ई.) के बाद चोल सिंहासन संभाला। उनका शासनकाल 1178 से 1218 ई. तक रहा, जो चोल वंश के सबसे लंबे शासनकालों में से एक था।
परिस्थितियाँ: कुलोत्तुंग चोल तृतीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के पतन के प्रारंभिक चरण में आया। श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था, और पांड्य, होयसाल, और काकतिय जैसी क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा था। कुलोत्तुंग ने इन चुनौतियों का सामना करते हुए चोल साम्राज्य की शक्ति को पुनर्जनन देने का प्रयास किया।
2. सैन्य उपलब्धियाँ
कुलोत्तुंग चोल तृतीय का शासनकाल सैन्य अभियानों के लिए प्रसिद्ध है, क्योंकि उन्होंने चोल साम्राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। उनकी प्रमुख सैन्य उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य युद्ध और विजय:
कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने पांड्य क्षेत्र में विद्रोहों को दबाने के लिए कई अभियान चलाए। पांड्य शासकों ने चोल प्रभुत्व को चुनौती दी थी, लेकिन कुलोत्तुंग ने 1182 ई. के आसपास पांड्य राजधानी मदुरै पर कब्जा कर लिया। उन्होंने पांड्य शासक वीर पांड्य को पराजित किया और चोल साम्राज्य की दक्षिणी सीमाओं को सुरक्षित किया। इस विजय ने चोल प्रभुत्व को अस्थायी रूप से पुनर्जनन प्रदान किया। उनके शिलालेखों में पांड्य क्षेत्र में उनकी विजयों को
श्रीलंका अभियान:
यद्यपि श्रीलंका पर चोल नियंत्रण उनके शासनकाल से पहले ही समाप्त हो चुका था, कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने श्रीलंका में प्रभाव को पुनर्जनन करने का प्रयास किया। उनके अभियानों ने सिंहली शासकों को कुछ हद तक नियंत्रित किया, लेकिन श्रीलंका पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित नहीं हो सका।
होयसाल और काकतिय युद्ध:
होयसाल, जो दक्षिण भारत में एक उभरती हुई शक्ति थे, ने चोल साम्राज्य के लिए चुनौती पेश की। कुलोत्तुंग ने होयसाल शासक विष्णुवर्धन और उनके उत्तराधिकारियों के खिलाफ युद्ध लड़े। काकतिय, जो आंध्र क्षेत्र में शक्तिशाली हो रहे थे, ने भी चोल प्रभाव को कम करने की कोशिश की। कुलोत्तुंग ने इन शक्तियों के साथ कूटनीति और सैन्य शक्ति का उपयोग किया।
चालुक्य संबंध:
पश्चिमी चालुक्यों के साथ संबंध उनके शासनकाल में अपेक्षाकृत स्थिर रहे, लेकिन वेंगी (पूर्वी चालुक्य क्षेत्र) पर चोल प्रभाव कमजोर हो रहा था। कुलोत्तुंग ने वेंगी पर कुछ हद तक नियंत्रण बनाए रखा।
नौसैनिक शक्ति:
चोल साम्राज्य की नौसैनिक शक्ति कुलोत्तुंग चोल तृतीय के समय तक काफी कमजोर हो चुकी थी। फिर भी, समुद्री व्यापार अभी भी महत्वपूर्ण था, और कुलोत्तुंग ने इसे बनाए रखने का प्रयास किया।
3. प्रशासनिक नीतियाँ
प्रशासनिक ढांचा: कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने चोल प्रशासनिक ढांचे को पुनर्जनन देने का प्रयास किया। उन्होंने केंद्रीकृत शासन और स्थानीय स्वशासन (ग्राम सभाओं) के संतुलन को बनाए रखा। उनके शिलालेखों में प्रशासनिक सुधारों का उल्लेख मिलता है।
कर और भूमि प्रबंधन: उन्होंने भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह की व्यवस्था को और सुधारा। उनके शासनकाल में भूमि अनुदान और कर छूट के कई उदाहरण दर्ज हैं, जो उनकी प्रशासनिक नीतियों को दर्शाते हैं।
न्याय व्यवस्था: कुलोत्तुंग ने न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाए रखा। उनके शासनकाल में सामाजिक और धार्मिक विवादों को सुलझाने के लिए कई उपाय किए गए।
4. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
कुलोत्तुंग चोल तृतीय का शासनकाल सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उनकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि त्रिभुवनम में कांपहेश्वर मंदिर का निर्माण था।
त्रिभुवनम का कांपहेश्वर मंदिर:
कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने त्रिभुवनम (कुंभकोणम के पास, तमिलनाडु) में कांपहेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर चोल स्थापत्य कला का एक और उत्कृष्ट उदाहरण है और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। मंदिर की मूर्तिकला, गोपुरम, और वास्तुशिल्प में उत्कृष्ट नक्काशी और विवरण देखे जा सकते हैं। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और चोल कला की पराकाष्ठा को दर्शाता है। कांपहेश्वर मंदिर, तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर, गंगैकोण्डचोलपुरम के मंदिर, और दारासुरम के ऐरावतेश्वर मंदिर के साथ, चोल स्थापत्य की त्रयी का हिस्सा है।
चिदंबरम नटराज मंदिर:
उनके पूर्वज कुलोत्तुंग चोल द्वितीय ने चिदंबरम के नटराज मंदिर को चोल साम्राज्य का प्रमुख धार्मिक केंद्र बनाया था। कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने इस मंदिर के रखरखाव और संरक्षण में योगदान दिया। चिदंबरम मंदिर उनके शासनकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बना रहा।
साहित्य और कला:
कुलोत्तुंग चोल तृतीय के शासनकाल में तमिल साहित्य और कला को प्रोत्साहन मिला। उनके दरबार में विद्वानों और कवियों को संरक्षण प्रदान किया गया। उनके समय में तमिल साहित्य की परंपराएँ, जैसे कंब रामायणम, जीवित रहीं और समृद्ध हुईं। चोल मंदिरों की मूर्तिकला और स्थापत्य कला उनके शासनकाल में और विकसित हुई।
धार्मिक सहिष्णुता:
कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने शैव और वैष्णव परंपराओं को समर्थन दिया। उनके शासनकाल में धार्मिक सामंजस्य बना रहा, लेकिन शैव धर्म को विशेष महत्व प्राप्त था।
5. आर्थिक समृद्धि और व्यापार
समुद्री व्यापार: कुलोत्तुंग चोल तृतीय के शासनकाल में चोल साम्राज्य का समुद्री व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, और मध्य पूर्व के साथ बना रहा, लेकिन यह अपने चरम से काफी कमजोर था। श्रीलंका पर नियंत्रण खोने से व्यापारिक मार्ग प्रभावित हुए।
बंदरगाह: नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाह व्यापार के केंद्र बने रहे। कुलोत्तुंग ने इन बंदरगाहों की सुरक्षा और प्रबंधन को बनाए रखने का प्रयास किया।
आर्थिक नीतियाँ: उनकी आर्थिक नीतियों ने चोल साम्राज्य की समृद्धि को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन क्षेत्रीय अस्थिरता और बढ़ते विद्रोहों ने आर्थिक संसाधनों पर दबाव डाला।
6. चुनौतियाँ
पांड्य और होयसाल का उदय: पांड्य और होयसाल जैसे क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। कुलोत्तुंग ने इन शक्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया, लेकिन उनके शासनकाल के अंत में पांड्य शक्ति फिर से उभरने लगी।
काकतिय और अन्य क्षेत्रीय शक्तियाँ: काकतिय और अन्य उभरती शक्तियों ने चोल प्रभाव को कम करने की कोशिश की। कुलोत्तुंग ने इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कूटनीति और सैन्य शक्ति का उपयोग किया।
आंतरिक अस्थिरता: उनके शासनकाल के अंत में चोल साम्राज्य में आंतरिक अस्थिरता बढ़ने लगी, जो बाद के शासकों के समय में और गंभीर हो गई।
7. उत्तराधिकार और मृत्यु
मृत्यु: कुलोत्तुंग चोल तृतीय की मृत्यु 1218 ईस्वी में हुई। उनके लंबे शासनकाल ने चोल साम्राज्य को सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से समृद्ध किया, लेकिन क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने साम्राज्य को कमजोर कर दिया।
उत्तराधिकारी: उनके बाद राजराज चोल तृतीय (1216-1256 ई.) ने सिंहासन संभाला। राजराज चोल तृतीय चोल वंश के अंतिम शासकों में से एक थे, जिनके शासनकाल में चोल साम्राज्य का पतन तेज हो गया।
8. ऐतिहासिक महत्व
कुलोत्तुंग चोल तृतीय का शासनकाल चोल वंश के अंतिम महान शासकों में से एक था। उन्होंने चोल साम्राज्य को पुनर्जनन देने का प्रयास किया और सांस्कृतिक, धार्मिक, और सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान दिया। त्रिभुवनम का कांपहेश्वर मंदिर उनकी सबसे महत्वपूर्ण विरासत है, जो चोल स्थापत्य और मूर्तिकला की उत्कृष्टता को दर्शाता है। उनकी सैन्य विजयों, विशेष रूप से पांड्य क्षेत्र में, ने चोल साम्राज्य की शक्ति को अस्थायी रूप से पुनर्जनन प्रदान किया, लेकिन क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने चोल प्रभुत्व को कमजोर कर दिया।
9. उपाधियाँ और स्मृति
कुलोत्तुंग चोल तृतीय ने कई उपाधियाँ धारण कीं, जैसे मदुरै कोण्ड (मदुरै विजेता), शंगम तविर्त्त कोन (शत्रुओं का नाश करने वाला), और परकेशरी। ये उपाधियाँ उनकी सैन्य और धार्मिक उपलब्धियों को दर्शाती हैं। उनके शासनकाल के कई शिलालेख तमिलनाडु और दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में पाए गए हैं, जो उनकी विजयों, प्रशासनिक नीतियों, और धार्मिक योगदानों का विवरण देते हैं।
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