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Rajadhiraja Chola II 1166-1178 AD
jp Singh 2025-05-22 21:13:06
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राजाधिराज चोल द्वितीय (1166-1178 ई.)

राजाधिराज चोल द्वितीय (1166-1178 ई.)
राजाधिराज चोल द्वितीय (1166-1178 ई.)
राजाधिराज चोल द्वितीय (1166-1178 ई.) चोल वंश का एक शासक था, जो राजराज चोल द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य अपने स्वर्ण युग के अंतिम चरण में था, और क्षेत्रीय शक्तियों जैसे पांड्य और होयसाल के बढ़ते प्रभाव ने चोल प्रभुत्व को चुनौती दी। राजाधिराज चोल द्वितीय ने सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने के साथ-साथ चोल साम्राज्य की स्थिरता को संरक्षित करने का प्रयास किया। नीचे उनके जीवन, शासनकाल और योगदान को विस्तार से बताया गया है।
1. पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार
वंश: राजाधिराज चोल द्वितीय, राजराज चोल द्वितीय का पुत्र और कुलोत्तुंग चोल द्वितीय का पौत्र था। वह चोल और पूर्वी चालुक्य वंशों के मिश्रित वंशज थे, क्योंकि उनके परदादा कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने चोल और चालुक्य वंशों का एकीकरण किया था।
उत्तराधिकार: राजाधिराज चोल द्वितीय ने अपने पिता राजराज चोल द्वितीय की मृत्यु (1173 ई.) के बाद चोल सिंहासन संभाला। कुछ साक्ष्य बताते हैं कि वे 1166 ई. से अपने पिता के साथ सह-शासक के रूप में कार्यरत थे। उनका शासनकाल 1166 से 1178 ई. तक रहा।
परिस्थितियाँ: राजाधिराज चोल द्वितीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के पतन के प्रारंभिक चरण में आया। श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था, और पांड्य, होयसाल, और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों का उदय चोल साम्राज्य के लिए चुनौतीपूर्ण था। उनका ध्यान साम्राज्य की स्थिरता और सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखने पर केंद्रित रहा।
2. सैन्य उपलब्धियाँ
राजाधिराज चोल द्वितीय का शासनकाल सैन्य अभियानों की तुलना में सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्थिरता के लिए अधिक जाना जाता है। फिर भी, उन्होंने चोल साम्राज्य की क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने के लिए कुछ सैन्य प्रयास किए। उनकी प्रमुख सैन्य गतिविधियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य क्षेत्र में अभियान:
राजाधिराज चोल द्वितीय ने पांड्य क्षेत्र में विद्रोहों को दबाने के लिए कई अभियान चलाए। पांड्य शासकों ने चोल प्रभुत्व को चुनौती दी, और राजाधिराज ने उनकी शक्ति को नियंत्रित करने का प्रयास किया। उनके शासनकाल में पांड्य क्षेत्र पर चोल नियंत्रण कमजोर होने लगा, क्योंकि पांड्य शासक स्वतंत्रता की दिशा में अग्रसर हो रहे थे।
श्रीलंका में स्थिति:
राजाधिराज चोल द्वितीय के समय तक श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था। सिंहली शासकों ने स्वतंत्रता स्थापित कर ली थी, और राजाधिराज ने श्रीलंका पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया।
होयसाल और चालुक्य संबंध:
होयसाल, जो दक्षिण भारत में एक उभरती हुई शक्ति थे, ने चोल साम्राज्य के लिए गंभीर चुनौती पेश की। राजाधिराज चोल द्वितीय ने होयसाल प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए कूटनीति और सैन्य शक्ति का उपयोग किया। पश्चिमी चालुक्यों के साथ संबंध उनके शासनकाल में अपेक्षाकृत स्थिर रहे, लेकिन वेंगी (पूर्वी चालुक्य क्षेत्र) पर चोल प्रभाव कमजोर होने लगा।
नौसैनिक शक्ति:
चोल साम्राज्य की नौसैनिक शक्ति राजाधिराज चोल द्वितीय के शासनकाल में काफी कमजोर हो चुकी थी। समुद्री व्यापार अभी भी जारी था, लेकिन यह अपने चरम से बहुत नीचे था।
3. प्रशासनिक नीतियाँ
प्रशासनिक ढांचा: राजाधिराज चोल द्वितीय ने अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचे को बनाए रखने का प्रयास किया। चोल साम्राज्य में केंद्रीकृत शासन और स्थानीय स्वशासन (ग्राम सभाओं) का संतुलन था। हालांकि, बढ़ती क्षेत्रीय चुनौतियों के कारण प्रशासनिक प्रभावशीलता कम हो रही थी।
कर और भूमि प्रबंधन: उन्होंने भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह की व्यवस्था को बनाए रखा। उनके शिलालेखों में भूमि अनुदान और कर छूट के कुछ उदाहरण मिलते हैं, जो उनकी प्रशासनिक नीतियों को दर्शाते हैं।
न्याय व्यवस्था: राजाधिराज चोल द्वितीय ने न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन क्षेत्रीय अस्थिरता ने उनके प्रशासन को प्रभावित किया।
4. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
राजाधिराज चोल द्वितीय का शासनकाल सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा, हालांकि उनके पिता राजराज चोल द्वितीय की तरह बड़े पैमाने पर मंदिर निर्माण उनके नाम से नहीं जुड़ा।
चिदंबरम नटराज मंदिर:
उनके दादा कुलोत्तुंग चोल द्वितीय ने चिदंबरम के नटराज मंदिर को चोल साम्राज्य का प्रमुख धार्मिक केंद्र बनाया था। राजाधिराज चोल द्वितीय ने इस मंदिर के रखरखाव और संरक्षण में योगदान दिया। चिदंबरम मंदिर उनके शासनकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बना रहा।
दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर:
उनके पिता राजराज चोल द्वितीय द्वारा निर्मित दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर उनके शासनकाल में भी सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व का केंद्र बना रहा। राजाधिराज ने इस मंदिर के रखरखाव में योगदान दिया।
साहित्य और कला:
राजाधिराज चोल द्वितीय के शासनकाल में तमिल साहित्य और कला को प्रोत्साहन मिला। उनके दरबार में विद्वानों और कवियों को संरक्षण प्रदान किया गया। चोल मंदिरों की मूर्तिकला और स्थापत्य कला उनके समय में भी जीवित रही, हालांकि नए बड़े मंदिरों का निर्माण सीमित था।
धार्मिक सहिष्णुता:
राजाधिराज चोल द्वितीय ने शैव और वैष्णव परंपराओं को समर्थन दिया। उनके शासनकाल में धार्मिक सामंजस्य बना रहा, लेकिन शैव धर्म को विशेष महत्व प्राप्त था।
5. आर्थिक समृद्धि और व्यापार
समुद्री व्यापार: राजाधिराज चोल द्वितीय के शासनकाल में चोल साम्राज्य का समुद्री व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, और मध्य पूर्व के साथ बना रहा, लेकिन यह अपने चरम से काफी कमजोर था। श्रीलंका पर नियंत्रण खोने से व्यापारिक मार्ग प्रभावित हुए।
बंदरगाह: नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाह व्यापार के केंद्र बने रहे, लेकिन उनकी महत्ता कम हो रही थी। राजाधिराज ने इन बंदरगाहों की सुरक्षा और प्रबंधन को बनाए रखने का प्रयास किया।
आर्थिक नीतियाँ: उनकी आर्थिक नीतियों ने चोल साम्राज्य की समृद्धि को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन क्षेत्रीय अस्थिरता और बढ़ते विद्रोहों ने आर्थिक संसाधनों पर दबाव डाला।
6. चुनौतियाँ
पांड्य और होयसाल का उदय: पांड्य और होयसाल जैसे क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था, जिसने चोल प्रभुत्व को गंभीर चुनौती दी। राजाधिराज ने इन विद्रोहों को दबाने का प्रयास किया, लेकिन पूर्ण सफलता नहीं मिली।
श्रीलंका में हानि: श्रीलंका पर चोल नियंत्रण की समाप्ति ने चोल साम्राज्य के समुद्री प्रभाव को कम किया।
आंतरिक अस्थिरता: उनके शासनकाल के अंत में चोल साम्राज्य में आंतरिक अस्थिरता बढ़ने लगी, जो बाद के शासकों के समय में और गंभीर हो गई।
7. उत्तराधिकार और मृत्यु
मृत्यु: राजाधिराज चोल द्वितीय की मृत्यु 1178 ईस्वी में हुई। उनके शासनकाल ने चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखा, लेकिन साम्राज्य की शक्ति कमजोर होने लगी थी।
उत्तराधिकारी: उनके बाद कुलोत्तुंग चोल तृतीय (1178-1218 ई.) ने सिंहासन संभाला। कुलोत्तुंग चोल तृतीय चोल वंश के अंतिम महान शासकों में से एक थे, जिन्होंने चोल साम्राज्य को पुनर्जनन देने का प्रयास किया।
8. ऐतिहासिक महत्व
राजाधिराज चोल द्वितीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के पतन के प्रारंभिक चरण का हिस्सा था। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से अपनी पहचान बनाए रखी, लेकिन सैन्य और क्षेत्रीय शक्ति में कमी आई। उनकी प्रशासनिक नीतियों ने चोल साम्राज्य को स्थिर बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन पांड्य और होयसाल जैसे क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने चोल प्रभुत्व को कमजोर किया। चिदंबरम और दारासुरम जैसे मंदिर उनके शासनकाल में सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र बने रहे।
9. उपाधियाँ और स्मृति
राजाधिराज चोल द्वितीय ने कई उपाधियाँ धारण कीं, जैसे परकेशरी और शिवपदशेखर (शिव के चरणों का भक्त)। ये उपाधियाँ उनकी धार्मिक और प्रशासनिक उपलब्धियों को दर्शाती हैं। उनके शासनकाल के शिलालेख तमिलनाडु और दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में पाए गए हैं, जो उनकी प्रशासनिक नीतियों और धार्मिक योगदानों का विवरण देते हैं।
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