Rajaraja Chola II 1146-1173 AD
jp Singh
2025-05-22 21:06:36
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राजराज चोल द्वितीय (1146-1173 ई.)
राजराज चोल द्वितीय (1146-1173 ई.)
राजराज चोल द्वितीय (1146-1173 ई.)
राजराज चोल द्वितीय (1146-1173 ई.) चोल वंश का एक महत्वपूर्ण शासक था, जो कुलोत्तुंग चोल द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने सांस्कृतिक और स्थापत्य क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया, विशेष रूप से दारासुरम में ऐरावतेश्वर मंदिर के निर्माण के लिए। यद्यपि उनका शासनकाल सैन्य विस्तार की तुलना में सांस्कृतिक और धार्मिक उपलब्धियों के लिए अधिक प्रसिद्ध रहा, उन्होंने चोल साम्राज्य की स्थिरता को बनाए रखने का प्रयास किया। नीचे उनके जीवन, शासनकाल और योगदान को विस्तार से बताया गया है।
1. पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार
वंश: राजराज चोल द्वितीय, कुलोत्तुंग चोल द्वितीय का पुत्र और विक्रम चोल का पौत्र था। वह चोल और पूर्वी चालुक्य वंशों के मिश्रित वंशज थे, क्योंकि उनके परदादा कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने चोल और चालुक्य वंशों का एकीकरण किया था।
उत्तराधिकार: राजराज चोल द्वितीय ने अपने पिता कुलोत्तुंग चोल द्वितीय की मृत्यु (1150 ई.) के बाद चोल सिंहासन संभाला। कुछ साक्ष्य बताते हैं कि वे 1146 ई. से अपने पिता के साथ सह-शासक के रूप में कार्यरत थे। उनका शासनकाल 1146 से 1173 ई. तक रहा।
परिस्थितियाँ: राजराज चोल द्वितीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के स्वर्ण युग के अंतिम चरण में आया। इस समय तक श्रीलंका में चोल प्रभुत्व पूरी तरह समाप्त हो चुका था, और पांड्य, होयसाल, और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा था। उनका ध्यान साम्राज्य की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को बनाए रखने पर रहा।
2. सैन्य उपलब्धियाँ
राजराज चोल द्वितीय का शासनकाल सैन्य विस्तार की तुलना में सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदानों के लिए अधिक जाना जाता है। फिर भी, उन्होंने चोल साम्राज्य की क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने के लिए कुछ सैन्य अभियान चलाए। उनकी प्रमुख सैन्य गतिविधियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य क्षेत्र में अभियान:
राजराज चोल द्वितीय ने पांड्य क्षेत्र में विद्रोहों को दबाने के लिए कई अभियान चलाए। पांड्य शासकों ने चोल प्रभुत्व को चुनौती देने की कोशिश की, लेकिन राजराज ने उनकी शक्ति को नियंत्रित कर चोल प्रभुत्व को बनाए रखा। उनके शासनकाल में पांड्य क्षेत्र चोल साम्राज्य के अधीन रहा, जिसने दक्षिणी सीमाओं को सुरक्षित किया।
श्रीलंका में स्थिति:
उनके शासनकाल में श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था। सिंहली शासकों ने स्वतंत्रता हासिल कर ली थी, और राजराज चोल द्वितीय ने श्रीलंका पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने का कोई बड़ा प्रयास नहीं किया।
चालुक्य और होयसाल संबंध:
पश्चिमी चालुक्यों के साथ संबंध उनके शासनकाल में अपेक्षाकृत स्थिर रहे, क्योंकि उनके दादा और परदादा ने चालुक्य-चोल संबंधों को संतुलित किया था। होयसाल, जो दक्षिण भारत में एक उभरती हुई शक्ति थे, ने चोल साम्राज्य के लिए चुनौती पेश की। राजराज चोल द्वितीय ने कूटनीति और सैन्य शक्ति के माध्यम से होयसाल प्रभाव को नियंत्रित करने का प्रयास किया।
नौसैनिक शक्ति:
चोल साम्राज्य की नौसैनिक शक्ति उनके शासनकाल में कमजोर हो चुकी थी। यद्यपि समुद्री व्यापार अभी भी महत्वपूर्ण था, नौसैनिक अभियानों का दायरा उनके पूर्ववर्तियों की तुलना में सीमित था।
3. प्रशासनिक नीतियाँ
प्रशासनिक ढांचा: राजराज चोल द्वितीय ने अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचे को बनाए रखा। चोल साम्राज्य में केंद्रीकृत शासन और स्थानीय स्वशासन (ग्राम सभाओं) का संतुलन था। उन्होंने ग्राम सभाओं को स्वायत्तता प्रदान की, जिससे स्थानीय स्तर पर प्रशासन प्रभावी रहा।
कर और भूमि प्रबंधन: उन्होंने भूमि सर्वेक्षण और कर संग्रह की व्यवस्था को बनाए रखा। उनके शिलालेखों में भूमि अनुदान और कर छूट के कई उदाहरण मिलते हैं, जो उनकी प्रशासनिक नीतियों को दर्शाते हैं।
न्याय व्यवस्था: राजराज चोल द्वितीय ने न्याय व्यवस्था को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाए रखा। उनके शासनकाल में सामाजिक और धार्मिक विवादों को सुलझाने के लिए कई उपाय किए गए।
4. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
राजराज चोल द्वितीय का शासनकाल सांस्कृतिक और स्थापत्य दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उनकी सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि दारासुरम में ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण था।
दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर:
राजराज चोल द्वितीय ने दारासुरम (कुंभकोणम के पास, तमिलनाडु) में ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर चोल स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। मंदिर की मूर्तिकला, गोपुरम, और वास्तुशिल्प में उत्कृष्ट नक्काशी और विवरण देखे जा सकते हैं। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और चोल कला की पराकाष्ठा को दर्शाता है। ऐरावतेश्वर मंदिर, तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर और गंगैकोण्डचोलपुरम के मंदिर के साथ, चोल स्थापत्य की त्रयी का हिस्सा है।
चिदंबरम नटराज मंदिर:
उनके पिता कुलोत्तुंग चोल द्वितीय ने चिदंबरम के नटराज मंदिर को चोल साम्राज्य का प्रमुख धार्मिक केंद्र बनाया था। राजराज चोल द्वितीय ने इस मंदिर के रखरखाव और संरक्षण में योगदान दिया। उनके शासनकाल में चिदंबरम मंदिर धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बना रहा।
साहित्य और कला:
राजराज चोल द्वितीय के शासनकाल में तमिल साहित्य और कला को प्रोत्साहन मिला। उनके दरबार में विद्वानों और कवियों को संरक्षण प्रदान किया गया। तमिल साहित्य की परंपराएँ, जैसे कंब रामायणम, उनके समय में भी जीवित रहीं और समृद्ध हुईं। चोल मंदिरों की मूर्तिकला और स्थापत्य कला उनके शासनकाल में और विकसित हुई।
धार्मिक सहिष्णुता:
राजराज चोल द्वितीय ने शैव और वैष्णव परंपराओं को समर्थन दिया। उनके शासनकाल में धार्मिक सामंजस्य बना रहा, हालांकि शैव धर्म को विशेष प्रोत्साहन मिला।
5. आर्थिक समृद्धि और व्यापार
समुद्री व्यापार: राजराज चोल द्वितीय के शासनकाल में चोल साम्राज्य का समुद्री व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया, चीन, और मध्य पूर्व के साथ बना रहा। हालांकि, यह अपने चरम से कमजोर था, क्योंकि श्रीलंका पर नियंत्रण खोने से व्यापारिक मार्ग प्रभावित हुए।
बंदरगाह: नागपट्टिनम और कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाह व्यापार के केंद्र बने रहे। राजराज ने इन बंदरगाहों की सुरक्षा और प्रबंधन को सुनिश्चित किया।
आर्थिक नीतियाँ: उनकी आर्थिक नीतियों ने चोल साम्राज्य की समृद्धि को बनाए रखा। व्यापार कर और भूमि कर से प्राप्त आय ने साम्राज्य को आर्थिक रूप से सशक्त बनाए रखा।
6. चुनौतियाँ
श्रीलंका में हानि: राजराज चोल द्वितीय के शासनकाल में श्रीलंका पर चोल नियंत्रण पूरी तरह समाप्त हो चुका था। सिंहली शासकों की स्वतंत्रता ने चोल साम्राज्य के समुद्री प्रभाव को कम किया।
पांड्य और होयसाल का उदय: पांड्य और होयसाल जैसे क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा था, जिसने चोल प्रभुत्व को चुनौती दी। राजराज ने इन विद्रोहों को दबाने का प्रयास किया, लेकिन यह एक निरंतर चुनौती बनी रही।
आंतरिक अस्थिरता: उनके शासनकाल के अंत में चोल साम्राज्य में आंतरिक अस्थिरता के संकेत दिखाई देने लगे, जो बाद के शासकों के समय में और बढ़ गए।
7. उत्तराधिकार और मृत्यु
मृत्यु: राजराज चोल द्वितीय की मृत्यु 1173 ईस्वी में हुई। उनके शासनकाल ने चोल साम्राज्य को सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से समृद्ध किया।
उत्तराधिकारी: उनके बाद उनके पुत्र राजाधिराज चोल द्वितीय (1166-1178 ई.) ने सिंहासन संभाला। राजाधिराज चोल द्वितीय ने चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखा, लेकिन क्षेत्रीय शक्तियों के बढ़ते प्रभाव के कारण साम्राज्य कमजोर होने लगा।
8. ऐतिहासिक महत्व
राजराज चोल द्वितीय का शासनकाल चोल साम्राज्य के स्वर्ण युग के अंतिम चरण का हिस्सा था। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने सैन्य विस्तार की तुलना में सांस्कृतिक और स्थापत्य उपलब्धियों पर अधिक ध्यान दिया। दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर उनकी सबसे महत्वपूर्ण विरासत है, जो चोल स्थापत्य और मूर्तिकला की उत्कृष्टता को दर्शाता है। उनकी प्रशासनिक और आर्थिक नीतियों ने चोल साम्राज्य को स्थिर बनाए रखा, लेकिन क्षेत्रीय शक्तियों के उदय ने चोल प्रभुत्व को कमजोर करना शुरू कर दिया।
9. उपाधियाँ और स्मृति
राजराज चोल द्वितीय ने कई उपाधियाँ धारण कीं, जैसे परकेशरी और शिवपदशेखर (शिव के चरणों का भक्त)। ये उपाधियाँ उनकी धार्मिक और प्रशासनिक उपलब्धियों को दर्शाती हैं। उनके शासनकाल के कई शिलालेख तमिलनाडु और दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में पाए गए हैं, जो उनकी विजयों, प्रशासनिक नीतियों, और धार्मिक योगदानों का विवरण देते हैं।
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