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Parantaka I
jp Singh 2025-05-22 17:46:51
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परांतक प्रथम

परांतक प्रथम (लगभग 907-955 ई.)
परांतक प्रथम (लगभग 907-955 ई.) चोल वंश के एक प्रमुख शासक थे, जिन्हें आदित्य प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी माना जाता है। उन्होंने अपने पिता और दादा विजयालय चोल द्वारा स्थापित चोल साम्राज्य को और सुदृढ़ किया, जिससे यह दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति बन गया। परांतक प्रथम का शासनकाल चोल वंश के स्वर्ण युग का प्रारंभिक चरण था, और उनकी सैन्य, प्रशासनिक, और सांस्कृतिक उपलब्धियों ने चोल साम्राज्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। नीचे उनके जीवन, उपलब्धियों, और योगदान का विस्तृत विवरण दिया गया है:
1. पृष्ठभूमि
परांतक प्रथम आदित्य प्रथम के पुत्र थे, जिन्होंने पल्लव साम्राज्य को समाप्त कर चोल वंश को दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया था। परांतक को “मदुरैकोण्ड” (मदुरै का विजेता) और “मदुरांतक” की उपाधि प्राप्त थी, जो उनकी पांड्य साम्राज्य पर विजय को दर्शाती है। उनका शासनकाल लगभग 48 वर्षों तक रहा, जो चोल वंश के इतिहास में एक लंबा और स्थिर शासनकाल था।
2. सैन्य अभियान और विजय
परांतक प्रथम एक कुशल योद्धा और रणनीतिकार थे। उनके सैन्य अभियानों ने चोल साम्राज्य के क्षेत्रीय विस्तार को नई दिशा दी। उनकी प्रमुख सैन्य उपलब्धियां निम्नलिखित हैं:
पांड्य साम्राज्य पर विजय: परांतक ने पांड्य राजा राजसिम्हा द्वितीय को पराजित किया और मदुरै (पांड्य राजधानी) पर कब्जा किया। इस जीत के कारण उन्हें “मदुरैकोण्ड” की उपाधि मिली। पांड्य साम्राज्य को चोल अधीनता में लाने के लिए उन्होंने कई अभियान चलाए, और पांड्य शासक श्रीलंका की ओर भाग गए। इस विजय ने चोल साम्राज्य को दक्षिणी तमिलनाडु तक विस्तारित किया।
रीलंका पर आक्रमण: परांतक ने श्रीलंका पर आक्रमण किया, जहां पांड्य राजा राजसिम्हा द्वितीय ने शरण ली थी। उन्होंने सिंहली राजा को पराजित किया और उत्तरी श्रीलंका के कुछ हिस्सों पर कब्जा किया। हालांकि, श्रीलंका पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित नहीं हो सका, और बाद में सिंहली शासकों ने चोल सेना को पीछे धकेल दिया। फिर भी, इस अभियान ने चोल साम्राज्य की समुद्री शक्ति को प्रदर्शित किया।
राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष: परांतक का सामना उत्तरी दक्कन की शक्तिशाली राष्ट्रकूट वंश से हुआ। राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने चोल क्षेत्रों पर आक्रमण किया और तक्कोलम की लड़ाई (लगभग 949 ई.) में परांतक को पराजित किया। इस हार से चोल साम्राज्य को अस्थायी झटका लगा, और तोंडैमंडलम (कांची क्षेत्र) पर राष्ट्रकूटों का प्रभाव बढ़ा।
अन्य विजय: परांतक ने चेर (केरल क्षेत्र) और अन्य स्थानीय शासकों के खिलाफ भी अभियान चलाए। उन्होंने वेंगी (पूर्वी चालुक्य क्षेत्र) में हस्तक्षेप किया और चोल प्रभाव को आंध्र क्षेत्र तक फैलाने का प्रयास किया।
3. प्रशासन और शासन
परांतक ने चोल प्रशासन को और संगठित किया। उन्होंने स्थानीय शासकों और सामंतों को अपने अधीन रखकर एक केंद्रीकृत शासन व्यवस्था विकसित की। कावेरी डेल्टा की उर्वर भूमि का उपयोग कर कृषि को बढ़ावा दिया गया, जिसने चोल अर्थव्यवस्था को समृद्ध बनाया। व्यापार और वाणिज्य को प्रोत्साहन दिया गया, विशेष रूप से तंजावुर, कांचीपुरम, और नागपट्टिनम जैसे बंदरगाह शहरों में। चोल साम्राज्य ने समुद्री व्यापार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। परांतक के शासनकाल में शिलालेखों और ताम्रपत्रों का उपयोग बढ़ा, जो प्रशासनिक और धार्मिक गतिविधियों को दर्ज करने के लिए महत्वपूर्ण थे।
4. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान
परांतक प्रथम एक प्रबल शिव भक्त थे और उन्होंने शैव धर्म को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल में कई शिव मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार हुआ। उन्होंने तंजावुर और अन्य क्षेत्रों में मंदिरों को संरक्षण प्रदान किया, जो चोल वास्तुकला और कला के प्रारंभिक उदाहरण बने। परांतक ने भक्ति आंदोलन को प्रोत्साहन दिया, और उनके समय में तमिल शैव संतों (नायनार) की रचनाओं को समर्थन मिला। “तेवरम” जैसे भक्ति ग्रंथों का संकलन उनके समय में और महत्वपूर्ण हुआ। उनके द्वारा निर्मित या समर्थित मंदिरों में चोल वास्तुकला की विशेषताएं, जैसे गर्भगृह और विमान (मंदिर का शिखर), देखी जा सकती हैं।
5. उत्तराधिकार और विरासत
परांतक प्रथम के बाद उनके पुत्र गंडरादित्य, अरिंजय, और सुंदर चोल जैसे शासकों ने सिंहासन संभाला। हालांकि, उनके शासनकाल के अंत में राष्ट्रकूटों से हार के कारण चोल साम्राज्य कुछ समय के लिए कमजोर हुआ। परांतक की सबसे बड़ी विरासत थी चोल साम्राज्य का दक्षिण भारत और श्रीलंका तक विस्तार, जिसने बाद में राजराज चोल और राजेंद्र चोल के समय में चरमोत्कर्ष प्राप्त किया। उनके शासनकाल में स्थापित प्रशासनिक और धार्मिक परंपराएं चोल वंश की पहचान बन गईं।
6. ऐतिहासिक स्रोत
परांतक प्रथम के बारे में जानकारी तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, तंजावुर शिलालेख, और अन्य समकालीन शिलालेखों से प्राप्त होती है। “पेरिय पुराणम” और अन्य तमिल साहित्य में उनके धार्मिक योगदान का उल्लेख मिलता है। उनके सैन्य अभियानों का विवरण चोल और पांड्य शिलालेखों में दर्ज है।
7. महत्व और प्रभाव
परांतक प्रथम ने चोल साम्राज्य को एक क्षेत्रीय शक्ति से दक्षिण भारत की प्रमुख शक्ति में बदल दिया। उनकी पांड्य और श्रीलंका पर विजय ने चोल साम्राज्य की समुद्री और सैन्य शक्ति को प्रदर्शित किया। तक्कोलम की हार के बावजूद, उनके शासनकाल ने चोल वंश की नींव को इतना मजबूत किया कि बाद के शासकों ने इसे और विस्तारित किया। उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक नीतियों ने चोल वंश को एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में स्थापित किया, जिसने तमिल कला, वास्तुकला, और साहित्य को विश्व स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई।
8. तुलनात्मक विश्लेषण
विजयालय चोल के साथ तुलना: विजयालय ने चोल वंश की नींव रखी और तंजावुर को जीता, लेकिन परांतक ने साम्राज्य को दक्षिण भारत और श्रीलंका तक विस्तारित किया। आदित्य प्रथम के साथ तुलना: आदित्य ने पल्लव साम्राज्य को समाप्त किया, जबकि परांतक ने पांड्य और श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर चोल प्रभाव को और बढ़ाया। राजराज चोल के साथ तुलना: परांतक का शासनकाल राजराज चोल की तुलना में कम भव्य था, लेकिन उनकी नीतियों ने राजराज के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया।
गंडरादित्य चोल (लगभग 955-957 ई.)
गंडरादित्य चोल (लगभग 955-957 ई.) चोल वंश के एक शासक थे, जो परांतक प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। उनका शासनकाल अपेक्षाकृत संक्षिप्त था, लेकिन उनकी धार्मिक भक्ति और सांस्कृतिक योगदान के लिए उन्हें याद किया जाता है। गंडरादित्य एक कट्टर शैव भक्त थे और तमिल भक्ति साहित्य में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनके शासनकाल ने चोल साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की, हालांकि सैन्य विस्तार की तुलना में उनका ध्यान धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर अधिक था। नीचे उनके जीवन, शासन, और योगदान का विस्तृत विवरण दिया गया है:
1. पृष्ठभूमि
गंडरादित्य परांतक प्रथम के पुत्र थे, जिन्होंने चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति बनाया था। परांतक प्रथम की मृत्यु (लगभग 955 ई.) के बाद गंडरादित्य ने चोल सिंहासन संभाला। कुछ शिलालेखों में उन्हें “मदुरैकोण्ड” और “शिवपदशेखर” (शिव के भक्त) जैसे उपनामों से जाना जाता है। उनके शासनकाल के समय चोल साम्राज्य तक्कोलम की लड़ाई (949 ई.) में राष्ट्रकूटों से हार के बाद कुछ कमजोर स्थिति में था, जिसने उनके सैन्य अभियानों को सीमित किया।
2. सैन्य अभियान
गंडरादित्य का शासनकाल सैन्य दृष्टिकोण से ज्यादा सक्रिय नहीं था। तक्कोलम की हार के बाद चोल साम्राज्य ने आक्रामक विस्तार की नीति को अस्थायी रूप से कम किया। कुछ शिलालेखों के अनुसार, उन्होंने पांड्य और श्रीलंका के क्षेत्रों में चोल प्रभाव को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन कोई बड़े सैन्य अभियान दर्ज नहीं हैं। उनका ध्यान साम्राज्य की स्थिरता और आंतरिक संगठन पर अधिक था, ताकि राष्ट्रकूटों जैसे शक्तिशाली पड़ोसियों से खतरे को कम किया जा सके।
3. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान
गंडरादित्य को उनकी गहरी शैव भक्ति के लिए जाना जाता है। वे नायनार संतों (तमिल शैव भक्तों) में से एक माने जाते हैं और तमिल भक्ति साहित्य में “तिरुवीशैप्पा नायनार” के रूप में सम्मानित हैं। उन्होंने तमिल भक्ति भजनों की रचना की, जो “तिरुवीशैप्पा” के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये भजन तेवरम संग्रह का हिस्सा हैं, जो शैव भक्ति साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है। गंडरादित्य ने शिव मंदिरों को संरक्षण प्रदान किया और तंजावुर, कांचीपुरम, और अन्य क्षेत्रों में मंदिरों के रखरखाव और जीर्णोद्धार में योगदान दिया। उनकी धार्मिक नीतियों ने चोल साम्राज्य की सांस्कृतिक पहचान को और मजबूत किया, जो बाद में राजराज चोल के समय में चरम पर पहुंची।
4. प्रशासन
गंडरादित्य का शासनकाल संक्षिप्त होने के कारण प्रशासनिक सुधारों के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी, उन्होंने अपने पिता परांतक प्रथम द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचे को बनाए रखा। कावेरी डेल्टा की उर्वर भूमि और समुद्री व्यापार पर आधारित चोल अर्थव्यवस्था उनके समय में स्थिर रही। शिलालेखों से पता चलता है कि उन्होंने स्थानीय सामंतों और व्यापारिक समुदायों के साथ सहयोग बनाए रखा।
5. उत्तराधिकार और विरासत
गंडरादित्य का शासनकाल केवल दो से तीन वर्षों तक चला, और उनकी मृत्यु के बाद उनके भाई अरिंजय चोल ने सिंहासन संभाला (लगभग 957 ई.)। उनकी पत्नी सेमबियन मादेवी (या सेमबियन महादेवी) एक प्रमुख शैव भक्त और संरक्षक थीं। गंडरादित्य की मृत्यु के बाद, उन्होंने मंदिर निर्माण और धार्मिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिसने चोल सांस्कृतिक परंपराओं को और समृद्ध किया। गंडरादित्य के पुत्र उत्तम चोल बाद में चोल सिंहासन पर बैठे, लेकिन उनके तत्काल उत्तराधिकारी उनके भाई अरिंजय थे। गंडरादित्य की सबसे बड़ी विरासत उनकी धार्मिक भक्ति और तमिल भक्ति साहित्य में योगदान थी, जिसने चोल वंश की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया।
6. ऐतिहासिक स्रोत
गंडरादित्य के बारे में जानकारी मुख्य रूप से तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, तंजावुर शिलालेख, और अन्य समकालीन शिलालेखों से प्राप्त होती है। तमिल भक्ति ग्रंथ “पेरिय पुराणम” में उन्हें नायनार संत के रूप में वर्णित किया गया है, और उनके भजनों का उल्लेख तेवरम में मिलता है। उनकी पत्नी सेमबियन मादेवी के शिलालेख भी उनके धार्मिक योगदान को दर्शाते हैं।
7. महत्व और प्रभाव
गंडरादित्य का शासनकाल चोल वंश के इतिहास में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण चरण था। उनके समय में साम्राज्य ने सैन्य विस्तार की तुलना में धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर अधिक ध्यान दिया। उनकी शैव भक्ति और तेवरम भजनों ने तमिल साहित्य और भक्ति आंदोलन को समृद्ध किया, जो चोल वंश की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा बना। उनकी पत्नी सेमबियन मादेवी ने उनके बाद मंदिर निर्माण और शैव परंपराओं को बढ़ावा देकर उनकी विरासत को आगे बढ़ाया।
8. तुलनात्मक विश्लेषण
विजयालय चोल के साथ तुलना: विजयालय ने चोल वंश की नींव रखी, जबकि गंडरादित्य ने सैन्य विस्तार की बजाय धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान पर ध्यान दिया। आदित्य प्रथम के साथ तुलना: आदित्य ने पल्लव साम्राज्य को समाप्त किया, जबकि गंडरादित्य का ध्यान साम्राज्य को स्थिर करने और धार्मिक पहचान को मजबूत करने पर था। परांतक प्रथम के साथ तुलना: परांतक ने चोल साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया, लेकिन गंडरादित्य का शासनकाल तक्कोलम की हार के बाद स्थिरता और धार्मिक गतिविधियों पर केंद्रित रहा। राजराज चोल के साथ तुलना: गंडरादित्य का शासनकाल राजराज चोल की तुलना में कम प्रभावशाली था, लेकिन उनकी धार्मिक नीतियों ने राजराज के भव्य मंदिर निर्माण के लिए आधार तैयार किया।
अरिंजय चोल (लगभग 956-957 ई.)
अरिंजय चोल (लगभग 956-957 ई.) चोल वंश के एक शासक थे, जो गंडरादित्य चोल के छोटे भाई और परांतक प्रथम के पुत्र थे। उनका शासनकाल अत्यंत संक्षिप्त (लगभग एक वर्ष) था, और यह चोल वंश के इतिहास में एक संक्रमणकालीन चरण के रूप में देखा जाता है। अरिंजय का शासनकाल तक्कोलम की लड़ाई (949 ई.) में राष्ट्रकूटों से हुई हार के बाद चोल साम्राज्य की कमजोर स्थिति के दौरान था। उनके शासनकाल के बारे में जानकारी सीमित है, लेकिन उनकी भूमिका चोल वंश की निरंतरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण थी। नीचे उनके जीवन, शासन, और योगदान का विस्तृत विवरण दिया गया है:
1. पृष्ठभूमि
अरिंजय चोल परांतक प्रथम के पुत्र और गंडरादित्य के छोटे भाई थे। परांतक प्रथम ने चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति बनाया था, लेकिन तक्कोलम की हार ने चोल प्रभाव को कमजोर किया था। गंडरादित्य की मृत्यु (लगभग 956 ई.) के बाद अरिंजय ने चोल सिंहासन संभाला। उनके शासनकाल के समय चोल साम्राज्य राष्ट्रकूटों और अन्य पड़ोसी शक्तियों के दबाव में था। शिलालेखों में अरिंजय को “अल्वार परांतकन” या “पोन्नियिन सेल्वन” (कावेरी का पुत्र) जैसे नामों से उल्लेखित किया गया है।
2. सैन्य अभियान
अरिंजय का शासनकाल बहुत छोटा था, इसलिए उनके नाम पर कोई बड़े सैन्य अभियान दर्ज नहीं हैं। कुछ शिलालेखों के अनुसार, उन्होंने चोल साम्राज्य के क्षेत्रों, विशेष रूप से तंजावुर और कावेरी डेल्टा, को स्थिर करने का प्रयास किया। राष्ट्रकूटों के साथ तनाव और पांड्य क्षेत्रों में चोल प्रभाव को बनाए रखने की चुनौती उनके समय में बनी रही, लेकिन कोई निर्णायक युद्ध या विजय का उल्लेख नहीं मिलता।
3. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान
अरिंजय के संक्षिप्त शासनकाल के कारण उनके धार्मिक या सांस्कृतिक योगदान के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी, चोल वंश की शैव भक्ति की परंपरा को उन्होंने बनाए रखा। उनके समय में तंजावुर और कांचीपुरम के शिव मंदिरों को संरक्षण मिलता रहा। उनकी पत्नी या परिवार के सदस्यों, जैसे सेमबियन मादेवी (गंडरादित्य की पत्नी और अरिंजय की भाभी), ने धार्मिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया, जो चोल सांस्कृतिक परंपराओं को मजबूत करने में सहायक रहा।
4. प्रशासन
अरिंजय का शासनकाल इतना संक्षिप्त था कि उनके प्रशासनिक सुधारों या नीतियों के बारे में ज्यादा विवरण उपलब्ध नहीं है। उन्होंने अपने पिता परांतक प्रथम और भाई गंडरादित्य द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचे को बनाए रखा। कावेरी डेल्टा की उर्वर भूमि और समुद्री व्यापार पर आधारित चोल अर्थव्यवस्था उनके समय में स्थिर रही, हालांकि राष्ट्रकूटों का दबाव आर्थिक विकास को सीमित कर सकता था।
5. उत्तराधिकार और विरासत
अरिंजय की मृत्यु के बाद (लगभग 957 ई.) उनके पुत्र सुंदर चोल (या परांतक द्वितीय) ने चोल सिंहासन संभाला। अरिंजय की सबसे महत्वपूर्ण विरासत थी चोल वंश की निरंतरता को बनाए रखना, जिसने बाद में राजराज चोल जैसे महान शासकों के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य में कुछ समय के लिए अस्थिरता रही, लेकिन सुंदर चोल के शासनकाल में साम्राज्य ने फिर से उन्नति की।
6. ऐतिहासिक स्रोत
अरिंजय के बारे में जानकारी मुख्य रूप से तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, तंजावुर शिलालेख, और अन्य समकालीन शिलालेखों से प्राप्त होती है। तमिल भक्ति ग्रंथ “पेरिय पुराणम” में उनके परिवार और समकालीन शासकों के धार्मिक योगदान का उल्लेख मिलता है, हालांकि अरिंजय का व्यक्तिगत उल्लेख सीमित है। उनके शासनकाल के बारे में जानकारी अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि उनका शासनकाल संक्षिप्त और कम घटनापूर्ण था।
7. महत्व और प्रभाव
अरिंजय का शासनकाल चोल वंश के इतिहास में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कड़ी था। उन्होंने साम्राज्य को एक कठिन दौर में स्थिरता प्रदान की, जब राष्ट्रकूटों का प्रभाव बढ़ रहा था। उनकी मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य ने सुंदर चोल और फिर राजराज चोल के नेतृत्व में पुनर्जनन का अनुभव किया, जिसने चोल वंश को दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में एक महाशक्ति बनाया। अरिंजय की धार्मिक और प्रशासनिक परंपराओं ने चोल वंश की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में मदद की।
8. तुलनात्मक विश्लेषण
विजयालय चोल के साथ तुलना: विजयालय ने चोल वंश की नींव रखी और तंजावुर को जीता, जबकि अरिंजय का शासनकाल एक संक्रमणकालीन चरण था जिसमें कोई बड़ा विस्तार नहीं हुआ। आदित्य प्रथम के साथ तुलना: आदित्य ने पल्लव साम्राज्य को समाप्त किया, जबकि अरिंजय का ध्यान साम्राज्य को स्थिर करने पर था। परांतक प्रथम के साथ तुलना: परांतक ने पांड्य और श्रीलंका पर विजय प्राप्त की, लेकिन अरिंजय का शासनकाल सैन्य दृष्टिकोण से कम सक्रिय था। गंडरादित्य के साथ तुलना: गंडरादित्य ने धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान पर ध्यान दिया, जबकि अरिंजय का शासनकाल मुख्य रूप से वंश की निरंतरता सुनिश्चित करने तक सीमित रहा। राजराज चोल के साथ तुलना: अरिंजय का शासनकाल राजराज चोल की तुलना में बहुत कम प्रभावशाली था, लेकिन उनकी भूमिका ने राजराज के लिए एक स्थिर आधार तैयार किया।
सुंदर चोल (लगभग 957-970 ई.)
सुंदर चोल (लगभग 957-970 ई.), जिन्हें परांतक द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है, चोल वंश के एक महत्वपूर्ण शासक थे। वे अरिंजय चोल के पुत्र और परांतक प्रथम के पोते थे। सुंदर चोल के शासनकाल ने चोल साम्राज्य को तक्कोलम की लड़ाई (949 ई.) में राष्ट्रकूटों से मिली हार के बाद पुनर्जनन का अवसर प्रदान किया। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने अपनी शक्ति को पुनः स्थापित किया और बाद के शासकों, विशेष रूप से राजराज चोल, के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया। नीचे उनके जीवन, शासन, और योगदान का विस्तृत विवरण दिया गया है:
1. पृष्ठभूमि
सुंदर चोल अरिंजय चोल के पुत्र थे, जिनका शासनकाल संक्षिप्त (956-957 ई.) था। अरिंजय की मृत्यु के बाद सुंदर चोल ने चोल सिंहासन संभाला। उनके शासनकाल की शुरुआत में चोल साम्राज्य राष्ट्रकूटों के दबाव में था, जिन्होंने तक्कोलम की लड़ाई में परांतक प्रथम को हराया था। सुंदर चोल को शिलालेखों में “परांतक द्वितीय” और “पोन्नियिन सेल्वन” (कावेरी का पुत्र) जैसे नामों से उल्लेखित किया गया है।
2. सैन्य अभियान और विजय
सुंदर चोल के शासनकाल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उनकी सैन्य सफलताएँ थीं, जिन्होंने चोल साम्राज्य की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। उनकी प्रमुख सैन्य उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य साम्राज्य पर विजय: सुंदर चोल ने पांड्य राजा वीर पांड्य को पराजित किया और मदुरै पर पुनः कब्जा किया। यह विजय चोल साम्राज्य के दक्षिणी तमिलनाडु में प्रभाव को पुनर्जनन के लिए महत्वपूर्ण थी। पांड्य क्षेत्रों को चोल अधीनता में लाने से साम्राज्य की आर्थिक और रणनीतिक स्थिति मजबूत हुई।
श्रीलंका अभियान: सुंदर चोल ने श्रीलंका पर आक्रमण किया, जहां पांड्य शासक शरण ले चुके थे। उनके अभियान ने उत्तरी श्रीलंका के कुछ हिस्सों पर चोल नियंत्रण को पुनः स्थापित किया। हालांकि, श्रीलंका पर पूर्ण नियंत्रण बाद में राजराज चोल और राजेंद्र चोल के समय में ही संभव हुआ।
राष्ट्रकूटों के खिलाफ युद्ध: सुंदर चोल ने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के खिलाफ युद्ध लड़ा और कुछ क्षेत्रों में चोल प्रभाव को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। हालांकि, राष्ट्रकूटों के साथ पूर्ण विजय हासिल नहीं हुई। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने तोंडैमंडलम (कांची क्षेत्र) पर नियंत्रण को मजबूत किया, जो तक्कोलम की हार के बाद कमजोर हो गया था।
चेर और अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव: सुंदर चोल ने चेर (केरल क्षेत्र) के खिलाफ अभियान चलाए और चोल प्रभाव को दक्षिण-पश्चिम भारत में विस्तारित किया। उन्होंने वेंगी (पूर्वी चालुक्य क्षेत्र) में भी हस्तक्षेप किया, जिससे चोल और चालुक्य वंशों के बीच संबंधों की नींव रखी गई।
3. प्रशासन
सुंदर चोल ने अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचे को और मजबूत किया। उन्होंने स्थानीय सामंतों और सरदारों को अपने अधीन रखकर चोल शासन को संगठित किया। कावेरी डेल्टा की उर्वर भूमि और समुद्री व्यापार पर आधारित चोल अर्थव्यवस्था उनके समय में पुनर्जनन के दौर से गुजरी। तंजावुर, कांचीपुरम, और नागपट्टिनम जैसे शहरों में व्यापार और वाणिज्य को प्रोत्साहन दिया गया, जिसने चोल साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि को बढ़ाया। उनके शासनकाल में शिलालेखों का उपयोग बढ़ा, जो प्रशासनिक और धार्मिक गतिविधियों को दर्ज करने के लिए महत्वपूर्ण थे।
4. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान
सुंदर चोल एक प्रबल शैव भक्त थे और उन्होंने शैव धर्म को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल में कई शिव मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार हुआ। उनकी पत्नी और परिवार के सदस्यों, जैसे सेमबियन मादेवी (गंडरादित्य की पत्नी और सुंदर चोल की माँ या भाभी), ने मंदिर निर्माण और शैव परंपराओं को संरक्षण प्रदान किया। सुंदर चोल ने तमिल भक्ति आंदोलन को समर्थन दिया, और उनके समय में नायनार संतों की रचनाएँ, जैसे तेवरम, लोकप्रिय रहीं। उनके शासनकाल में चोल वास्तुकला और कला ने प्रारंभिक विकास देखा, जो बाद में राजराज चोल के समय में बृहदीश्वर मंदिर जैसे भव्य निर्माणों में परिलक्षित हुआ।
5. उत्तराधिकार और विरासत
सुंदर चोल की मृत्यु के बाद (लगभग 970 ई.) उनके पुत्र आदित्य करिकाल और राजराज चोल (तथा पुत्री कुंदवई) चोल वंश के प्रमुख उत्तराधिकारी बने। सुंदर चोल के शासनकाल के अंत में एक महत्वपूर्ण घटना थी उनके पुत्र आदित्य करिकाल की रहस्यमय हत्या (लगभग 969 ई.), जिसके कारण राजराज चोल को सिंहासन प्राप्त हुआ। सुंदर चोल की सबसे बड़ी विरासत थी चोल साम्राज्य को पुनर्जनन और स्थिरता प्रदान करना, जिसने राजराज चोल और राजेंद्र चोल के समय में चोल वंश को दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में एक महाशक्ति बनाया।
6. ऐतिहासिक स्रोत
सुंदर चोल के बारे में जानकारी तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, तंजावुर शिलालेख, और अन्य समकालीन शिलालेखों से प्राप्त होती है। तमिल भक्ति ग्रंथ “पेरिय पुराणम” में उनके परिवार और समकालीन शासकों के धार्मिक योगदान का उल्लेख मिलता है। उनके सैन्य अभियानों और प्रशासनिक नीतियों का विवरण चोल और पांड्य शिलालेखों में दर्ज है।
7. महत्व और प्रभा
सुंदर चोल का शासनकाल चोल वंश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पुनर्जनन का चरण था। तक्कोलम की हार के बाद कमजोर हुए चोल साम्राज्य को उन्होंने पुनः शक्ति प्रदान की। उनकी पांड्य और श्रीलंका पर विजय ने चोल साम्राज्य की समुद्री और सैन्य शक्ति को पुनः स्थापित किया। उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक नीतियों ने चोल वंश की सांस्कृतिक पहचान को और मजबूत किया, जो बाद में राजराज चोल के समय में चरम पर पहुंची।
8. तुलनात्मक विश्लेषण
विजयालय चोल के साथ तुलना: विजयालय ने चोल वंश की नींव रखी और तंजावुर को जीता, जबकि सुंदर चोल ने साम्राज्य को पुनर्जनन और विस्तार प्रदान किया। आदित्य प्रथम के साथ तुलना: आदित्य ने पल्लव साम्राज्य को समाप्त किया, जबकि सुंदर चोल ने पांड्य और श्रीलंका पर ध्यान केंद्रित किया। परांतक प्रथम के साथ तुलना: परांतक ने चोल साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया, लेकिन सुंदर चोल ने तक्कोलम की हार के बाद साम्राज्य को स्थिर और पुनर्जनन किया। गंडरादित्य और अरिंजय के साथ तुलना: गंडरादित्य और अरिंजय के शासनकाल धार्मिक और स्थिरता पर केंद्रित थे, जबकि सुंदर चोल ने सैन्य और प्रशासनिक पुनर्जनन पर जोर दिया। राजराज चोल के साथ तुलना: सुंदर चोल का शासनकाल राजराज चोल की तुलना में कम भव्य था, लेकिन उनकी नीतियों ने राजराज के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया।
आदित्य करिकाल (लगभग 942-971 ई.)
आदित्य करिकाल (लगभग 942-971 ई.) चोल वंश के एक प्रमुख राजकुमार और योद्धा थे, जो सुंदर चोल (परांतक द्वितीय) के पुत्र और राजराज चोल के बड़े भाई थे। यद्यपि वे चोल सिंहासन पर नहीं बैठे, उनकी सैन्य उपलब्धियों और चोल साम्राज्य के पुनर्जनन में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। आदित्य करिकाल को उनकी वीरता और रणनीतिक कौशल के लिए जाना जाता है, लेकिन उनकी रहस्यमय हत्या चोल इतिहास का एक विवादास्पद और महत्वपूर्ण अध्याय है। नीचे उनके जीवन, उपलब्धियों, और योगदान का विस्तृत विवरण दिया गया है
1. पृष्ठभूमि
आदित्य करिकाल सुंदर चोल और उनकी पत्नी (संभवतः वनवनमादेवी) के पुत्र थे। वे परांतक प्रथम के पौत्र थे, जिन्होंने चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति बनाया था। उन्हें “करिकाल” की उपाधि प्राप्त थी, जो प्राचीन चोल शासक करिकाल चोल के प्रति सम्मान को दर्शाती है। शिलालेखों में उन्हें “को-परकेसरीवरमन” के रूप में भी उल्लेखित किया गया है, जो चोल राजकुमारों की उपाधि थी। आदित्य करिकाल अपने पिता सुंदर चोल के शासनकाल में एक सक्रिय सैन्य कमांडर थे और चोल साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2. सैन्य अभियान और
आदित्य करिकाल एक कुशल योद्धा थे, जिन्होंने अपने पिता सुंदर चोल के शासनकाल में कई महत्वपूर्ण सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया। उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं:
पांड्य विजय: आदित्य करिकाल ने पांड्य राजा वीर पांड्य के खिलाफ अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने चेवूर की लड़ाई (लगभग 965 ई.) में वीर पांड्य को पराजित किया और पांड्य क्षेत्रों पर चोल नियंत्रण को मजबूत किया। इस विजय ने चोल साम्राज्य को दक्षिणी तमिलनाडु में पुनः प्रभुत्व स्थापित करने में मदद की, जो उनके दादा परांतक प्रथम के समय में शुरू हुआ था।
राष्ट्रकूटों के खिलाफ युद्ध: आदित्य करिकाल ने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के खिलाफ तक्कोलम की दूसरी लड़ाई (लगभग 968-969 ई.) में चोल सेना का नेतृत्व किया। यह लड़ाई तक्कोलम की पहली लड़ाई (949 ई.) में परांतक प्रथम की हार का बदला लेने के लिए थी। शिलालेखों के अनुसार, आदित्य करिकाल ने राष्ट्रकूटों को पराजित किया और तोंडैमंडलम (कांची क्षेत्र) पर चोल नियंत्रण को पुनः स्थापित किया। इस जीत ने चोल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बहाल किया। कुछ स्रोतों में उल्लेख है कि आदित्य ने “वीर पांड्य का सिर काटा” और राष्ट्रकूटों के खिलाफ अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हुए।
अन्य अभियान: आदित्य करिकाल ने चेर (केरल क्षेत्र) और अन्य स्थानीय शासकों के खिलाफ अभियानों में भी भाग लिया, जिससे चोल प्रभाव दक्षिण-पश्चिम भारत में फैला। उनके अभियानों ने चोल साम्राज्य की समुद्री और सैन्य शक्ति को मजबूत करने में मदद की, जो बाद में राजराज चोल के समय में चरम पर पहुंची।
3. रहस्यमय हत्या
आदित्य करिकाल की सबसे चर्चित और विवादास्पद घटना उनकी रहस्यमय हत्या (लगभग 969-971 ई.) थी। उनकी मृत्यु के सटीक कारण और परिस्थितियाँ आज भी इतिहासकारों के बीच बहस का विषय हैं। शिलालेखों और तमिल साहित्य, जैसे तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, में उनकी हत्या का उल्लेख है, लेकिन हत्यारों की पहचान स्पष्ट नहीं है। कुछ स्रोतों में पांड्य समर्थकों या चोल दरबार के आंतरिक षड्यंत्रों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। एक लोकप्रिय परंपरा में उल्लेख है कि आदित्य की हत्या कदमुत्तुगु (वर्तमान तमिलनाडु में) में हुई, संभवतः एक राजनीतिक षड्यंत्र के परिणामस्वरूप। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पांड्य या राष्ट्रकूट समर्थकों ने इस हत्या को अंजाम दिया, जबकि अन्य का कहना है कि यह चोल वंश के उत्तराधिकार विवाद से जुड़ा हो सकता है। उनकी हत्या के बाद उनके छोटे भाई राजराज चोल ने सिंहासन संभाला, जिसने चोल साम्राज्य को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
4. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदा
आदित्य करिकाल के सैन्य जीवन के कारण उनके धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान सीमित थे, लेकिन वे चोल वंश की शैव भक्ति परंपरा के समर्थक थे। उनके पिता सुंदर चोल और परिवार के अन्य सदस्यों, जैसे सेमबियन मादेवी, ने मंदिर निर्माण और शैव परंपराओं को बढ़ावा दिया, जिसमें आदित्य का अप्रत्यक्ष समर्थन रहा होगा। उनकी सैन्य विजयों ने चोल साम्राज्य को आर्थिक रूप से समृद्ध किया, जिसने मंदिर निर्माण और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए संसाधन प्रदान किए।
5. प्रशासन
आदित्य करिकाल एक राजकुमार और सैन्य कमांडर थे, इसलिए उनका प्रशासनिक योगदान सीमित था। वे अपने पिता सुंदर चोल के शासनकाल में सह-शासक (को-परकेसरी) के रूप में कार्यरत थे। उनके अभियानों ने चोल साम्राज्य की आर्थिक और रणनीतिक स्थिति को मजबूत किया, जिसने प्रशासनिक स्थिरता को बढ़ावा दिया।
6. उत्तराधिकार और विरासत
आदित्य करिकाल की हत्या के बाद उनके छोटे भाई राजराज चोल (लगभग 985-1014 ई.) ने चोल सिंहासन संभाला। राजराज ने आदित्य की सैन्य उपलब्धियों को आगे बढ़ाया और चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में एक महाशक्ति बनाया। आदित्य की बहन कुंदवई और भाई राजराज ने उनकी मृत्यु के बाद चोल साम्राज्य को एकजुट रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी सबसे बड़ी विरासत थी राष्ट्रकूटों और पांड्यों के खिलाफ उनकी सैन्य सफलताएँ, जिन्होंने चोल साम्राज्य के पुनर्जनन का मार्ग प्रशस्त किया।
7. ऐतिहासिक स्रोत
आदित्य करिकाल के बारे में जानकारी तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, तंजावुर शिलालेख, और अन्य समकालीन शिलालेखों से प्राप्त होती है। तमिल साहित्य, जैसे “पेरिय पुराणम” और बाद के ऐतिहासिक ग्रंथ, में उनकी वीरता और हत्या का उल्लेख मिलता है। उनकी हत्या के विवरण को लेकर शिलालेखों में अस्पष्टता है, जिसने कई ऐतिहासिक और साहित्यिक व्याख्याओं को जन्म दिया।
8. महत्व और प्रभाव
आदित्य करिकाल का योगदान चोल साम्राज्य के पुनर्जनन और विस्तार में महत्वपूर्ण था। उनकी सैन्य विजयों ने चोल साम्राज्य को तक्कोलम की हार के बाद फिर से शक्तिशाली बनाया। उनकी हत्या चोल इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने राजराज चोल के उदय को संभव बनाया। उनकी वीरता और नेतृत्व ने चोल वंश की सैन्य परंपराओं को मजबूत किया, जो बाद में राजराज और राजेंद्र चोल के समय में चरम पर पहुंची।
9. तुलनात्मक विश्लेषण
विजयालय चोल के साथ तुलना: विजयालय ने चोल वंश की नींव रखी, जबकि आदित्य करिकाल ने साम्राज्य के पुनर्जनन में योगदान दिया।
आदित्य प्रथम के साथ तुलना: आदित्य प्रथम ने पल्लव साम्राज्य को समाप्त किया, जबकि आदित्य करिकाल ने पांड्य और राष्ट्रकूटों के खिलाफ चोल प्रभाव को पुनः स्थापित किया।
परांतक प्रथम के साथ तुलना: परांतक ने चोल साम्राज्य का व्यापक विस्तार किया, लेकिन आदित्य करिकाल ने तक्कोलम की हार के बाद साम्राज्य को पुनर्जनन प्रदान किया।
सुंदर चोल के साथ तुलना: सुंदर चोल ने साम्राज्य को स्थिर किया, जबकि आदित्य करिकाल ने सैन्य अभियानों का नेतृत्व कर चोल शक्ति को पुनर्जनन किया। राजराज चोल के साथ तुलना: आदित्य करिकाल की सैन्य उपलब्धियाँ राजराज के भव्य साम्राज्य विस्तार की तुलना में सीमित थीं, लेकिन उनकी जीत ने राजराज के लिए आधार तैयार किया।
राजराज चोल सुंदर चोल (परांतक द्वितीय) और उनकी पत्नी वनवनमादेवी के पुत्र थे। वे आदित्य करिकाल के छोटे भाई और कुंदवई के भाई थे। उनका मूल नाम अरुलमोली वर्मन था, लेकिन शिलालेखों में उन्हें “राजराज” और “को-राजकेशरीवरमन” के रूप में उल्लेखित किया गया है।
आदित्य करिकाल की रहस्यमय हत्या (लगभग 969-971 ई.) के बाद राजराज ने 985 ई. में चोल सिंहासन संभाला। उस समय चोल साम्राज्य तक्कोलम की हार (949 ई.) के प्रभाव से उबर रहा था, और उनके पिता सुंदर चोल ने इसे पुनर्जनन प्रदान किया था।
2. सैन्य अभियान और विजय
राजराज चोल एक कुशल योद्धा और रणनीतिकार थे, जिन्होंने चोल साम्राज्य को एक क्षेत्रीय शक्ति से दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैले साम्राज्य में बदल दिया। उनकी प्रमुख सैन्य उपलब्धियाँ निम्नलिखित हैं
राजराज चोल प्रथम (लगभग 985-1014 ई.)
राजराज चोल प्रथम (लगभग 985-1014 ई.) चोल वंश के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली शासकों में से एक थे, जिन्हें चोल साम्राज्य के स्वर्ण युग का प्रणेता माना जाता है। उन्हें “राजराज” (राजाओं का राजा) की उपाधि प्राप्त थी, और उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने दक्षिण भारत, श्रीलंका, और दक्षिण-पूर्व एशिया तक अभूतपूर्व विस्तार किया। राजराज ने सैन्य, प्रशासनिक, और सांस्कृतिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, विशेष रूप से तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर के निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैं, जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। नीचे उनके जीवन, उपलब्धियों, और योगदान का विस्तृत विवरण दिया गया है:
1. पृष्ठभूमि
पांड्य साम्राज्य पर पूर्ण नियंत्रण: राजराज ने पांड्य राजा अमरभुजंग को पराजित कर मदुरै और दक्षिणी तमिलनाडु पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया। पांड्य क्षेत्र को चोल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया, और पांड्य शासक सामंत बन गए। इस विजय ने चोल साम्राज्य को दक्षिणी तमिलनाडु की समृद्धि और संसाधनों तक पहुँच प्रदान की।
श्रीलंका पर विजय: राजराज ने श्रीलंका पर बड़े पैमाने पर आक्रमण किया (लगभग 993 ई.) और उत्तरी श्रीलंका, विशेष रूप से अनुराधपुरम, पर कब्जा किया। उन्होंने सिंहली राजा महिंद V को पराजित किया और श्रीलंका के कई हिस्सों को चोल अधीनता में लाया। उन्होंने अनुराधपुरम को नष्ट कर पोलोन्नरुवा को नई प्रशासनिक राजधानी बनाया। इस विजय ने चोल साम्राज्य की समुद्री शक्ति को प्रदर्शित किया।
चेर (केरल) पर नियंत्रण: राजराज ने चेर शासकों को पराजित कर केरल क्षेत्र पर चोल प्रभाव स्थापित किया। कुट्टनाड और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया गया। इस विजय ने चोल साम्राज्य को दक्षिण-पश्चिम भारत में व्यापार और संसाधनों तक पहुँच प्रदान की।
पूर्वी चालुक्य और वेंगी: राजराज ने वेंगी (वर्तमान आंध्र प्रदेश) के पूर्वी चालुक्य शासकों के साथ संबंध स्थापित किए। उनकी बहन कुंदवई का विवाह चालुक्य राजकुमार विमलादित्य से हुआ, जिसने चोल-चालुक्य गठबंधन को मजबूत किया। इस गठबंधन ने चोल साम्
मालदीव और समुद्री विस्तार: राजराज ने अपनी नौसेना का उपयोग कर मालदीव द्वीपों पर कब्जा किया, जिसने चोल साम्राज्य को हिंद महासागर में व्यापार और समुद्री प्रभुत्व स्थापित करने में सक्षम बनाया। उनकी नौसेना शक्ति ने दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक संबंधों को बढ़ावा दिया।
राष्ट्रकूटों के खिलाफ युद्ध: राजराज ने राष्ट्रकूटों के खिलाफ कई अभियान चलाए और तोंडैमंडलम (कांची क्षेत्र) पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया। उनकी विजयों ने राष्ट्रकूट प्रभाव को कमजोर किया और चोल प्रभुत्व को मजबूत किया।
राजराज चोल ने चोल साम्राज्य के प्रशासन को अत्यधिक संगठित और केंद्रीकृत किया। उन्होंने स्थानीय शासकों और सामंतों को अपने अधीन रखा और एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था विकसित की।
भूमि सर्वेक्षण और कर प्रणाली: राजराज ने भूमि सर्वेक्षण करवाया और कर संग्रह को व्यवस्थित किया। शिलालेखों में भूमि माप और कर निर्धारण के विवरण मिलते हैं, जो उनकी प्रशासनिक दक्षता को दर्शाते
स्थानीय शासन: उन्होंने साम्राज्य को छोटी प्रशासनिक इकाइयों (नाडु और कूट्रम) में विभाजित किया, जिन्हें स्थानीय सभाएँ (उर और सभा) संचालित करती थीं। नौसेना और व्यापार: राजराज ने चोल नौसेना को मजबूत किया, जिसने हिंद महासागर में व्यापार और समुद्री प्रभुत्व को बढ़ाया। नागपट्टिनम और अन्य बंदरगाह शहर व्यापार के प्रमुख केंद्र बने।
4. धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान
राजराज एक प्रबल शैव भक्त थे और उन्होंने शैव धर्म को बढ़ावा दिया। उनके शासनकाल में चोल वास्तुकला और कला अपने चरम पर पहुंची।
बृहदीश्वर मंदिर: राजराज ने तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर (लगभग 1010 ई.) का निर्माण करवाया, जो चोल वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह मंदिर अपनी भव्यता, विशाल गोपुरम, और जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। इसे “राजराजेश्वरम” भी कहा जाता था।
मंदिर संरक्षण: उन्होंने तंजावुर, कांचीपुरम, और अन्य क्षेत्रों में कई शिव मंदिरों को संरक्षण प्रदान किया। उनके शिलालेख मंदिरों के लिए भूमि और दान के विवरण प्रदान करते हैं।
भक्ति आंदोलन: राजराज ने तमिल शैव भक्ति आंदोलन को समर्थन दिया। उन्होंने नायनार संतों की रचनाओं, जैसे तेवरम, को संकलित और प्रचारित करने में योगदान दिया। कला और साहित्य: उनके शासनकाल में तमिल साहित्य, नृत्य, और संगीत को प्रोत्साहन मिला। बृहदीश्वर मंदिर की दीवारों पर नृत्य और संगीत के चित्रण इसकी गवाही देते हैं।
5. उत्तराधिकार और विरासत
राजराज की मृत्यु के बाद (1014 ई.) उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम ने सिंहासन संभाला, जिन्होंने चोल साम्राज्य को और विस्तारित किया, विशेष रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया में। राजराज की बहन कुंदवई ने प्रशासन और धार्मिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और उनकी पत्नी लोकमहादेवी ने भी मंदिर निर्माण में योगदान दिया। राजराज की सबसे बड़ी विरासत थी चोल साम्राज्य को एक वैश्विक शक्ति बनाना और बृहदीश्वर मंदिर जैसे सांस्कृतिक स्मारकों का निर्माण, जो आज भी तमिल संस्कृति की पहचान हैं।
6. ऐतिहासिक स्रोत
राजराज के बारे में जानकारी तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर शिलालेख, तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र, और अन्य समकालीन शिलालेखों से प्राप्त होती है। तमिल भक्ति ग्रंथ “पेरिय पुराणम” और अन्य साहित्य में उनके धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान का उल्लेख मिलता है। उनके सैन्य अभियानों का विवरण शिलालेखों और समकालीन स्रोतों में विस्तार से दर्ज है।
7. महत्व और प्रभाव
राजराज चोल ने चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत से दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैलाया, जिसने इसे एक समुद्री और सांस्कृतिक महाशक्ति बनाया। उनकी प्रशासनिक और सैन्य नीतियों ने चोल साम्राज्य को एक संगठित और समृद्ध राज्य बनाया, जो बाद में राजेंद्र चोल के समय में और विस्तारित हुआ। बृहदीश्वर मंदिर उनकी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है, जो चोल वास्तुकला, कला, और धार्मिक भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है। उनकी नौसेना और व्यापारिक नीतियों ने हिंद महासागर में भारत की स्थिति को मजबूत किया।
8. तुलनात्मक विश्लेष
विजयालय चोल के साथ तुलना: विजयालय ने चोल वंश की नींव रखी, जबकि राजराज ने इसे एक वैश्विक शक्ति बनाया। आदित्य प्रथम के साथ तुलना: आदित्य ने पल्लव साम्राज्य को समाप्त किया, जबकि राजराज ने पांड्य, श्रीलंका, और मालदीव पर विजय प्राप्त की। परांतक प्रथम के साथ तुलना: परांतक ने चोल साम्राज्य का विस्तार शुरू किया, लेकिन राजराज ने इसे अभूतपूर्व स्तर तक ले गए। सुंदर चोल और आदित्य करिकाल के साथ तुलना: सुंदर चोल और आदित्य करिकाल ने चोल साम्राज्य को पुनर्जनन प्रदान किया, जबकि राजराज ने इसे चरम पर पहुंचाया। राजेंद्र चोल के साथ तुलना: राजराज ने साम्राज्य का आधार तैयार किया, जिसे राजेंद्र ने दक्षिण-पूर्व एशिया (श्रीविजय) तक विस्तारित किया।
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