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Aparajitavarman (about 880-897 AD)
jp Singh 2025-05-22 16:29:52
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अपराजितवर्मन (लगभग 880-897 ईस्वी)

अपराजितवर्मन (लगभग 880-897 ईस्वी)
अपराजितवर्मन (लगभग 880-897 ईस्वी)
अपराजितवर्मन (लगभग 880-897 ईस्वी) पल्लव वंश के अंतिम शासक थे और नृपतुंगवर्मन के पुत्र थे। उनका शासनकाल पल्लव साम्राज्य के पतन का अंतिम चरण माना जाता है, जब चोल वंश की बढ़ती शक्ति ने पल्लवों को पूरी तरह से हाशिए पर धकेल दिया। अपराजितवर्मन ने अपने साम्राज्य को बचाने के लिए अंतिम प्रयास किए, लेकिन वह चोल शासक आदित्य चोल प्रथम के खिलाफ युद्ध में पराजित हुए, जिसके परिणामस्वरूप पल्लव वंश का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।
1. शासनकाल और सैन्य संघर्ष:
अपराजितवर्मन ने अपने पिता नृपतुंगवर्मन की मृत्यु के बाद शासन संभाला। उनका शासनकाल चोल, पांड्य, और राष्ट्रकूट वंशों के दबाव से चिह्नित था।
इस समय तक चोल वंश, विशेष रूप से आदित्य चोल प्रथम के नेतृत्व में, दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभर रहा था। अपराजितवर्मन ने चोलों के खिलाफ अपने साम्राज्य की रक्षा करने का प्रयास किया। श्रीपुरमबियम की लड़ाई (लगभग 885 ईस्वी) में अपराजितवर्मन ने पांड्य शासक वरगुण वर्मन द्वितीय के साथ गठबंधन कर चोलों का मुकाबला किया। इस युद्ध में वह शुरू में सफल रहे, लेकिन यह जीत अस्थायी थी। अंततः, आदित्य चोल प्रथम ने अपराजितवर्मन को एक निर्णायक युद्ध में पराजित किया, जिसके परिणामस्वरूप पल्लव साम्राज्य का अंत हुआ। काँचीपुरम सहित पल्लव क्षेत्र चोल साम्राज्य का हिस्सा बन गए।
2. सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान:
अपराजितवर्मन के शासनकाल में पल्लव साम्राज्य की सैन्य और राजनीतिक कमजोरी के कारण कोई उल्लेखनीय स्थापत्य कार्य दर्ज नहीं है। काँचीपुरम और महाबलीपुरम जैसे केंद्र धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व बनाए रखे हुए थे, लेकिन नए मंदिरों या बड़े पैमाने पर निर्माण कार्यों का अभाव रहा। पहले से निर्मित पल्लव मंदिरों, जैसे कैलासनाथ मंदिर और वैकुंठ पेरुमाल मंदिर, का संरक्षण उनके शासनकाल में भी जारी रहा।
3. धर्म और प्रशासन:
अपराजितवर्मन ने अपने पूर्वजों की तरह शैव और वैष्णव धर्मों को संरक्षण प्रदान किया, जिससे पल्लव वंश की धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा बरकरार रही।
काँचीपुरम उनके शासनकाल में भी एक धार्मिक केंद्र बना रहा, हालाँकि इसकी राजनीतिक और सैन्य शक्ति लगभग समाप्त हो चुकी थी। प्रशासनिक ढांचा कमजोर होने के कारण उनके शासनकाल में साम्राज्य का प्रभावी नियंत्रण सीमित रहा।
4. पल्लव वंश का अंत:
अपराजितवर्मन की हार और मृत्यु (लगभग 897 ईस्वी) के बाद पल्लव वंश का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया। चोल शासक आदित्य चोल प्रथम ने पल्लव क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
कुछ विद्वानों का मानना है कि अपराजितवर्मन के बाद पल्लव वंश के कुछ अवशेष छोटे-मोटे स्थानीय शासकों के रूप में बने रहे, लेकिन वे चोलों के अधीनस्थ थे और स्वतंत्र शक्ति के रूप में कोई महत्व नहीं रखते थे।
पल्लव वंश की समाप्ति के साथ ही दक्षिण भारत में चोल वंश का प्रभुत्व स्थापित हो गया, जिसने बाद में दक्षिण भारतीय इतिहास को नई दिशा दी।
महत्वपूर्ण बिंदु:
श्रीपुरमबियम की लड़ाई: अपराजितवर्मन ने पांड्यों के साथ गठबंधन कर चोलों के खिलाफ युद्ध लड़ा, लेकिन यह जीत अस्थायी रही।
पल्लव पतन: उनकी हार ने पल्लव वंश के स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और चोलों ने काँचीपुरम सहित उनके क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।
काँची का धार्मिक महत्व: काँचीपुरम अंत तक एक धार्मिक केंद्र बना रहा, हालाँकि इसकी राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गई।
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