guptottar kaal
jp Singh
2025-05-22 15:42:05
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गुप्तोत्तर काल
गुप्तोत्तर काल (लगभग 550 ई. से 750 ई.)
गुप्तोत्तर काल (लगभग 550 ई. से 750 ई.) में भारत में केंद्रीकृत शासन का अंत हो गया और विभिन्न क्षेत्रीय राजवंशों का उदय हुआ। इस काल में कई शासकों और वंशों ने उत्तर भारत, दक्षिण भारत और अन्य क्षेत्रों में शासन किया। नीचे गुप्तोत्तर काल के प्रमुख शासकों और उनके वंशों का विस्तृत विवरण दिया गया है:
पुष्यभूति वंश (थानेश्वर और कन्नौज)
पुष्यभूति वंश इस काल का सबसे महत्वपूर्ण वंश था, जिसकी राजधानी पहले थानेश्वर और बाद में कन्नौज थी। इसके प्रमुख शासक निम्नलिखित हैं:
पुष्यभूति: वंश के संस्थापक, जिनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। इन्होंने थानेश्वर में वंश की नींव रखी।
नरवर्धन: प्रारंभिक शासक, जिन्होंने वंश को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रभाकरवर्धन (590-605 ई.): एक शक्तिशाली शासक, जिन्होंने हूणों और मालवा के गुप्त शासकों के खिलाफ युद्ध लड़े। इन्होंने थानेश्वर को एक मजबूत केंद्र बनाया। इनकी पुत्री राज्यश्री का विवाह मगध के गुप्त शासक से हुआ था।
राज्यवर्धन (605-606 ई.): प्रभाकरवर्धन के पुत्र। इन्होंने मालवा के शासक देवगुप्त को हराया, लेकिन गौड़ (बंगाल) के शासक शशांक द्वारा धोखे से उनकी हत्या कर दी गई।
हर्षवर्धन (606-647 ई.): गुप्तोत्तर काल का सबसे प्रसिद्ध शासक। हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया और उत्तर भारत में पंजाब, राजस्थान, बिहार, बंगाल और ओडिशा के कुछ हिस्सों को अपने अधीन किया।
उपलब्धियाँ:
हर्ष ने शशांक को परास्त कर अपने भाई की हत्या का बदला लिया। दक्षिण में चालुक्य शासक पुलकेशिन II के साथ युद्ध हुआ, लेकिन वह नर्मदा नदी के दक्षिण में विस्तार नहीं कर सके। हर्ष एक विद्वान और नाटककार थे, जिन्होंने रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद जैसे नाटक लिखे। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को संरक्षण दिया और बौद्ध धर्म के साथ-साथ हिंदू और जैन धर्म को भी समर्थन दिया। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उनके शासनकाल का विस्तृत विवरण दिया है।
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद पुष्यभूति वंश कमजोर पड़ गया, क्योंकि उनके कोई उत्तराधिकारी नहीं था।
मैत्रक वंश (वल्लभी, गुजरात) मैत्रक वंश गुप्त साम्राज्य के सामंत के रूप में उभरा और पश्चिमी भारत में शक्तिशाली रहा।
भट्टारक: मैत्रक वंश का संस्थापक, जिसने वल्लभी (सौराष्ट्र, गुजरात) में शासन स्थापित किया।
धरसेन I और II: इन शासकों ने मैत्रक वंश को सुदृढ़ किया और व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया।
शीलादित्य I (लगभग 606-612 ई.): मैत्रक वंश का एक महत्वपूर्ण शासक, जिसने हूणों के खिलाफ युद्ध लड़ा और वल्लभी को एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र बनाया।
लATER गुप्त वंश (मगध)
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद मगध में गुप्त वंश के अवशेष बने रहे, जिन्हें लATER गुप्त वंश कहा जाता है।
कुमारगुप्त III: गुप्त वंश का एक कमजोर शासक, जिसका शासन मगध तक सीमित था। देवगुप्त: मालवा के गुप्त शासक, जिसने पुष्यभूति वंश के साथ संघर्ष किया। वह राज्यवर्धन की हत्या में शामिल था। विश्वगुप्त और अन्य: ये शासक छोटे स्तर पर मगध और आसपास के क्षेत्रों में शासन करते रहे, लेकिन उनकी शक्ति सीमित थी।
गौड़ (बंगाल)
गौड़ (वर्तमान बंगाल) में शशांक एक प्रमुख शासक था।
शशांक (लगभग 600-625 ई.): गौड़ का शक्तिशाली शासक, जिसने मगध और अन्य क्षेत्रों पर हमले किए। उसने पुष्यभूति वंश के साथ संघर्ष किया और राज्यवर्धन की हत्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शशांक ने बौद्ध धर्म के खिलाफ कठोर नीतियाँ अपनाईं और बोधगया जैसे बौद्ध केंद्रों को नुकसान पहुँचाया। हर्षवर्धन ने शशांक को परास्त किया, जिसके बाद गौड़ की शक्ति कमजोर पड़ी।
मालवा और अन्य क्षेत्रीय शासक
यशोधर्मन (लगभग 530-540 ई.): मालवा का एक स्वतंत्र शासक, जिसने हूण शासक मिहिरकुल को परास्त किया। उसका शासन अल्पकालिक था, लेकिन हूणों के खिलाफ उसकी विजय महत्वपूर्ण थी। इशानवर्मन: मौर्य वंश (मालवा) का शासक, जिसने क्षेत्रीय स्तर पर शासन किया और पुष्यभूति वंश के साथ प्रतिस्पर्धा की।
दक्षिण भारत के शासक
गुप्तोत्तर काल में दक्षिण भारत में भी कई शक्तिशाली वंश उभरे, जो उत्तर भारत के शासकों के साथ प्रतिस्पर्धा में थे।
चालुक्य वंश (वातापी, कर्नाटक)
पुलकेशिन II (610-642 ई.): चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक। उसने हर्षवर्धन को नर्मदा नदी के पास परास्त किया और दक्षिण भारत में एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। चालुक्यों ने दक्कन में शासन किया और पल्लवों के साथ प्रतिस्पर्धा की।
पल्लव वंश (कांची, तमिलनाडु)
महेंद्रवर्मन I (600-630 ई.): पल्लव वंश का एक महत्वपूर्ण शासक, जिसने कला और स्थापत्य में योगदान दिया। वह चालुक्यों के साथ युद्ध में शामिल था। नरसिंहवर्मन I (630-668 ई.): इस शासक ने चालुक्यों को परास्त किया और कanchi को सांस्कृतिक केंद्र बनाया। वह ममल्लपुरम (महाबलीपुरम) के रथ मंदिरों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है।
अन्य क्षेत्रीय शासक
हूण शासक (उत्तर-पश्चिम भारत): मिहिरकुल (लगभग 510-530 ई.): हूणों का क्रूर शासक, जिसने उत्तर-पश्चिम भारत में आतंक मचाया। उसे यशोधर्मन और बालादित्य (गुप्त शासक) ने परास्त किया।
कश्मीर के शासक: कश्मीर में स्थानीय शासकों ने स्वतंत्र रूप से शासन किया, लेकिन इस काल में उनका प्रभाव सीमित था।
गुप्तोत्तर काल के शासकों की विशेषताएँ
राजनीतिक विखंडन: गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद कोई केंद्रीकृत शक्ति नहीं रही। शासक क्षेत्रीय स्तर पर शक्तिशाली थे, लेकिन उनके साम्राज्य अस्थायी थे।
सामंतवाद: अधिकांश शासकों ने सामंतवादी व्यवस्था को अपनाया, जिसमें स्थानीय सामंतों को स्वायत्तता दी गई।
सांस्कृतिक योगदान: हर्षवर्धन, मैत्रक, चालुक्य और पल्लव शासकों ने कला, साहित्य और धर्म को बढ़ावा दिया।
धर्म और संरक्षण: बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और जैन धर्म को विभिन्न शासकों ने संरक्षण दिया। हर्षवर्धन और मैत्रक वंश ने बौद्ध और जैन धर्म को विशेष समर्थन दिया।
पुष्यभूति वंश
पुष्यभूति वंश, जिसे वर्धन वंश के नाम से भी जाना जाता है, उत्तर भारत में 6वीं से 7वीं शताब्दी के दौरान एक प्रमुख शासक वंश था। इस वंश की स्थापना पुष्यभूति ने की थी, और इसका सबसे प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन (606-647 ई.) था। यह वंश थानेश्वर (वर्तमान हरियाणा) को अपनी राजधानी बनाकर शासन करता था, और बाद में हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
पुष्यभूति वंश के प्रमुख तथ्य:
1. उत्पत्ति और स्थापना: पुष्यभूति वंश का उदय थानेश्वर में हुआ। इस वंश का प्रारंभिक इतिहास स्पष्ट नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि पुष्यभूति इसके संस्थापक थे। इस वंश का उल्लेख बाणभट्ट की रचना हर्षचरित और चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरणों में मिलता है।
2. प्रमुख शासक: नरवर्धन: पुष्यभूति वंश का पहला उल्लेखनीय शासक, जिसने वंश की नींव को मजबूत किया। प्रभाकरवर्धन: नरवर्धन के बाद, प्रभाकरवर्धन एक शक्तिशाली शासक थे। उन्होंने थानेश्वर को एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाया और मालवा के हूणों और गुर्जरों के खिलाफ युद्ध लड़े। राज्यवर्धन: प्रभाकरवर्धन के पुत्र, जिन्होंने अल्पकाल तक शासन किया। उनकी मृत्यु शिशुपाल गुप्त द्वारा धोखे से की गई। हर्षवर्धन: पुष्यभूति वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक। उन्होंने 606 ई. में सिंहासन संभाला और अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत के बड़े हिस्से में किया। उनकी राजधानी कन्नौज थी।
3. हर्षवर्धन का शासन: हर्षवर्धन ने उत्तर भारत में एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जिसमें पंजाब, राजस्थान, बिहार, बंगाल और ओडिशा के कुछ हिस्से शामिल थे। वह एक कुशल प्रशासक, कवि, और विद्वानों का संरक्षक था। बाणभट्ट और ह्वेनसांग के विवरणों से उनके शासन की जानकारी मिलती है। हर्षवर्धन बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने हिंदू धर्म और जैन धर्म का भी सम्मान किया। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय को संरक्षण दिया और कन्नौज और प्रयाग में धार्मिक सभाओं का आयोजन किया।
4. सांस्कृतिक योगदान: पुष्यभूति वंश, विशेष रूप से हर्षवर्धन के शासनकाल में, कला, साहित्य और शिक्षा का स्वर्ण युग माना जाता है। हर्षवर्धन स्वयं एक नाटककार थे और उन्होंने रत्नावली, प्रियदर्शिका, और नागानंद जैसे नाटकों की रचना की। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों को उनके संरक्षण से बहुत समृद्धि प्राप्त हुई।
5. पतन: हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद पुष्यभूति वंश का पतन शुरू हुआ। उनके कोई उत्तराधिकारी नहीं था, जिसके कारण साम्राज्य कमजोर पड़ गया। कन्नौज पर विभिन्न शक्तियों, जैसे चालुक्यों और गुप्तों के अवशेषों, ने दबाव डाला, जिससे वंश का अंत हुआ।
महत्व: पुष्यभूति वंश ने उत्तर भारत में स्थिरता और सांस्कृतिक समृद्धि प्रदान की। हर्षवर्धन का शासनकाल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण काल के रूप में जाना जाता है, जो गुप्त युग और मध्यकाल के बीच का एक सेतु था।
पल्लव वंश (Pallava Dynasty)
पल्लव वंश (Pallava Dynasty) प्राचीन दक्षिण भारत का एक प्रमुख राजवंश था, जिसने 3वीं शताब्दी से 9वीं शताब्दी ईस्वी तक, मुख्य रूप से वर्तमान तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के क्षेत्रों में शासन किया। पल्लव वंश अपनी कला, स्थापत्य, साहित्य और धार्मिक संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है, विशेष रूप से ममल्लपुरम (महाबलीपुरम) के मंदिरों और शिल्पकला के लिए। यह वंश दक्षिण भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण कड़ी था।
पल्लव वंश का अवलोकन
काल: लगभग 275 ईस्वी से 897 ईस्वी तक। राजधानी: कांचीपुरम (तमिलनाडु), जिसे प्राचीन भारत में एक प्रमुख सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र माना जाता था।
प्रमुख क्षेत्र: तमिलनाडु, दक्षिणी आंध्र प्रदेश, और उत्तरी श्रीलंका के कुछ हिस्से।
उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास
उत्पत्ति: पल्लव वंश की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि वे स्थानीय द्रविड़ मूल के थे, जबकि अन्य उन्हें पार्थियन या पह्लव (ईरानी) मूल से जोड़ते हैं, जो दक्षिण भारत में बस गए। उनके नाम
प्रारंभिक शासक: पल्लव वंश के प्रारंभिक शासकों के बारे में जानकारी सीमित है। प्रारंभिक शिलालेखों में शिवस्कंदवर्मन और विश्नुगोप जैसे शासकों का उल्लेख मिलता है। ये शासक 3वीं-4वीं शताब्दी में सक्रिय थे और कांचीपुरम को अपनी राजधानी बनाया।
साम्राज्य का उदय: पल्लव वंश 6वीं शताब्दी से प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा Shelley बहुत अधिक शक्तिशाली बन गए, विशेष रूप से सिंहवर्मन और उनके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में।
प्रमुख शासक और उपलब्धियां
1. सिंहवर्मन (लगभग 550-580 ईस्वी): पल्लव वंश के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक। उन्होंने पड़ोसी राजवंशों, जैसे कलभ्र और विश्नुकुंडिन, के खिलाफ युद्ध लड़े और कांचीपुरम को एक शक्तिशाली केंद्र बनाया। उनके शासनकाल में कला और स्थापत्य को बढ़ावा मिला।
2. महेंद्रवर्मन प्रथम (लगभग 600-630 ईस्वी): एक बहुमुखी शासक, जो कवि, संगीतकार, और नाटककार थे। उन्होंने
3. नरसिंहवर्मन प्रथम (लगभग 630-668 ईस्वी): उपनाम
4. ममल्लपुरम (महाबलीपुरम): यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल। रथ मंदिर (पांच मोनोलिथिक मंदिर), गंगा अवतरण का शिल्प, और तट मंदिर पल्लव स्थापत्य की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं। ये संरचनाएं चट्टानों को काटकर बनाई गईं और द्रविड़ मंदिर शैली का प्रारंभिक उदाहरण हैं।
5.कांचीपुरम: कैलाशनाथ मंदिर और वैकुंठ पेरुमल मंदिर पल्लव स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। कांचीपुरम एक प्रमुख धार्मिक और शैक्षिक केंद्र था, जहां हिंदू, बौद्ध, और जैन विद्वान एकत्रित होते थे।
6.साहित्य और शिक्षा: पल्लव शासकों ने संस्कृत और तमिल साहित्य को संरक्षण दिया। तमिल भक्ति कवि जैसे नयनमार (शैव) और अलवार (वैष्णव) उनके समय में सक्रिय थे। कांचीपुरम में संस्कृत विद्या और दर्शनशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रसिद्ध केंद्र थे।
धार्मिक संरक्षण: पल्लव शासकों ने हिंदू धर्म (शैव और वैष्णव), बौद्ध धर्म, और जैन धर्म को संरक्षण दिया। उनके शासनकाल में मंदिरों, विहारों, और जैन मठों का निर्माण हुआ। भक्ति आंदोलन को पल्लव संरक्षण ने बढ़ावा दिया, जिसने तमिल साहित्य और धार्मिक चेतना को समृद्ध किया।
पतन: 9वीं शताब्दी तक पल्लव वंश कमजोर होने लगा। चोल और राष्ट्रकूट जैसे उभरते राजवंशों ने उनके क्षेत्रों पर कब्जा करना शुरू किया। अंतिम प्रमुख पल्लव शासक अपराजितवर्मन (लगभग 879-897 ईस्वी) थे, जिन्हें चोल शासक आदित्य चोल ने हराया। पल्लव वंश का प्रभाव समाप्त हो गया, लेकिन उनकी सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत चोल, चालुक्य, और अन्य दक्षिण भारतीय राजवंशों में जीवित रही।
पल्लव वंश और वाकाटक वंश (नरेंद्रसेन/पृथ्वीषेण द्वितीय) का संबंध
काल और क्षेत्र: पल्लव वंश और वाकाटक वंश (नंदीवर्धन शाखा) दोनों 5वीं-6वीं शताब्दी में समकालीन थे। वाकाटक मध्य भारत (विदर्भ, मालवा) में शासन करते थे, जबकि पल्लव दक्षिण भारत (कांचीपुरम और तमिलनाडु) में। दोनों के बीच प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, लेकिन व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान संभव था।
गुप्त साम्राज्य: दोनों वंशों का गुप्त साम्राज्य के साथ संबंध था। वाकाटकों के वैवाहिक गठजोड़ (प्रभाववती गुप्ता) थे, जबकि पल्लवों ने गुप्तों के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए रखे। सांस्कृतिक प्रभाव: वाकाटक (अजंता गुफाएं) और पल्लव (ममल्लपुरम) दोनों ने कला और स्थापत्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वाकाटक अधिक बौद्ध-केंद्रित थे, जबकि पल्लवों ने हिंदू मंदिर स्थापत्य को बढ़ावा दिया।
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