Abhira
jp Singh
2025-05-22 11:42:15
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आभीर
आभीर (Abhira)
आभीर (Abhira) प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण जनजाति थी, जिसका उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराणों, और अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। ऐतिहासिक रूप से, आभीरों ने तीसरी शताब्दी ईसवी में पश्चिमी दक्कन में एक शक्तिशाली राजवंश स्थापित किया, जो संभवतः सातवाहन वंश के पतन के बाद उभरा। आभीरों को एक युद्धप्रिय और pastoral (गोपालक) जनजाति के रूप में जाना जाता था, जिन्होंने पश्चिमी भारत, विशेष रूप से गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में महत्वपूर्ण प्रभाव स्थापित किया। नीचे आभीरों का पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ में विस्तृत विवरण दिया गया है।
1. पौराणिक संदर्भ में आभीरउ
त्पत्ति और पहचान: नाम:
महाभारत में उल्लेख: महाभारत के सभा पर्व (II.29.9) और भीष्म पर्व (VI.10.45) में आभीरों को सरस्वती नदी के तट पर और समुद्र तट के निकट बसे हुए बताया गया है, जो वर्तमान गुजरात और राजस्थान के क्षेत्रों से मेल खाता है। महाभारत में आभीरों को कौरवों के पक्ष में युद्ध लड़ने वाली एक जनजाति के रूप में वर्णित किया गया है। वे यदुवंशियों (जैसे गोप, गोपाल, और सात्वत) के साथ निकटता से जुड़े थे और भगवान कृष्ण के अनुयायी माने जाते थे। आभीरों को
पुराणों में उल्लेख: विष्णु पुराण, भागवत पुराण, और मार्कण्डेय पुराण में आभीरों को सौराष्ट्र, अवंती, और हरियाणा क्षेत्रों से जोड़ा गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, परशुराम द्वारा हैहय वंश के नरसंहार के बाद आभीर बच गए और कलियुग में शासन करने की भविष्यवाणी की गई। भागवत पुराण में आभीरों को भगवान कृष्ण के साथ जोड़ा गया है, और उन्हें यदुवंश का हिस्सा माना गया है।
अन्य ग्रंथ: पतंजलि के महाभाष्य में आभीरों को शूद्रों से अलग एक जनजाति के रूप में उल्लेखित किया गया है। वात्स्यायन के कामसूत्र में आभीर राज्यों का उल्लेख है, जो उनकी प्राचीन उपस्थिति को दर्शाता है। पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी (पहली शताब्दी ईसवी) में आभीरों को एक ऐतिहासिक जनजाति के रूप में उल्लेखित किया गया है, जो पश्चिमी भारत में बसी थी।
सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान
कृष्ण से संबंध: आभीरों को भगवान कृष्ण के साथ निकटता से जोड़ा गया है। कई ग्रंथों में उन्हें कृष्ण की गोप-गोपी परंपरा का हिस्सा माना गया है, विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन क्षेत्र में।
पशुपालक और युद्धप्रिय: आभीर मुख्य रूप से पशुपालक (गाय और मवेशी पालने वाले) थे, लेकिन उनकी युद्धप्रिय प्रकृति ने उन्हें एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया। कुछ ग्रंथों में उन्हें लुटेरी जनजाति के रूप में भी वर्णित किया गया है।
वैदिक और गैर-वैदिक परंपराएं: आभीर वैदिक परंपराओं के अनुयायी थे, लेकिन उनकी कुछ प्रथाएं, जैसे पशुपालन और स्वतंत्र जीवनशैली, उन्हें वैदिक समाज से अलग करती थीं।
प्रमुख पौराणिक संदर्भ: यदुवंश से संबंध: आभीरों को यदुवंशियों (वृष्णि, सात्वत, और अंधक) के साथ जोड़ा गया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि आभीर यदुवंश की एक शाखा थे, जबकि अन्य उन्हें एक अलग जनजाति मानते हैं।
उर्वशी और पुरुरवस: ऋग्वेद में उल्लिखित उर्वशी, जो एक अप्सरा थीं, को आभीर कन्या माना गया है। वह चंद्रवंशी राजा पुरुरवस की पत्नी थीं और चंद्रवंशी वंश की माता मानी जाती हैं।
मथुरा का आभीर राज्य: महाभारत में मथुरा को आभीरों का एक शक्तिशाली राज्य बताया गया है, जिस पर कृष्ण के नाना उग्रसेन ने शासन किया।
2. ऐतिहासिक संदर्भ में आभीर
ऐतिहासिक रूप से, आभीरों ने तीसरी शताब्दी ईसवी में पश्चिमी दक्कन में एक शक्तिशाली राजवंश स्थापित किया, जो सातवाहन वंश के पतन के बाद उभरा। यह वंश महाराष्ट्र, गुजरात, और दक्षिणी मध्य प्रदेश के क्षेत्रों में फैला था।
उत्पत्ति और स्थापना: काल: आभीर राजवंश का शासनकाल लगभग 203-270 ईसवी या कुछ विद्वानों के अनुसार 370 ईसवी तक माना जाता है।
राजधानी: आभीरों की राजधानी संभवतः नासिक (महाराष्ट्र) या त्रिकूट (अपरांत, वर्तमान कोंकण) थी। कुछ स्रोतों में उनकी राजधानी वामनस्थली (वर्तमान वंथली, जूनागढ़, गुजरात) के रूप में उल्लेखित है।
संस्थापक: आभीर राजवंश का संस्थापक ईश्वरसेन माना जाता है, जो आभीर शिवदत्त का पुत्र था। कुछ विद्वानों का मानना है कि शिवदत्त ने ही आभीर शक्ति की नींव रखी, लेकिन उन्हें राजा का दर्जा नहीं दिया गया।
प्रमुख शासक:
1. शिवदत्त (लगभग 200-225 ईसवी): शिवदत्त को कुछ इतिहासकार आभीर शक्ति का वास्तविक संस्थापक मानते हैं, हालांकि उनके पास कोई शाही उपाधि नहीं थी। वह संभवतः सातवाहन राजा यज्ञश्री शातकर्णी की सेवा में थे और उनके पतन के बाद पश्चिमी महाराष्ट्र पर कब्जा किया। उनकी पत्नी मथारी थी, और उनके पुत्र साकसेन और ईश्वरसेन थे।
2. साकसेन (मथारीपुत्र साकसेन) (लगभग 225-235 ईसवी): साकसेन, शिवदत्त का पुत्र, आभीर राजा था और उसे
3. ईश्वरसेन (मथारीपुत्र ईश्वरसेन) (लगभग 235-260 ईसवी): ईश्वरसेन, साकसेन का भाई और उत्तराधिकारी, आभीर राजवंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था। उसने आभीर-त्रिकूटक युग (248 ईसवी) की शुरुआत की, जो बाद में कलचुरि-चेदि युग के रूप में जाना गया। नासिक गुफा शिलालेख (237 ईसवी, उनके शासन के 9वें वर्ष में) में उसे
4. वसिष्ठीपुत्र वासुसेन (लगभग 260-270 ईसवी): वासुसेन आभीर वंश का एक अन्य शासक था, जिसके बाद आभीरों ने अपनी संप्रभुता खो दी। उनके समय में आभीर क्षेत्र वाकाटक (उत्तर) और कदंब (दक्षिण-पश्चिम) राजवंशों द्वारा हड़प लिया गया।
5. लक्ष्मीदेव (लगभग 13वीं शताब्दी): आंबे (हैदराबाद) में मिले एक शिलालेख के अनुसार, लक्ष्मीदेव एक आभीर राजा था, जिसे यादव राजा सिंहण के सेनापति खोलेश्वर ने हराया। वह भंभागिरी (वर्तमान भामेर, खानदेश) का शासक था।
6. कामपाल (लगभग 13वीं शताब्दी): कामपाल एक अन्य आभीर राजा था, जिसे यादव राजा सिंहण के पौत्र कृष्ण ने पराजित किया। वह संभवतः खानदेश क्षेत्र में शासक था।
सैन्य उपलब्धियां
सातवाहन पतन के बाद उदय: आभीरों ने सातवाहन वंश के पतन के बाद पश्चिमी दक्कन पर कब्जा किया। उन्होंने नासिक, अपरांत, लाट, अश्मक, और खानदेश जैसे क्षेत्रों पर शासन किया।
शक क्षत्रपों के साथ संबंध: आभीर पहले शक क्षत्रपों की सेवा में थे और उनकी सहायता से नए क्षेत्रों पर कब्जा किया। गुंडा शिलालेख (181 ईसवी) में आभीर रुद्रभूति को शक क्षत्रप रुद्रसिंह का सेनापति बताया गया है।
मालवा पर कब्जा: आभीरों ने संभवतः मालवा को क्षहरात क्षत्रपों से छीना।
साम्राज्य का विस्तार: आभीर साम्राज्य में महाराष्ट्र, कोंकण, गुजरात, और दक्षिणी मध्य प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि तीसरी शताब्दी में आभीर एक साम्राज्यवादी शक्ति थे।
ससानिद साम्राज्य के साथ कूटनीति: 293 ईसवी में पैकली शिलालेख के अनुसार, एक आभीर राजा (आभीरन साह) ने ससानिद शाह नरसेह को उनकी जीत पर बधाई दी।
प्रशासन
प्रशासनिक ढांचा: आभीरों ने सातवाहन प्रशासनिक ढांचे को अपनाया, जिसमें साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित किया गया था। सेनापति और महामात्र जैसे अधिकारी प्रशासन संभालते थे।
कर और राजस्व: आभीरों ने कृषि और व्यापार से राजस्व प्राप्त किया। सौराष्ट्र और कोंकण के बंदरगाहों ने उनकी अर्थव्यवस्था को समर्थन दिया।
मुद्रा: ईश्वरसेन के सिक्के सौराष्ट्र और दक्षिणी राजस्थान में मिले हैं, जो उनकी आर्थिक शक्ति को दर्शाते हैं। ये सिक्के सातवाहन और शक सिक्कों से प्रेरित थे।
आर्थिक नीतियां और व्यापार: कृषि और पशुपालन: आभीर मुख्य रूप से पशुपालक थे, और उनकी अर्थव्यवस्था गाय और मवेशी पालन पर आधारित थी। वे कृषि में भी कुशल थे।
व्यापार: आभीरों ने सौराष्ट्र और कोंकण के बंदरगाहों, जैसे भड़ौच, के माध्यम से व्यापार को बढ़ावा दिया। रोमन साम्राज्य और दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक संबंध थे।
आर्थिक स्थिरता: आभीरों की आर्थिक नीतियां उनके साम्राज्य को स्थिर रखने में सहायक थीं, लेकिन क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा ने उनकी शक्ति को सीमित किया।
सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
कृष्ण भक्ति: आभीरों ने भगवान कृष्ण की पूजा को बढ़ावा दिया। उनकी गोप-गोपी परंपरा ने वृंदावन और मथुरा में कृष्ण भक्ति को समृद्ध किया।
वैदिक और गैर-वैदिक परंपराएं: आभीरों ने वैदिक परंपराओं का पालन किया, लेकिन उनकी पशुपालक जीवनशैली ने उन्हें गैर-वैदिक प्रथाओं से भी जोड़ा।
कला और वास्तुकला: आभीर काल में नासिक की गुफाएं और अन्य संरचनाएं सातवाहन कला से प्रभावित थीं। हालांकि, उनकी अपनी विशिष्ट कला का विकास सीमित था।
साहित्य: आभीरों का उल्लेख मृच्छकटिकम (शूद्रक) और प्रबोधचंद्रोदय जैसे साहित्यिक कार्यों में मिलता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि शूद्रक आभीर शिवदत्त का उपनाम था।
विरासत और पतन
विरासत: आभीरों ने सातवाहन सांस्कृतिक परंपराओं को आगे बढ़ाया, विशेष रूप से कृष्ण भक्ति और पशुपालन में। उनकी धार्मिक सहिष्णुता ने वैदिक और यदुवंशी परंपराओं के बीच सामंजस्य बनाए रखा। आभीरों का प्रभाव बाद के राजवंशों, जैसे कलचुरि, चालुक्य, और राष्ट्रकूट, में देखा जा सकता है, जो संभवतः आभीर मूल के थे।
पतन: वसिष्ठीपुत्र वासुसेन के बाद आभीरों ने अपनी संप्रभुता खो दी। उनके क्षेत्र वाकाटक और कदंब राजवंशों द्वारा हड़प लिए गए। त्रिकूटक, जो संभवतः आभीरों की एक शाखा थे, ने 415 ईसवी तक शासन किया। चौथी शताब्दी तक आभीर छोटे-छोटे सामंतों के रूप में बने रहे, लेकिन उनकी शक्ति समाप्त हो गई।
3. ऐतिहासिक स्रोत
आभीरों के बारे में जानकारी निम्नलिखित स्रोतों से प्राप्त होती है
शिलालेख: नासिक गुफा शिलालेख (237 ईसवी): ईश्वरसेन का उल्लेख। गुंडा शिलालेख (181 ईसवी): रुद्रभूति को शक क्षत्रप रुद्रसिंह का सेनापति बताया गया। आंबे शिलालेख: लक्ष्मीदेव के पतन का उल्लेख।
सिक्के: ईश्वरसेन के सिक्के सौराष्ट्र और राजस्थान में मिले हैं।
पुराण: विष्णु पुराण, भागवत पुराण, और मार्कण्डेय पुराण में आभीरों का उल्लेख।
साहित्य: महाभारत, रामायण, कामसूत्र, मृच्छकटिकम, और पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी।
पुरातात्विक साक्ष्य: नासिक, भामेर, और वंथली के पुरातात्विक अवशेष।
4. आभीरों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
सातवाहन उत्तराधिकारी: आभीरों ने सातवाहन वंश के पतन के बाद पश्चिमी दक्कन में शक्ति स्थापित की और उनकी सांस्कृतिक परंपराओं को आगे बढ़ाया।
कृष्ण भक्ति का प्रसार: आभीरों ने कृष्ण भक्ति को लोकप्रिय बनाया, विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में।
क्षेत्रीय प्रभाव: आभीरों का साम्राज्य महाराष्ट्र, गुजरात, और मध्य प्रदेश तक फैला, जो उनकी सैन्य और प्रशासनिक शक्ति को दर्शाता है।
आधुनिक संदर्भ: आभीरों को आधुनिक अहीर (यादव) समुदाय का पूर्वज माना जाता है। अहीर समुदाय ने 19वीं और 20वीं शताब्दी में संस्कृतीकरण के माध्यम से यदुवंशी पहचान को अपनाया।
5. सीमाएं और चुनौतियां
स्रोतों की अस्पष्टता: आभीरों के इतिहास में बहुत सी अस्पष्टता है, क्योंकि उनके शिलालेख और सिक्के सीमित हैं।
क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा: आभीरों को वाकाटक, कदंब, और त्रिकूटक जैसे राजवंशों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
पतन: आभीरों का तेजी से पतन क्षेत्रीय शक्तियों के दबाव और आंतरिक कमजोरी का परिणाम था।
विवादास्पद उत्पत्ति: कुछ विद्वान आभीरों को आर्य, कुछ को द्रविड़, और कुछ को इंडो-स्किथियन मानते हैं, जिससे उनकी उत्पत्ति विवादास्पद है।
आभीर राजवंश और उनकी सांस्कृतिक विरासत का सार
आभीर (Abhira) प्राचीन भारत की एक युद्धप्रिय और पशुपालक जनजाति थी, जिसने तीसरी शताब्दी ईसवी में पश्चिमी दक्कन में सातवाहन वंश के पतन के बाद एक शक्तिशाली राजवंश स्थापित किया। आभीरों का साम्राज्य महाराष्ट्र, गुजरात, कोंकण, और दक्षिणी मध्य प्रदेश तक फैला था। पौराणिक रूप से, आभीर भगवान कृष्ण और यदुवंश से जुड़े थे, और उनकी गोप-गोपी परंपरा ने भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया। ऐतिहासिक रूप से, ईश्वरसेन जैसे शासकों ने आभीर-त्रिकूटक युग की शुरुआत की।
प्रमुख बिंदु
1. पौराणिक महत्व: आभीरों को महाभारत, रामायण, और पुराणों में सरस्वती नदी और सौराष्ट्र क्षेत्र में बसी जनजाति के रूप में उल्लेखित किया गया है। वे भगवान कृष्ण के अनुयायी थे और यदुवंश (वृष्णि, सात्वत) से संबंधित माने जाते हैं। मार्कण्डेय पुराण में आभीरों को कलियुग में शासन करने वाली जनजाति बताया गया है।
2. ऐतिहासिक आभीर राजवंश: संस्थापक: ईश्वरसेन (लगभग 235-260 ईसवी), जो शिवदत्त का पुत्र था। प्रमुख शासक: शिवदत्त, साकसेन, ईश्वरसेन, और वसिष्ठीपुत्र वासुसेन। राजधानी: नासिक या त्रिकूट (अपरांत, कोंकण)। क्षेत्र: महाराष्ट्र, गुजरात, कोंकण, और मालवा।
3. सैन्य और प्रशासनिक उपलब्धियां: आभीरों ने सातवाहन पतन के बाद पश्चिमी दक्कन पर कब्जा किया और शक क्षत्रपों की सहायता से मालवा पर नियंत्रण स्थापित किया। ईश्वरसेन ने आभीर-त्रिकूटक युग (248 ईसवी) की शुरुआत की, जो बाद में कलचुरि-चेदि युग बना। नासिक गुफा शिलालेख और सिक्के उनके प्रशासनिक और आर्थिक प्रभाव को दर्शाते हैं।
4. सांस्कृतिक योगदान: आभीरों ने कृष्ण भक्ति को बढ़ावा दिया, विशेष रूप से मथुरा और वृंदावन में। उनकी पशुपालक परंपराएं और गोप-गोपी संस्कृति ने भारतीय धार्मिक परंपराओं को समृद्ध किया। नासिक की गुफाएं और अन्य संरचनाएं उनकी सातवाहन-प्रेरित कला को दर्शाती हैं।
5. पतन: वसिष्ठीपुत्र वासुसेन के बाद आभीरों ने अपनी संप्रभुता खो दी, और उनके क्षेत्र वाकाटक और कदंब राजवंशों द्वारा हड़प लिए गए। त्रिकूटक, जो संभवतः आभीरों की शाखा थे, ने 415 ईसवी तक शासन किया।
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
आभीरों ने सातवाहन सांस्कृतिक परंपराओं को आगे बढ़ाया और कृष्ण भक्ति को लोकप्रिय बनाया।
उनका साम्राज्य तीसरी शताब्दी में पश्चिमी भारत की एक प्रमुख शक्ति था।
आभीरों का प्रभाव आधुनिक अहीर (यादव) समुदाय में देखा जा सकता है, जो उनकी यदुवंशी पहचान को अपनाता है।
Conclusion
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